राजेश बादल

मैं साहित्यकार या कथाकार नही हूं । कविताएं भी नही लिखता । लेकिन ,इन दोनों विधाओं से अवश्य ही गहरा नाता रहा है । प्राणि विज्ञान,रसायन शास्त्र , पर्यावरण,विधि,रंगमंच और भारतीय इतिहास मेरी दिलचस्पी के विषय हैं। पुरातत्व विज्ञान भी पढ़ा है । इसलिए जब हिंदी साहित्य के पंडित, प्रख्यात आलोचक और कवि विजय बहादुर सिंह की खंड काव्यात्मक रचना भीम बैठका मेरे सामने आई तो हैरत में डालने के लिए पर्याप्त थी । लंबी कविता में मानव मनोविज्ञान,रिश्तों का रसायन,विधि सम्मत लोकतंत्र, ग्लोबल वार्मिंग और पुरातात्विक प्रतीकों का ताना बाना एक पौराणिक आख्यान के इर्द गिर्द बुना जा सकता है ,यह असंभव सा चित्रण इस नायाब कृति में स्पष्ट दिखाई देता है। ख़ास तौर पर उस मनःस्थिति में,जब सब कुछ किरच किरच बिखर सा रहा हो।

पिछले पैंतालीस बरस से मेरी ठोस मान्यता रही है कि हर रिश्ते, हर शहर और हर नौकरी या पेशे की अपनी मियाद होती है।जब यह एक्सपायरी डेट निकल जाती है और आप उस शहर को ओढ़ते बिछाते रहते हैं, उस नौकरी को लादे रहते हैं और उस रिश्ते को ढोते रहते हैं तो वह आप पर अपने अंदाज़ में रिएक्ट करता है ।भीम बैठका की रचना के पीछे कुछ कुछ ऐसा ही लगता है ।

बहरहाल ! बात भीम बैठका की ।जिन लोगों ने इस स्थान का नाम नहीं सुना है,उनके लिए बता दूं कि भोपाल की काँख में भीमबैठका दबा है ।कहते हैं कि पांडवों ने यहाँ अज्ञातवास में कुछ समय बिताया था।मगर यहां की कंदराओं के केनवास पर उकेरे गए भित्तिचित्र महाभारत काल से बहुत पहले की कहानी कहते हैं।विजय बहादुर जी अस्त व्यस्त मानसिकता में अपने आप को ढोते हुए कुछ शुभचिंतकों के साथ वहाँ जा पहुंचे । क्या संयोग था कि उन प्रस्तर खंडों की गाथाएँ जो कुछ चीख चीख कर कह रही थीं ,विजय बहादुर सिंह भी कुछ वैसा ही महसूस कर रहे थे ।
भीम को उधर कहीं झपकी लगी और उसके बहाने प्रोफेसर साहब कहते हैं ,
झपकी आ जाने पर तो लुढ़क पड़ते हैं बड़े बड़े लोग /
उस झपकी से संभलकर भीम सोचते होंगे
शकुनि के पांसों में कैसे फांसे गए धर्मराज ?
पूरी कविता लिखना संभव नहीं, पर उसके बिना बात भी आगे नहीं बढ़ती ।यही तो विजय बहादुर जी की खूबी है । वे कहते हैं , निर्वस्त्र कर द्रौपदी को चाहा था दुर्योधन की खुली नंगी जांघ पर बिठाना / कौरव सभा के वे सारे कायर, अन्यायी चेहरे / याद आ जाते होंगे/ भय और स्वार्थ के मारे,जो रहे चुप/स्वार्थ और भय / यही करते आए हैं आदमी के साथ / अब तक ……….
वाकई । आज भी हम भय और स्वार्थ के घटाटोप में जी रहे हैं ।फिर कविता क्या कहती है
यह द्रौपदी ही तो थी/ सिखाया हम सबको जिसने प्रतिकार/
प्रतिकार न किया जाए तो हिम्मत बढ़ जाती है अत्याचार की /
वे यहीं चुप नहीं रहते। कहते हैं ,
जुक़ाम चाहे आदमी का हो या इतिहास का /पालकर रखने लायक होता नहीं। कभी भी ……
और समय इसी तरह उड़ता रहता है।
अशिष्ट मर्यादा रहित ,स्वार्थ और लोभ बुद्धि से /अंधी हो उठती है जब सत्ता /सुख सुविधा के मोहजाल में /उलझकर रह जाते हैं सभासद /आँख फेर लेते हैं महाजन सब ओर से /पतित हो उठती है बुद्धि सम्राटों की बुद्धि /संवेदन ग़ायब हो जाते हैं /लुप्त हो जाता है काव्य विवेक /
वे कहते हैं – अधर्म के हाथों अपमानित किया जाता है धर्म /प्लास्टिक के फूल भर रह जाती है तब सभ्यता /चुनाव के कर्मकांड भर /बचा रह जाता है जैसे लोकतंत्र /तंत्र की घिनौनी करतूतों को भुगतता है लोक /
यह बेजोड़ रचना किस तरह हमें आग़ाह करती है।एक नमूना,
एक चट्टान पूछती है ,दूसरी से / क्या भीम लौट पाएँगे सचमुच सुरक्षित / मारे तो नहीं जाएँगे कहीं वे हस्तिनापुर में ?
मारे जाते हैं सिर्फ़ वे /जो डरते आए हैं मौत से /कहती है दूसरी चट्टान /और चुप हो जाती है /चुप्पी फ़ैल जाती है यहाँ से वहाँ तक /चुप्पी का इस तरह फैलना /होता नहीं है कुछ कम ख़तरनाक़……….
यह इस कविता का समापन है। इसके बाद क्या शेष रह जाता है कहने को ,सिवाय इसके कि यह क़रीब बीस साल पहले लिखी गई थी।
विजय जी ! आपको सलाम
#vijaybahadursingh

Shashi Kumar Keswani

Editor in Chief, THE INFORMATIVE OBSERVER