राकेश अचल 

भारत को आजादी के 75  वे साल में पहली आदिवासी महिला राष्ट्रपति ही नहीं मिली बल्कि सियासत में एक नया शब्द भी मिला है जिसे ‘ मुरमुत्व ‘ कहा जा सकता है .देश में बहुत से लोग ऐसे हैं जिन्होंने देश के पहले राष्ट्रपति से लेकर पन्द्रहवें राष्ट्रपति तक की चुनाव प्रक्रिया को देखा,समझा है ,लेकिन हम उन लोगों में से हैं जिन्हें पहले पांच राष्ट्रपतियों के चुनाव के बारे में बहुत कुछ जानकारी नहीं है. इस अल्प जानकारी के आधार पर हमें हैरानी होती है कि कैसे देश में पहली बार राष्ट्रपति चुनाव को जातीय महत्ता देकर उसका राजनीतिक इस्तेमाल करने की निर्लज्ज कोशिश की गयी .
देश की पंद्रहवीं राष्ट्रपति श्रीमती द्रोपदी मुर्मू   का इस घ्रणित राजनीतिक अभियान से कोई लेना-देना नहीं है. वे बधाई की पात्र हैं,इन्हें बधाई दी भी जा रही है .आलोचना केवल सत्तारूढ़ दल की हो रही है .कुछ लोग दबी जुबान से ये काम कर रहे हैं और कुछ लोग खुल कर .देश ने जब अपना पहला राष्ट्रपति चुना तब किसी  ने उसकी जाति का जिक्र नहीं किया.दूसरे राष्ट्रपति की जाति को लेकर भी कोई प्रचार अभियान नहीं चलाया गया ,तीसरे और चौथे राष्ट्रपति भी चुपचाप चुन लिए गए. पांचवें राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद  अल्पसंख्यक उम्मीदवार थे ,लेकिन इसका कहीं कोई हल्ला  नहीं हुआ. छठवें,सातवें और आठवें राष्ट्रपति के चुनाव में भी तत्कालीन सत्तारूढ़ दल ने राष्ट्रपति के प्रत्याशी की जाति को लेकर कोई चर्चा नहीं की .

देश में राष्ट्रपति का चुनाव अतीत में कभी भी जातीय गरिमा को प्रतिपादित कर नहीं लड़ा गया .डॉ शंकर दयाल शर्मा ,केआर अनारायण ,एपीजे अब्दुल कलाम की जातियां किसी ने नहीं देखीं.उनका व्यक्तित्व और कृतित्व ही सबके सामने था .हाँ पहली बार जब डॉ प्रतिभा पाटिल राष्ट्रपति चुनी गयीं तब उनके महिला होने को प्रचारित किया गया लेकिन जाति का जिक्र उनके चुनाव  में भी नहीं हुआ. प्रणब मुखर्जी भी बिना किसी शोर-शराबे के राष्ट्रपति चुन लिए गए .ये सभी राष्ट्रपति ऐसे थे जिनके सामने लोग स्वत्: शृद्धा से झुक जाते थे .हमारे मौजूदा प्रधानमंत्री तक को देश-दुनिया ने राष्ट्रपति प्रणब डा के चरण स्पर्श कर आशीर्वाद लेते हुए देखा है .

देश में राष्ट्रपति की जाति का प्रचार पहली बार चौदहवें राष्ट्रपति के चुनाव में हुआ. सत्तारूढ़ दल ने एक अनाम और अप्रत्याशित व्यक्ति श्री रामनाथ कोविंद को राष्ट्रपति पद का प्रत्याशी बनाकर प्रचार किया कि वे दलित हैं .यानि की सत्तारूढ़ दल पहली बार देश में किसी दलित को देश के सर्वोच्च पद पर ले जारहा है .जबकि ये कोई इतिहास का नया पन्ना नहीं था.अतीत में देश ने अल्पसंख्यक और दलित राष्ट्रपति देखे हैं .पन्द्रहवें राष्ट्रपति के चुनाव में तो सत्तारूढ़ दल ने राष्ट्रपति पद के प्रत्याशी की जाति को इतना ज्यादा प्रचारित किया जैसे कि कोई अनहोनी हो रही हो ?

भारत जैसे देश में राजनीति जातीय आधार पर होती रही है लेकिन राष्ट्रपति पद के लिए पहली बार किसी जाति या समुदाय का समर्थन हासिल करने के लिए पहली बार एक सुनियोजित प्रचारतंत्र का इस्तेमाल किया गया है. देश जानता है कि किसी सर्वोच्च पद पर किसी जाति विशेष के व्यक्ति या महिला के आसीन होने से उसकी जाति का उत्थान नहीं होता .न पहले कभी हुआ है और न आगे कभी होगा .लेकिन ऐसा भ्र्म पैदा किया जा रहा है .जातियों के लोगों से ज्यादा सरकारें उत्सव  मना रहीं हैं जैसे वे आदिवासी सरकारें हों .हमारी मध्यप्रदेश सरकार ने तो इस मामले में सबको पीछे छोड़ दिया .
दुनिया जानती है कि सरकारें जातीयता का इस्तेमाल सियासत के लिए करतीं हैं. देश में अभी तक ऐसी कोई सरकार नहीं बनीं जिसने आदिवासियों के शोषण को रोकने के लिए निर्णायक काम किया हो .कांग्रेस कि सरकार हो या भाजपा कि सबकी सब आदिवासियों के हकों पर डाका डालती रहीं हैं. जल,जंगल और जमीन हड़पने  के लिए पहले भी सरकारें आदिवासी विरोधी निर्णय लेती रहीं हैं और आज भी ले रहीं हैं .देश में नक्सलवाद इसी पक्षपात का दुष्परिणाम है .आदिवासियों को उनके जंगलों से बेदखल किया जा रहा है. जंगल और जंगलों  की सम्पदा अडानियों और अम्बानियों को लुटाने के प्रयास किये जा रहे हैं .छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश   के अलावा देश के अनेक आदिवासी बहुल राज्यों में ये अभियान जारी है .सवाल ये है कि एक आदिवासी महिला को राष्ट्रपति बनवा देने से क्या ये लूट-खसोट रुक जाएगी ?
सत्तारढ़ दल के मन में आदिवासियों के लिए कोई ममत्व नहीं है. ये कथित ममत्व अब मुरमुत्व में बदल चुका है. देश के आदिवासियों की आँखों में द्रोपदी मुर्मू को दिखा कर धूल झौंकी जा रही है .सत्तारढ़ दल ने  देश के अल्पसंख्यकों को पहले ही अपनी समर्थकों की सूची   से अलग कर दिया है .वे अब सत्तारूढ़ दल की और से न लोकसभा में हैं और न राजयसभा में. राज्यों का कोई मुख्यमंत्री अल्पसंख्यक नहीं है .इसलिए अब लक्ष्य देश के बहुसंख्यक आदिवासियों को बनाया गया है .देश में आदिवासियों की आबादी  10  करोड़ से भी ज्यादा है .सत्तारूढ़ दल आगामी लोकसभा चुनाव कि वैतरणी  इन्हीं आदिवासियों को ठग कर पार करना चाहती है .ऐसा करने से सरकार को कोई रोक नहीं सकता ,लेकिन सत्ता में बने रहने के लिए एक जाति /समुदाय विशेष की भावनाओं से खिलवाड़ करना नैतिक कदम तो कम से कम नहीं है .
सवाल ये है कि राष्ट्रपति पद पर बैठकर क्या श्रीमती द्रोपदी मुर्मू आदिवासी समुदाय के हितों का संरक्षण कर पाएंगी ? क्या उनके पास इतने अधिकार हैं कि वे आदिवासियों के जल,जंगल और जमीन के अधिकार को लूटने से बचा सकें, वो भी तब जब सरकार खुद इस लूट में सहायक हो .शायद ऐसा नहीं हो पायेगा ,क्योंकि श्रीमती मुर्मू अहसानों के तले दबी राष्ट्रपति हैं .वे उस तरह से  इस पद तक नहीं पहुंची हैं जैसे कि पूर्व के तरह उम्मीदवार पहुंचे थे .उनकी गत भी निवर्तमान राष्ट्रपति जैसी ही होना है .निवर्तमान  राष्ट्रपति को न सरकार ने पूछा और न समाज ने .उन्हें औपचारिक रूप से मिलने वाला सम्मान भी शायद नहीं मिला.प्रधानमंत्री ने अपने विदेश दौरों पर आते-जाते समय कभी भी उनसे शिष्टाचार भेंट नहीं की .खैर ये सरकार का अपना मामला है .

दो दिन बाद जब श्रीमती द्रोपदी मुर्मू देश की राष्ट्रपति बन जाएँगी तब इस बात पर नजर रखने की जरूरत है कि सत्तारूढ़ दल उनकी जाति और समुदाय को सियासत के लिए भुनाने की कोशिश न करे और यदि करे तो उसका खुलकर प्रतिरोध भी किया जाये ,क्योंकि शीर्ष पदों को लेकर जातीय राजनीति सबसे ज्यादा घ्रणित कार्य है .नए राष्ट्रपति का अभिनन्दन  ,बंदन,ईश्वर करे कि वे डॉ ज्ञानी जेल सिंह जैसी राष्ट्रपति साबित हों .

Shashi Kumar Keswani

Editor in Chief, THE INFORMATIVE OBSERVER