शशी कुमार केसवानी
नमस्कार दोस्तों, आइए आज हम बात करते हैं एक ऐसे मशहूर और मारूफ संगीतकार की, जिससे मेरी सीधे तौर पर तो मेरी कभी मुलाकात नहीं हुई, पर उनके बेटे से लगाार मुलाकाते होती रहती थीं। किस्सा बड़ा पुराना है। जब हम फिल्म डिट्रिब्यूशन किया करते थे, तब मशहूर निर्माता-निर्देशक जीवन के घर पर उनसे मुलाकात होती थी। पर पहले बात उनके पिता की करते हैं। जी हां दोस्तों मैं बात कर रहा हूं रोशनलाल नागरत की। जो देश के बड़े संगीतकार तो थे ही, साथ में सहज और सरल इंसान भी थे। संगीत उनके खून में ही बसा था। बचपन में वह इसराज नामक स्टूमेंट बजाया करते थे,हालांकि बाद में उन्होंने इसकी ट्रेनिंग भी ली। संगीतकार ख्वाजा खुर्शीद अनवर के असिस्टेंट रहे। पर अपने दिल के अंदर का जुनून को रोक न सके और अलग काम शुरू किया। उन्हें बड़ा ब्रेक कैलाश शर्मा ने ही दिया था। सख्श की खूबी यह थी कि एक बार पाकिस्तान की एक कव्वाली टीम भारत परफार्म करने आई थी, तब उन्हें लगा कि कव्वाली ऐसी होनी चाहिए। बेहद हालात खराब में दिन गुजारे। यहां तक की मुंबई के वर्सोवा स्थित एक गैरेज में उनके बड़े पुत्र का जन्म हुआ था। जिसे आज राकेश रोशन के नाम से जाना जाता है। विपरीत परिस्थितियों में उन्होंने अपने संगीत को एक ऊंचे मुकाम पर रखा। छोटा बेटा राजेश रोशन भी संगीतकार बना। पोता ऋतिक रोशन भी फिल्मों में अपना बड़ा नाम कर रहा है। यह बात कम लोग ही जानते हैं कि रोशन की पत्नी ईरा रोशन भी बहुत अच्छा गाती थीं। परिवार से मेरा एक लंबे समय से परिचय रहा है। इसलिए बातें बहुत हैं पर जगह बहुत कम। इसलिए यहीं कलम को रोकता हूं। किस्से तो हजारों पर आज रोशन के कुछ काम और अनछुए पहलुओं पर बात करते हैं।
दिग्गज संगीतकार रौशन ने हर तरह के गीतों को संगीतबद्ध किया है लेकिन कव्वालियों को संगीतबद्ध करने में उन्हें महारत हासिल थी। वर्ष 1960 में प्रदर्शित सुपरहिट फिल्म बरसात की रात में यूं तो सभी गीत लोकप्रिय हुये लेकिन रोशन के संगीत निर्देशन में मन्ना डे और आशा भोंसेले की आवाज में साहिर लुधियानवी रचित कव्वाली ना तो कारवां की तलाश और मोहम्मद रफी की आवाज में ये इश्क इश्क है आज भी श्रोताओं के दिलों में अपनी अमिट छाप छोड़े हुये है। वर्ष 1963 में प्रदर्शित फिल्म दिल ही तो है में आशा भोंसले और मन्ना डे की युगल आवाज में रोशन की संगीतबद्ध कव्व्वाली निगाहें मिलाने को जी चाहता है आज जब कभी भी फिजाओं में गूंजता है तब उसे सुनकर श्रोता अभिभूत हो जाते है।
14 जुलाई 1917 को तत्कालीन पश्चिमी पंजाब के गुजरावालां शहर (अब पाकिस्तान में) एक ठेकेदार के घर में जन्मे रोशन का रूझान बचपन से ही अपने पिता के पेशे की और न होकर संगीत की ओर था । संगीत की ओर रूझान के कारण रोशन अक्सर फिल्म देखने जाया करते थे। इसी दौरान उन्होंने एक फिल्म .पुराण भगत. देखी। फिल्म पुराण भगत में पार्श्वगायक सहगल की आवाज में एक भजन रोशन को काफी पसंद आया। इस भजन से वह इतने ज्यादा प्रभावित हुये कि उन्होंने यह फिल्म कई बार देख डाली। ग्यारह वर्ष की उम्र आते -आते उनका रूझान संगीत की ओर हो गया और वह उस्ताद मनोहर बर्वे से संगीत की शिक्षा लेने लगे।
मनोहर बर्वे स्टेज के कार्यक्रम को भी संचालित किया करते थे। उनके साथ रोशन ने देश भर में हो रहे स्टेज कार्यक्रमों में हिस्सा लेना शुरू कर दिया। मंच पर जाकर मनोहर बर्वे जब कहते कि अब वह आपके सामने देश का सबसे बडा गवइयां पेश करने जा रहा हैं तो रोशन मायूस हो जाते, क्योंकि गवइयां शब्द उन्हें पसंद नहीं था। उन दिनों तक रोशन यह तय नही कर पा रहे थे कि गायक बना जाये या फिर संगीतकार।
कुछ समय के बाद रोशन घर छोड़कर लखनऊ चले गये और मॉरिस कालेज आॅफ म्यूजिक में प्रधानाध्यापक रतन जानकर से संगीत सीखने लगे। लगभग पांच वर्ष तक संगीत की शिक्षा लेने के बाद वह मैहर चले आये और उस्ताद अल्लाउदीन खान से संगीत की शिक्षा लेने लगे। एक दिन अल्लाउदीन खान ने रोशन से पूछा तुम दिन में कितने घंटे रियाज करते हो। रोशन ने गर्व के साथ कहा, दिन में दो घंटे और शाम को दो घंटे। यह सुनकर अल्लाउदीन खान बोले कि यदि वह पूरे दिन में आठ घंटे रियाज नही कर सकते हो तो अपना बोरिया बिस्तर उठा कर जहां से आए हो, वहीं चले जाओ। रोशन को यह बात चुभ गयी और उन्होंने लगन के साथ रियाज करना शुरू कर दिया। शीघ्र ही उनकी मेहनत रंग आई और उन्होंने सुर के उतार चढ़ाव की बारीकियों को सीख लिया।
इन सबके बीच रोशन ने बुंदु खान से सांरगी की शिक्षा भी ली। रोशन ने वर्ष 1940 में आकाशवाणी केंद्र दिल्ली में बतौर संगीतकार अपने कैरियर की शुरूआत की। बाद में उन्होंने आकाशवाणी से प्रसारित कई कार्यक्रमों में बतौर हाउस कम्पोजर भी काम किया। वर्ष 1949 में फिल्मी संगीतकार बनने का सपना लेकर रोशन दिल्ली से मुंबई आ गये। इस मायानगरी में एक वर्ष तक संघर्ष करने के बाद उनकी मुलाकात जाने माने निर्माता निर्देशक केदार शर्मा से हुयी। रोशन के संगीत बनाने के अंदाज से प्रभावित केदार शर्मा ने उन्हें अपनी फिल्म नेकी और बदी में बतौर संगीतकार काम करने का मौका दिया।
अपनी पहली फिल्म नेकी और बदी के जरिये भले ही रोशन सफल नहीं हो पाये लेकिन गीतकार के रूप में उन्होंने अपने सिने कैरियर के सफर की शुरूआत अवश्य कर दी। वर्ष 1950 में एक बार फिर रोशन को केदार शर्मा की फिल्म बावरे नैन में काम करने का मौका मिला। इस फिल्म में मुकेश के गाये गीत तेरी दुनिया में दिल लगता नहीं की कामयाबी के बाद रोशन फिल्मी दुनिया मे संगीतकार के तौर पर एक ऊंचा मुकाम हासिल किया। रोशन के संगीतबद्ध गीतों को सबसे ज्यादा मुकेश ने अपनी आवाज दी थी। गीतकार साहिर लुधियानवी के साथ रोशन की जोडी खूब जमी। इन दोनों की जोड़ी के गीत-संगीत ने श्रोताओं को भावविभोर कर दिया। इन गीतों मे ना तो कारवां की तलाश है, जिंदगी भर नही भूलेगी वो बरसात की रात, लागा चुनरी में दाग, जो बात तुझमें है, जो वादा किया वो निभाना पडेगा और दुनिया करे सवाल तो हम क्या जवाब दें जैसे मधुर नगमें शामिल है। रोशन को वर्ष 1963 में प्रदर्शित फिल्म ताजमहल के लिये सर्वश्रेष्ठ संगीतकार का फिल्म फेयर पुरस्कार दिया गया। हिन्दी सिने जगत को अपने बेमिसाल संगीत से सराबोर करने वाले यह महान संगीतकार रोशन 16 नवंबर 1967 को इस दुनिया को अलविदा कह गये।
संगीत से बना मिठास का झरना
रोशन जिस दौर में अपने संगीत से फिल्मों को एक बिल्कुल नए ढंग का कलेवर दे रहे थे, उस समय उनके समकालीन ढेरों संगीतकारों ने पॉपुलर ढंग से संगीत रचने को ही सफलता की शर्त मान रखा था। उन्होंने लखनऊ के मैरिस कॉलेज से संगीत की तालीम लेने के अलावा बाकायदा मैहर के सुविख्यात बीनकार उस्ताद अलाउद्दीन खान साहब से संगीत सीखा था। मैहर छोड़ने के बाद रोशन उस्ताद बुन्दू खां और मनोहर बर्वे के सम्पर्क में भी आए। इन दोनों ने ही उनके शास्त्रीय संगीत के ज्ञान में कुछ नए ढंग से इजाफा किया। उस्ताद अलाउद्दीन खाँ से सीखने का सुफल यह हुआ कि रोशन पारम्परिक राग संगीत और बन्दिशों का किस तरह से इस्तेमाल फिल्म संगीत के लिए किया जाना चाहिए, इसे बखूबी समझ गए। बाबा अलाउद्दीन खाँ से उन्होंने सारंगी सीखी थी। इसके बारे में कहा जाता है कि यह मनुष्य की आवाज के करीब का साज है।
रोशन ने अपने संगीत पर सर्वाधिक प्रभाव दिग्गज संगीतकार अनिल बिस्वास का माना है। वे अपनी धुनों को संवारने और उसे हर सम्भव तरीके से नया बनाने के फेर में अकसर अनिल बिस्वास से मार्गदर्शन व सलाह लिया करते थे। कहने का मतलब यह है कि रोशन की सांगीतिक अवधारणा में एक ओर शास्त्रीय ढंग का मैहर घराना बोलता है, तो दूसरी ओर बंगाल स्कूल का जादू। उसमें कई बार बंगाल की अपनी लोकधुनों के साथ वहाँ के कीर्तन गायन की रंगत दिखायी पड़ती है। उनके संगीत में अवध के संगीत से छनकर आने वाली लोक-संगीत की विराट संपदा भी अलग से मिलती है। इन्हीं सबके आपसी सामंजस्य से मिलकर बनने वाली जमीन ने उनका संगीत संसार संवारा है।
उन्हें अत्यन्त छोटा-सा पचास वर्ष का जीवन में दिल में एक ऐसी बीमारी को पाल रखा था, जो किसी भी वक्त जीवन का दगा दे सकती थी। एक दिन वो दिन आ ही गया कि सब कुछ होने के बाद भी दिल ने दगा दे ही दिया। इतने भर कालखण्ड में ‘नेकी और बदी’ (1949, पहली फिल्म) से लेकर ‘अनोखी रात’ (1968 अन्तिम फिल्म) तक बीस वर्षों की सुरीली यात्रा में रोशन के फन में यही तीनों विन्यास- शास्त्रीय संगीत, बंगाल का रंग और अवध की लोकधुनें आसानी से देखी जा सकती हैं। फिर चाहे आप ‘चित्रलेखा’ और ‘ममता’ में शास्त्रीय-संगीत ढूँढें, ‘जिÞन्दगी और हम’, ‘बरसात की रात’, ‘बहू बेगम’ में लोक-रंग या फिर ‘हम-लोग’ और ‘शीशम’ में बंगाल स्कूल का प्रभाव – सभी जगह रोशन का काम बेहद स्तरीय ढंग से अपनी अधुनातन संरचना को व्यक्त करता है।
रोशन के संगीत की सबसे बड़ी खासियत के रूप में कव्वाली एवं मुजरा गीतों को भी देखा जाना चाहिए। ‘बरसात की रात’, ‘ताजमहल’, ‘बहू बेगम’, ‘दिल ही तो है’ की कव्वालियाँ और ‘नौबहार’, ‘बाबर’, ‘ममता’, ‘बहू बेगम’ के मुजरा गीत इस बात के सदाबहार उदाहरण माने जाते हैं। हालांकि रोशन को परिभाषित करने के लिए सबसे मशहूर धुन यही मानी जाती है – ‘रहें ना रहें हम महका करेंगे बन के कली, बन के सबा, बाग-ए-वफा में’।