राजेश बादल

इन दिनों पदयात्रा पर सियासत हो रही है। कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी ने कन्याकुमारी से यात्रा शुरू की और राजनीतिक गलियारे गरम हो गए।प्र कई विपक्षी दलों ने यात्रा को समर्थन दिया तो पक्ष की ओर से उसकी राजनीतिक मंशा पर सवाल उठाए जाने लगे।वैसे तो यात्रा को भारत जोड़ो नाम दिया गया है।लेकिन संभव है इस बुजुर्ग पार्टी के पूर्व प्रमुख को इसके बहाने मुल्क़ की आत्मा को समझने का अवसर मिल जाए।यदि मान लिया जाए कि धुर दक्षिण से अनेक राज्यों में जाने वाली यात्रा से कांग्रेस का कुछ भला होता है तो इसमें पाप क्या है ? भारतीय जनता पार्टी के शिखर पुरुष लालकृष्ण आडवाणी ने अयोध्या यात्रा से आख़िर अपने दल के जनाधार को मज़बूत किया ही था। उसके बाद मुरलीमनोहर जोशी ने श्रीनगर लालचौक यात्रा का मक़सद भी देश की एकता को बढ़ाना बताया था। इसके बाद 2014 में मौजूदा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी धुआंधार यात्राओं से सियासी प्रयोजन सिद्ध किया था।कह सकते हैं कि जिसने भी यात्राएँ कीं,उसे घाटा तो नहीं ही हुआ।इस कड़ी में हिन्दुस्तान की नब्ज़ पढ़ने की राहुल गांधी की कोशिश भी लाभदायक मानी जा सकती है।उस पर एतराज़ क्यों होना चाहिए ? यात्रा पर आपत्ति एक तरह से कुंठा और कुतर्क ही है।

इस देश में पदयात्राएँ हमेशा से भारतीय समाज की आध्यात्मिक और प्रशासनिक चेतना को झिंझोड़ती रही हैं।इस कारण यहाँ एक ओर संत – महंत आज भी लोगों के दिलों में स्थान बनाए हुए हैं।जैन धर्म में तो मुनियों की पदयात्रा पूरे भक्ति भाव से स्वीकार की जाती है। इन धार्मिक यात्राओं और चातुर्मास के बहाने सारे जैन मतावलंबी आपस में मज़बूती के साथ जुड़े रहते हैं।अतीत में बाबा गुरुनानक की यात्राएँ भी सिख पंथ का चुंबक हैं ।भगवान् बुद्ध ने अपनी यात्राओं में जो सन्देश दिए,वे हिन्दुस्तान ही नहीं,अनेक राष्ट्रों के निवासियों के लिए प्रेरणा सन्देश बने हुए हैं।हिन्दू संस्कृति से उपजे यह धर्म असल में सदभावना ,भाईचारा और आपसी प्रेम की भावना का विस्तार ही करते हैं।इन आध्यात्मिक प्रतीक पुरुषों ने एक ओर भारतीय समाज को एकजुट रखने का काम किया तो दूसरी तरफ ऐसे भी महापुरुष उभरे ,जिन्होंने ग़ुलामी की ज़ंजीरों को तोड़ने में अपनी यात्राओं के माध्यम से अप्रतिम योगदान दिया।उन्होंने गोरी व्यवस्था को झकझोरा और मजबूर कर दिया कि वह इस विशाल राष्ट्र से हमेशा के लिए दफ़ा हो जाए।महात्मा गांधी ने जीवन भर पद यात्राओं से अँगरेज़ हुकूमत को हिलाकर रखा। उनकी दांडी यात्रा इस मायने में अभूतपूर्व और ऐतिहासिक है। नमक की एक चुटकी से समूचे राष्ट्र में उन्होंने क्रांति का बिगुल फूँक दिया था।क्या उस यात्रा का योगदान कोई भुला सकता है ? आज़ादी के बाद संत विनोबाभावे की भूदान यात्रा का महत्त्व कोई नकार नहीं सकता।भारतीय गाँवों की आर्थिक स्थिति सुधारने और सामाजिक असमानता दूर करने के मक़सद से किया गया भूदान आंदोलन स्वतंत्रता के बाद सबसे बड़ा सकारात्मक और रचनात्मक आंदोलन है। उसकी गूँज विश्व के अनेक देशों में सुनी गई थी।संसार भर के लोग ज़मीन दान करने के इस अनूठे अभियान पर वर्षों तक शोध करते रहे हैं।

एक दौर ऐसा भी आया था ,जब भारत में परदेस प्रायोजित आतंकवाद ने ज़हरीला आकार ले लिया था।निर्वाचित सरकार ने इससे अपने ढंग से निपटा , मगर सामाजिक पहल भी ख़ूब हुई।फ़िल्म अभिनेता और राजनेता सुनील दत्त ने ऐसे चुनौती भरे काल में मुंबई से अमृतसर तक पदयात्रा करके भारतीय एकता ,शांति और सदभाव की एक नई मिसाल पेश की थी।कुछ समय मैं भी उनकी इस यात्रा में शामिल था।मैंने पाया कि इस यात्रा ने समाज में नई स्फूर्ति और उम्मीदों का संचार किया था।इसी कालखंड में प्रधानमंत्री रहे चंद्रशेखर ने भी कन्याकुमारी से राजघाट तक की पदयात्रा की थी।उनकी यात्रा का उद्देश्य भी ग्रामीण भारत से रूबरू होना और जन समस्याओं को दूर करने का प्रयास करना था ।बक़ौल चंद्रशेखर ,वे इसमें काफी हद तक कामयाब रहे थे।इसके ज़रिए एक तरह से उनकी राजनीतिक पुनर्प्रतिष्ठा हुई थी।इसके अलावा भारतीय जनता पार्टी के संस्थापकों में से एक लाल कृष्ण आडवाणी की चर्चित रथयात्रा भी ख़ास मानी जाती है।यह यात्रा अपने धार्मिक और सियासी चरित्र के कारण सुर्ख़ियों में रही।

आमतौर पर विदेशों से इस तरह की पदयात्रा के उदाहरण नहीं मिलते। इसलिए अंतरराष्ट्रीय मंचों पर ऐसी यात्राएँ बड़े आकर्षण का केंद्र बन जाती हैं।परदेसी चिंतकों विचारकों के पल्ले यह बात आसानी से नहीं पड़ती कि कोई एक यात्रा एक विशाल राष्ट्र को किस तरह जोड़ सकती है अथवा वहाँ के जनसमुदाय के सोच को बदल सकती है।लेकिन भारत के सन्दर्भ में इस तथ्य को झुठलाया नहीं जा सकता।

असल में मुश्किल तब पैदा होती है ,जब आध्यात्मिक और प्रशासनिक या सियासी पद यात्राओं के उद्देश्य गड्डमड्ड हो जाएँ।आध्यात्मिक यात्रा के चोले में राजनीतिक स्वार्थ सिद्ध किया जाए या फिर सियासी यात्रा को जबरन धार्मिक प्रतीकों के माध्यम से स्वार्थ सिद्ध करने का माध्यम बना लिया जाए। राहुल गांधी ने इस यात्रा में राष्ट्रीय ध्वज का इस्तेमाल किया है।भले ही उनकी यात्रा में बड़ी तादाद कांग्रेस के लोगों की हो,लेकिन उसे विशुद्ध पार्टी यात्रा नहीं कहा जा सकता।मौजूदा हिन्दुस्तान में जिस तरह सांप्रदायिक आधार पर नफ़रत फैलाई जा रही है,जाति आधारित राजनीतिक नई संस्कृति पनप रही है,दल बदल ने निर्वाचन प्रणाली को आहत किया है,धनबल और बाहुबल का बोलबाला है,ऐसे में किसी न किसी को कभी न कभी तो कोई पहल करनी ही थी।चाहे वह काम राहुल गांधी करें अथवा नरेंद्र मोदी।उद्देश्य यह है कि देश की लोकतांत्रिक सेहत को नुक़सान नहीं होना चाहिए।

Shashi Kumar Keswani

Editor in Chief, THE INFORMATIVE OBSERVER