राघवेंद्र सिंह
कुशाभाऊ ठाकरे द्वारा तराशी गई मध्य प्रदेश भाजपा इन दिनों अपने सबसे कठिन दौर से गुजर रही है। दरअसल भाजपा अपनी संगठन शक्ति के कारण दूसरे दलों से अलग मानी जाती रही है। उसके संगठन महामंत्री और संगठन मंत्री गुटबाजी से परे विचारों के प्रति समर्पण व निष्ठा और उच्च आदर्शों के चलते निजी पसंद नापसन्द से अलग कार्यकर्ताओं के अभिवावक बन नेताओं को नियंत्रित कर करते रहें हैं। लेकिन ठाकरे जन्म शताब्दी वर्ष में एक एक कर उनकी बनाई व्यवस्था को तोड़ा जा रहा है। नगरीय निकाय चुनाव में उसके रुझान भी मिलने लगे हैं। चुनाव के लिए नामजदगी 11 जून से पर्चे दाखिल होना शुरू हो गए हैं लेकिन 12 जून तक सभी 16 नगर निगमों, 76 नगर पालिकाओं और 298 नगर परिषदों के मेयर से लेकर अध्यक्ष व पार्षदों के प्रत्याशी तय नही हो सके हैं। अनिश्चितता और अव्यवस्था का ऐसा दौर जो कभी कांग्रेस में होता था अब भाजपा में सिर चढ़ कर हो रहा है। ज्यादातर उलटा पुलटा हो रहा है। देर से ही सही प्रदेश की चुनाव समिति का पहले और जिले और संभागीय चुनाव समितियों का गठन बीते दो चार दिन में ही हुआ है। पूरे प्रदेश के दावेदारों में अजीब सी बेचैनी रही।
वे किसे और कैसे अपना बायोडाटा दें ? पहले संभाग और फिर जिले के संगठन मंत्री पूरे समय कार्यकर्ताओं के कामकाज और उनकी ईमानदारी पार्टी के प्रति वफादारी का आकलन करते रहते थे। उसी हिसाब से पंचायत से लेकर पार्लियामेंट तक के प्रत्याशी बिना किसी शोरशराबे के तय हो जाया करते थे। कौन किस चुनाव के लिए और संगठन के लिए कितना काबिल है उसका निर्णय सहमति और आवश्यकता पड़ी तो समझा बुझा कर लिया जाता था। इसमें गणेश परिक्रमा वालों के लिए अवसर बहुत मामूली हुआ करते थे। फैसला आम सहमति से हो और उसे मथने के लिए बैठकों के कई दौर भी होते थे। जिला व संभागीय इकाइयां दूध का दही बना और फिर उसमें मख्खन निकाल दावेदारों की साफ सुथरी सूची प्रदेश नेतृत्व और चुनाव समिति को सौंपती थी। इतने पर भी किसी योग्य दावेदार की अनदेखी हुई हो तो उसके पक्ष को भी सुनने की व्यवस्था होती थी। फैसले कम ही बदले जाते थे लेकिन आवश्यक हुआ तो यदाकदा परिवर्तन भी किए जाते थे। भाजपा में कहा जाता था निर्णय के पहले खूब तर्क वितर्क और दलील हो जाए लेकिन एक बार जो फैसला हो फिर उस पर तमाम मतभेद भूल पार्टी को जिताने में जुट जाएं। इसलिए कई बार बहुत विरोध करने वाले भी पार्टी को जिताने के लिए जी जान से जुट जाते थे। इस सब के पीछे मजबूत चरित्र चाल और चेहरे वाले संगठन मंत्रियों की भूमिका सबसे अहम होती थी।
भाजपा में मजबूत संगठन मंत्री अब लगता है बीते दिनों की बात हो गई है एक समय क्षेत्रीय संगठन मंत्री की व्यवस्था थी फिर प्रदेश संगठन महामंत्री के साथ संभागीय संगठन मंत्री और इससे विस्तारित कर जिलों में संगठन मंत्री बनाए गए लेकिन धीरे धीरे संगठन मंत्रियों के आचरण पर सवाल खड़े होने लगे और कुछ महीने पहले प्रदेश भाजपा में आरोपों के चलते जिले और संभागीय संगठन मंत्रियों की व्यवस्था समाप्त कर दी गई इसके बाद संगठन में कार्यकर्ता और नेताओं पर नजर रखने वाली एजेंसी समाप्त हो गई धीरे-धीरे इसके दुष्परिणाम दिखने शुरू हुए और हालत ये हुई कि जिन पर संगठन के काम में आरोप लगे थे उन्हें सत्ता में हिस्सेदारी मिल गई
कार्यकर्ता चकित था और उसे उम्मीद थी कि कोई नई व्यवस्था होगी लेकिन नगरी निकाय और पंचायत चुनाव में भी बीजेपी का संगठन बिखरा बिखरा चलेगा यही वजह है कि सही जालसाज की पत्नी को टिकट मिल रहा है तू कहीं विधायक और सांसदों के चहेते पार्षद और महापौर के प्रत्याशी बन रहे हैं आम कार्यकर्ता चुनाव लड़ना चाहता है संगठन और सरकार में उसका कोई सरोकार नहीं है इस सबके चलते पिछले हफ्ते भाजपा के राष्ट्रीय संगठन अध्यक्ष जेपी नड्डा ने कहा था की पार्टी किसी नेता के परिजन को टिकट नहीं देगी उनके ही गाइडलाइन को कई जगह टूटा हुआ देख सकते हैं नगरी निकाय चुनाव में जब यह हाल है तो विधानसभा चुनाव में प्रत्याशी चयन को लेकर पार्टी को खासी मुश्किलों का सामना करना पड़ सकता है सबसे खास बात निर्णय के बाद उपजे असंतोष को कौन करेगा क्योंकि ना तो जिला संभाग में संगठन मंत्री हैं और ना ही प्रदेश के संगठन महामंत्री को भाजपा के चुनावी सिस्टम का तजुर्बा है कह सकते हैं कि प्रदेश के संगठन महामंत्री पार्टी में अपने दायित्व में इतने नए से है कि इसकी तुलना घर मे आई उस नई बहू से की जा सकती है जिसके हाथ की अभी मेहंदी और पांव की माहवर भी ताजी सी ह।
कांग्रेस में दिग्विजय संगठन मंत्री की भूमिका में …
पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह कांग्रेस में अघोषित संगठन मंत्री की भूमिका में हैं। कार्यकर्ताओं से सतत संपर्क संवाद और उनके दांवों की बारीकी से जांच फिर उस पर निर्णय ने कांग्रेस को एकदम बदल सा दिया है। प्रदेश अध्यक्ष कमलनाथ के साथ मिलकर दिग्विजय सिंह का प्रबंधन कांग्रेस को नगरी निकाय के चुनाव में पहले दौर में बढ़त दिलाई हुए भाजपा प्रत्याशी चयन में बहुत सतर्कता बरत रही है लेकिन निर्णय में देरी और गलत निर्णय को ठीक करें के लिए समय का भाव भाजपा को कमजोर साबित कर रहा है यही वजह है कि जो कांग्रेसी पिछले चुनाव में पूरी 16 नगर निगम में महापौर के उम्मीदवार हार गए थे। अब उनका दावा है कम से कम आधी सीटें जीतने का। कांग्रेस इस दिशा में मजबूती से आगे भी बढ़ रही है। शुरुआती दौर में न्यूनतम गुटबाजी के निर्णय करने की कांग्रेस की यही ताकत भाजपा नेताओं को चिंता में डाले हुए है।