चुनाव में बागी हुए तो उन्हें मनाने वाला कद्दावर नेता संगठन में कोई नहीं

योगीराज योगेश

गुजरात की ऐतिहासिक जीत से समूची भाजपा गदगद है और हो भी क्यों ना आजादी के बाद से अभी तक गुजरात में ऐसी सफलता किसी भी राजनीतिक पार्टी को नहीं मिली। केवल 1985 में माधव सिंह सोलंकी के नेतृत्व में कांग्रेस को 149 सीटें मिलीं थी, हालांकि इसकी एकमात्र बजह इंदिरा गांधी की हत्या के बाद उपजी सहानुभूति लहर थी।
गुजरात में मिली ऐतिहासिक जीत केवल और केवल नरेंद्र मोदी के करिश्माई व्यक्तित्व की जीत है। वहां केवल मोदी फैक्टर का ही असर रहा। गुजरात की जीत से मध्य प्रदेश भाजपा के नेता भी गदगद हैं। गृह मंत्री नरोत्तम मिश्रा और प्रदेश अध्यक्ष बीडी शर्मा फरमा रहे हैं कि मध्य प्रदेश में भी गुजरात की तरह भाजपा रिकॉर्ड तोड़ मतों से जीतेगी। सवाल यह है कि इन नेताओं ने ऐसा क्या कर दिया कि भाजपा रिकॉर्ड तोड़ मतों से जीत पाए। कानून व्यवस्था की बात करें प्रदेश की कानून व्यवस्था और भाजपा का संगठन ढांचा पूरी तरह से चरमराया हुआ है। राजधानी में अपराध रुक नहीं रहे हैं। प्रदेश में रोज धर्मांतरण के नए मामले सामने आ रहे हैं।

सीएम राइस स्कूलों में मजारे निकल रही हैं। इंदौर के कॉलेज में इस्लाम की शिक्षा दी जा रही है। इंदौर सहित मध्य प्रदेश में नशे का कारोबार चरम पर है। कोरोना काल में भी मरीजों की संख्या इतनी तेजी से नहीं बढ़ी, जितनी तेजी से प्रदेश में नशेड़ी बढ़ रहे हैं। और मजे की बात यह है कि अपना 1 साल का कार्यकाल पूरा करने के बाद भोपाल के पुलिस कमिश्नर मकरंद देउसकर कह रहे हैं कि नशे पर लगाम लगाने के लिए ड्रग पेडलर्स पर कार्रवाई जरूरी है। सवाल है कि अपने 1 साल में आखिर किया क्या। ड्रग पेडलर्स पर लगाम क्यों नहीं लगाई गई। मजे की बात यह है कि इतनी महत्वपूर्ण सलाह देकर कमिश्नर साहब प्रतिनियुक्ति पर दिल्ली जाने की तैयारी में लग गए।

कुछ ऐसे ही हाल प्रदेश भाजपा संगठन के भी हैं। कच्ची उम्र के नेताओं के हवाले संगठन में कद्दावर और वरिष्ठ नेताओं का अभाव है। वरिष्ठ और कनिष्ठ नेताओं के बीच आए दिन तलवार तलवार खिंची रहती हैं। गुजरात में तो नरेंद्र मोदी जैसा करिश्माई नेता है। क्या मध्यप्रदेश में इस कद का कोई नेता है। प्रदेश भाजपा इस बात पर खुश जरूर हो सकती है कि उनके पास शिवराज सिंह हैं, लेकिन अकेले मुख्यमंत्री चौहान कितना संभाल पाएंगे। यह देखने वाली बात होगी। अच्छी बात केवल यह है कि शिवराज पर लोगों का भरोसा बरकरार है। लेकिन शिवराज के नेतृत्व में ही 2018 के चुनाव में बहुत अच्छी स्थिति में होने के बावजूद भाजपा चुनाव हार चुकी है। अभी भी 2018 की तुलना में भाजपा की स्थिति बहुत अच्छी नहीं है। इसका अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि निकाय चुनाव में भाजपा के आधा दर्जन प्रत्याशी हार गए। ऐसी स्थिति किसी भी दृष्टि से पार्टी के लिए ठीक नहीं कही जा सकती।

हिमाचल की तरह बगावत हुई तो संभालने वाला कोई नहीं:हिमाचल प्रदेश में भाजपा को जो करारी शिकस्त मिली है उसका एक बहुत बड़ा कारण है रहा कि 22 से ज्यादा बागी उम्मीदवार ताल ठोक कर मैदान में खड़े हो गए। पार्टी अध्यक्ष जेपी नड्डा भी इन्हें नहीं मना पाए। तो मध्यप्रदेश में तो बीडी शर्मा अभी इस हैसियत में नहीं है कि वह बागियों को मना पाएंगे। इस बीच खबरें तो यह है कि बहुत जल्दी भाजपा को नया प्रदेश अध्यक्ष मिल मिल सकता है। बहरहाल मध्यप्रदेश में कमोबेश हिमाचल जैसे ही हालात हैं। कोई बागी हुआ तो उन्हें मनाने वाला वरिष्ठ कद्दावर नेता संगठन में नहीं है। 2018 के चुनाव में यदि भाजपा आधा दर्जन बागियों को मना लेती तो क्लियर कट मैंडेट मिलता।

बागियों को लेकर भाजपा में यह परसेप्शन भी बन गया है कि जीतने के बाद सरकार बनाने के लिए संख्या कम पड़ने पर बागी पार्टी का ही समर्थन करेंगे। लेकिन दो चार विधायकों की संख्या कम पड़ने पर तो ऐसा संभव है पर जब विपक्षी दल को क्लियर कट मैंडेट मिल जाए तो फिर यह फार्मूला काम नहीं करता। हिमाचल में भी यही हुआ। कांग्रेस को स्पष्ट बहुमत मिला। जीतने के बावजूद बागी मुंह ताकते रह गए। भाजपा में 25 से 30 ऐसे नेता हैं जो बागी हो गए तो खुद भले न जीते लेकिन पार्टी को तो हरवा ही सकते हैं। भाजपा को ऐसे बागियों पर नजर रखनी चाहिए और उनको संतुष्ट करने के प्रयास करने चाहिए। क्योंकि नेताओं की अति महत्वाकांक्षा से आजकल राजनीतिक दलों में नेक टू नेक फाइट की स्थिति बनी हुई है। दो – पांच सीटें इधर-उधर होने से ही सरकार बनती और बिगड़ जाती हैं।

हर सीट का माइक्रोएनालिसिस जरूरी:
भाजपा को प्रदेश में यदि फतह हासिल करना है तो गुजरात की तरह हर सीट का माइक्रोएनालिसिस और सही उम्मीदवार का चयन करना होगा। हर पोलिंग बूथ स्तर पर कड़ी मेहनत करनी होगी। किस बूथ पर किस नेता और किस कार्यकर्ता की पकड़ है उसे मनाना होगा। इसके बाद उम्मीदवारों का सही सिलेक्शन करना होगा। मेरे 35 टिकट, तेरे 20 टिकट,फलां नेता के 40 टिकट देने वाली सोच से परहेज करना होगा। वरिष्ठ नेताओं को पूरी तरह निष्पक्ष होकर स्वच्छ छवि के जीतने वाले उम्मीदवार को तवज्जो देनी पड़ेगी। भले ही अपने खास उम्मीदवार का टिकट कट जाए। अपने और पराए वाली सोच पार्टी को बहुत नुकसान पहुंचाती है इसलिए खेमेबाजी से जितनी जल्दी छुटकारा मिल जाए उतना पार्टी के लिए अच्छा है। गुजरात और हिमाचल की तरह कम से कम 60 से 70 विधायकों के टिकट काटने होंगे। यही नहीं बगावत रोकने के लिए इन्हें कहीं न कहीं एडजस्ट कर संतुष्ट करने की दिशा में भी काम करना पड़ेगा।

(लेखक राजनीतिक विश्लेषक हैं।)

Shashi Kumar Keswani

Editor in Chief, THE INFORMATIVE OBSERVER