लेखक: रंजन श्रीवास्तव
लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष तथा कांग्रेस के अघोषित सर्वोच्च नेता राहुल गांधी ने एक बार फिर पार्टी के अंदर विभिन्न तरीकों के घोड़ों की उपस्थिति और उनकी पहचान का मुद्दा छेड़ दिया है। घोड़ों की पहचान जब होगी तब होगी पर इस वक्तव्य से राहुल गांधी ने कांग्रेस नेतृत्व को और स्वयं के नेतृत्व क्षमता को भी कटघरे में खड़ा कर दिया है।
सबसे पहला सवाल यही उठता है कि अगर पार्टी में शादी के घोड़े या लंगड़े घोड़े भी हैं और अगर शादी के घोड़ों को रेस में या रेस के घोड़ों को शादी में भेजा जा रहा है तो इसका जिम्मेदार कौन है?
जहां तक कांग्रेस संगठन का सवाल है तो तय तो सब कुछ कांग्रेस हाई कमांड ही करता है। यहां तक कि विधायक दल का नेता चुनने के लिए भी कांग्रेस में एक लाइन का प्रस्ताव पास करके सभी कुछ कांग्रेस नेतृत्व पर छोड़ दिया जाता है।
अगर पिछले 25 वर्षों का ही पार्टी का इतिहास देखें तो जब दिग्विजय सिंह मुख्यमंत्री थे तो राधाकिशन मालवीय को कांग्रेस पार्टी के प्रदेश नेतृत्व की जिम्मेदारी तो पार्टी के सर्वोच्च नेतृत्व ने ही दिया था।
वर्ष 2003 में हुए विधान सभा चुनाव में शर्मनाक पराजय के बाद 2008 चुनाव के लिए प्रदेश संगठन की जिम्मेदारी दिग्विजय सिंह के राजनीतिक विरोधी सुरेश पचौरी के हाथों में पार्टी नेतृत्व ने ही सौंपा था।ग़लत टिकट वितरण के चलते पार्टी ने जीत के मुँह से हार छीनी। इस चुनाव में टिकट वितरण के लिए जो पैमाना चुना गया उसके किस्से आज भी पार्टी कार्यालय के गलियारों में सुने जा सकते हैं पर इन टिकटों पर अंतिम निर्णय तो कांग्रेस हाई कमांड ने ही लिया था।यह हार ऐसी थी जिसके बाद तत्कालीन मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने अपनी स्थिति इतनी मजबूत कर ली कि 2013 में कांग्रेस पार्टी को 2008 चुनाव से भी कम सीटें मिलीं।
वर्ष 2013 के चुनावों में पार्टी अध्यक्ष कांतिलाल भूरिया थे जिन्हें दिग्विजय सिंह का आदमी समझा जाता है। यानी कि पार्टी ने दूसरी बार यू टर्न लिया। अगर 2008 में दिग्विजय सिंह के धुर विरोधी सुरेश पचौरी के हाथों में पार्टी की कमान सौंपी गई तो 2013 के लिए पार्टी ने कांतिलाल भूरिया को पार्टी की जिम्मेदारी देकर फिर यू टर्न लिया और एक तरह से दिग्विजय सिंह के नेतृत्व पर फिर से विश्वास किया।
वर्ष 2013 के विधान सभा चुनावों में हार के बाद पार्टी ने फिर यू टर्न लिया और पार्टी का नेतृत्व दिग्विजय सिंह के राजनीतिक विरोधी अरुण यादव को सौंप दिया। अरुण यादव 4 वर्षों तक पार्टी का नेतृत्व करते रहे पर 2018 में हुए विधान सभा चुनावों से मात्र 6 महीने पहले पार्टी ने अरुण यादव से जिम्मेदारी छीनकर कमल नाथ को प्रदेश अध्यक्ष बना दिया पर चुनावों के लिए एक साथ दो नेताओं को आगे किया- कमल नाथ और ज्योतिरादित्य सिंधिया।
पूरे चुनाव में राहुल गांधी जहां जहां भी प्रचार के लिए गए सिर्फ इन्हीं
दो नेताओं का नाम लिया। जाहिर है कि राहुल गांधी की नज़र में ये दोनों रेस के बड़े घोड़े थे। पर यहां भी पार्टी नेतृत्व ने एक गलती की। या तो अरुण यादव को हटाना नहीं था या अगर कमल नाथ के नेतृत्व और उनके संसाधनों पर ही विश्वास था तो सिर्फ उनके हाथों में पूर्ण नेतृत्व सौंपना था और उन्हें कम से कम दो वर्ष पहले प्रदेश अध्यक्ष बनाना था जिससे वे पूरे प्रदेश का कई बार दौरा कर कार्यकताओं का मनोबल बढ़ाते हुए संगठन की कमियों को अच्छी तरह से समझ सकें और उन कमियों को दूर कर सकें।
सामूहिक नेतृत्व की जगह सिर्फ दो व्यक्तियों के नेतृत्व ने इन दोनों लोगों के मन में एक साथ मुख्यमंत्री पद की महत्वाकांक्षा पैदा कर दी। रेस में दोनों दौड़े पर फ़िनिशिंग लाइन से पार्टी 2 कदम पीछे रह गई और पार्टी को रेस के अन्य और बाहरी खिलाड़ियों से समर्थन लेने के लिए मजबूर होना पड़ा। चुनाव के दौरान पार्टी के अन्य नेता चाहे वे अजय सिंह हों, सुरेश पचौरी या दिग्विजय सिंह हों या कांतिलाल भूरिया या अन्य महत्वपूर्ण नेता हों सभी ने अपने आपको पीछे कर लिया। अरुण यादव तो वैसे ही दुखी होकर किनारे थे।
विधायक दल के नेता चयन की बैठक में खुलकर मतभेद सामने आए और शक्ति प्रदर्शन हुआ। इसके चलते दोनों नेताओं के बीच जो दरार पैदा हुई वह कभी दूर नहीं हो पाई और उसका फ़ायदा अंततः भाजपा ने उठाया । अंततः कमल नाथ को मात्र 15 महीने के बाद इस्तीफ़ा देना पड़ा और कांग्रेस सरकार को गिराकर भाजपा ने पुनः अपनी सरकार बनाई।
यहां यह भी महत्वपूर्ण है कि कमल नाथ का क़द तो प्रदेश में बड़ा था पर उन्होंने स्वयं को पूरे प्रदेश के नेता के रूप में हमेशा अपने को किनारे रखा था। उनकी राजनीति दिल्ली और छिंदवाड़ा के बीच थी। अतः उनके नेतृत्व में पार्टी का परफॉरमेंस 2018 के चुनावों में संभवतः ज्यादा अच्छा रहता अगर उन्हें चुनावों के पहले ज्यादा समय मिला होता पर यह भी सत्य है कि जिन संसाधनों के नाम पर उनको पार्टी का नेतृत्व सौंपा गया और उसकी जितनी चर्चा हुई उतने संसाधन चुनावों में दिखे ही नहीं। पार्टी प्रत्याशियों और यहां तक कि संगठन को भी पूरे चुनाव के दौरान संसाधनों की कमी से जूझना पड़ा।
सभी नेता एक प्लेटफार्म पर गाहे बगाहे ही दिखे।
वर्ष 2023 में पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व ने फिर से सामूहिक नेतृत्व को तरजीह नहीं देते हुए कमल नाथ पर पूर्णतः विश्वास दिखाया और प्रदेश नेतृत्व के पद पर परिवर्तन तभी किया जब चुनावों में बुरी तरीके से हार हो गई। चुनाव के दौरान संसाधनों का अभाव एक बार फिर दिखा। अतः यह स्पष्ट है कि पार्टी में रेस के घोड़े हों या शादी वाले या फिर लंगड़े या फिर शादी के घोड़ों को रेस में भेजने की बात हो, उनकी पहचान और उनका शादी या रेस के लिए चयन तो हमेशा पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व के हाथों में ही रहा है। वस्तुतः पिछले एक दशक से ज़्यादा तो सभी निर्णय राहुल गांधी ही लेते रहे हैं।
वैसे यह पहली बार नहीं था जब उन्होंने शादी या रेस के घोड़ों का जिक्र किया हो जो उन्होंने भोपाल में कहा। अंतर सिर्फ इतना है कि इस बार उन्होंने लंगड़े घोड़ों का भी जिक्र किया। सबसे पहले उन्होंने शादी और रेस वाले घोड़ों का जिक्र गुजरात में किया था। उसके बाद पार्टी की हार हरियाणा, महाराष्ट्र और दिल्ली के चुनावों में हो चुकी है। बिहार चुनाव सामने है जहां पार्टी अपने बूते सरकार बनाने का सपना भी नहीं देख सकती। इसलिए यह समय राहुल गांधी के लिए स्वयं और पार्टी हाई कमांड के लिए आत्मचिंतन का है कि समस्या मध्य प्रदेश में है या दिल्ली नेतृत्व में।