शशी कुमार केसवानी

जाट
कलाकार
सनी देओल , रेजिना कसांड्रा , रणदीप हुड्डा , विनीत कुमार सिंह , संयमी खेर , राम्या कृष्णन , जगपति बाबू , बबलू पृथ्वीराज , उपेंद्र लिमये और जरीना वहाब आदि
लेखक
गोपीचंद मलिनेनी , साई माधव बुर्रा और सौरभ गुप्ता
निर्देशक
गोपीचंद मलिनेनी
निमार्ता
नवीन येरनेनी , यलंमचिली रवि शंकर , टी जी विश्व प्रसाद और उमेश कुमार बंसल

फिल्म गदर 2 के बाद सनी देओल की अगली पिक्चर आई है। सनी देओल के दीवानों के लिए बैसाखी पर दिवाली सी मनी। मसाला पिक्चर के दीवानों के लिए हीरो की कंटान हीरोइन छोड़ बाकी सब है और, ऊपर से करारी बात ये कि ये टोटल एक्शन फिल्म सिकंदर जितनी बुरी नहीं है।

गोपीचंद की कहानी, फिल्म की सबसे कमजोर कड़ी
फिल्म के निर्देशक गोपीचंद मलिनेनी ने अगर अपनी पढ़ाई 12वीं में ही छोड़ न दी होती तो सनी देओल की फिल्म जाटभी शाहरुख खान की जवान से ज्यादा हिट होती। गोपीचंद ने शायद सातवीं, आठवीं में भी नागरिक शास्त्र ठीक से नहीं पढ़ा। भारत में अभी संघीय व्यवस्था उस तरह लागू नहीं है जैसी कि अमेरिका में हैं। अपने राष्ट्रपति को अब भी किसी राज्य में कुछ करवाना हो तो केंद्रीय गृह मंत्रालय के जरिये ही करवाना होता है। और, सीबीआई की भी अपनी सीमाएं है। वह ईडी नहीं है कि जहां चाहे वहां छापा मार दे। फिल्म जाट की कहानी उस दौर की लगती है जब मनमोहन देसाई की फिल्मों में तीन हीरो एक दुखिया को डायरेक्ट अपना खून दे दिया करते थे और क्लाइमेक्स में अपने अपने नाम ले लेकर गाना भी गा देते थे, लेकिन मजाल कि दर्शकों को इससे कोई शिकायत हो। बस, उन दिनों भारत की साक्षरता दर करीब 35 प्रतिशत थी जो अब ग्रामीण इलाकों तक में 75 प्रतिशत के करीब पहुंच चुकी है। तो थोड़ा लॉजिक तो मांगता है। फिल्म की कहानी यूं है कि आंध्र प्रदेश के दो दर्जन तटीय गांवों में लंका से आए और प्रभाकरण जैसे दिखते एक उग्रवादी के लेफ्टिनेंट रहे आतंकी ने स्थानीय नागरिकता हासिल कर गदर काट रखा है। नाम है उसका राणातुंगा। एक मां है। एक बीवी भी। छोटे भाई की गर्मी चाय से ज्यादा केतली गर्म वाली कहावत याद दिलाती है। राणातुंगा साउथ का डॉन है। नेताओं का आशीर्वाद है। पुलिस उसके तलवे चाटती है। पैसा उसको एक इंटरनेशनल माफिया दे रहा है। क्यों दे रहा है, ये फिल्म देखकर जानें तो ठीक रहेगा। डेढ़ सौ करोड़ की आबादी वाले देश में ये सब चल रहा है, और किसी को कानों कान खबर ही नहीं है।

इडली गिरा दी तो सॉरी बोल
बात समझने वाली यहां ये है कि फिल्म जाट की कहानी दर्शकों के गले नहीं उतरती। पर सनी की जबरदस्त एक्टिंग के आगे लोग फिल्म हजम करने लगे। 50 साल पुराने भारत की सी इस कहानी का नए भारत का से कोई लेना देना नहीं दिखता, सिवाय इसके कि आंध्र प्रदेश के गांव से चला एक निजी कंपनी से भेजा गया कोरियर 24 घंटे में दिल्ली पहुंच जाता है। सरकारी स्पीड पोस्ट से भेजी गई चिट्ठी अब भी इस देश में पहुंचने में तीन-चार दिन लगाती है। राष्ट्रपति के सामने जो पैकेट पहुंचा है उसमें एक बच्ची की चिट्ठी है, जो मदद मांग रही है। राष्ट्रपति के आदेश पर मौके पर जांच करने जब तक सीबीआई अफसर पहुंचे, उस बीच अयोध्या से लौट रही ट्रेन में सफर कर रहा एक ढाई किलो के हाथ वाला जाट बदमाशों की सिर्फ इसलिए धुलाई करता रहता है कि उन्होंने उसकी इडली की प्लेट गिराकर सॉरी नहीं बोला। आधी पिक्चर इस सॉरी बोल पुराण में गुजर जाती है। लेकिन डॉयलाग आने से पहले ही लोगों के डॉयलाग शुरू हो जाते हैं और तालियों और सीटियों की गड़गड़ाहट से गूंजने लगते हैं। इंटरवल के बाद निर्देशक को याद आता है कि फिल्म में एक कहानी भी होनी चाहिए, एक डांस आइटम भी होना चाहिए और जाट शब्द जातिसूचक न लगे तो हीरो की एक फ्लैशबैक स्टोरी भी होनी चाहिए। बस फिल्म यहीं लड़खड़ा जाती है। बेबी जॉन का कोई गाना आपको याद आ रहा हो तो याद रखिए कि उस फिल्म के म्यूजिक डायरेक्टर थमन एस ने ही जाट का भी म्यूजिक दिया है, नहीं याद आ रहा तो कोई बात नहीं, याद इस फिल्म का भी कोई गाना आपको नहीं रहने वाला। फिल्म को साढ़े तीन स्टार दिया जा सकता है।

पुष्पा वालों ने सनी के नाम पर लगाया पैसा
पुष्पा फ्रेंचाइजी बनाने वाली कंपनी मैत्री मूवी मेकर्स ने जो सोचकर इस फिल्म में पैसा लगाया होगा, उस सोच के हिसाब से वह मुनाफा कमा ही चुके है। सनी देओल की ये पहली फिल्म है जो एक साथ साढ़े तीन हजार से ऊपर स्क्रीन्स में रिलीज हुई है। कोई सौ करोड़ रुपये में बनी इस फिल्म की ओपनिंग अगर 30 करोड़ के ऊपर हो गई तो ही इसकी नैया पार लगेगी, लेकिन ऐसा होता दिख नहीं रहा। फिल्म जाट की ब्रांडिंग खराब करने में थोड़ा योगदान उर्वशी रौतेला का भी रहेगा, जिनके आइटम सॉन्ग ने एक अच्छी खासी ए लिस्टर फिल्म को बी ग्रेड जैसी मूवी बना दिया है।

सनी देओल के ढाई घंटे के स्लो मोशन
67 साल के हो चुके सनी देओल को बार बार स्लो मोशन में दिखाना फिल्म निर्देशक की मजबूरी है या वाकई सनी देओल एक बार में सौ कदम सीधे नहीं चल सकते, ये गोपीचंद मलिनेनी ही बता सकते हैं। लेकिन, अगर पूरी फिल्म से स्लो मोशन के शॉट्स निकाल दिए जाएं तो ये फिल्म 90 मिनट की बढ़िया एक्शन फिल्म बन सकती है। कुल मिलाकर इसमें चार एक्शन डायरेक्टर है। साउथ वाले राम लक्ष्मण हैं, पीटर हाइन भी हैं और सबने मिलकर आपस में फिल्म के कोई दो दर्जन एक्शन सीक्वेंस में से छह-छह बांट लिए दिखते हैं। अब इस फिल्म में कहानी बस इन सारे एक्शन सीन्स को जोड़ने के लिए चाहिए और ये कहानी चूंकि शीर्षासन की तरह खुलती चलती है लिहाजा दर्शकों के मन में तनाव बढ़ते रहना लाजिमी है। दर्शक सनी देओल की एंट्री आदि पर तालियां बजाएंगे या नहीं, इस पर शक हुआ तो निर्देशन ने इसका इंतजाम फिल्म में ही कर दिया है। ढाका की जेल का उसे बुलडोजर बताया जाता है, एक बार तो यही लगता है कि फिल्म का नाम जाट की बजाय बुलडोजर ही बढ़िया रहता।

रेजिना कसांड्रा के रंग रूप का जमा रंग
फिल्म में सनी देओल के बाद सबसे शानदार काम जिस कलाकार ने किया है, वह हैं रेजिना कसांड्रा। वह डॉन वाले शाहरुख खान की जंगली बिल्ली जैसी हैं। राणातुंगा की पत्नी बनी हैं। खास मौकों पर शायद तमिल में ही अपने संवाद बोलती हैं, इनका अनुवाद भी परदे पर सब टाइटल्स के तौर पर नहीं आता। इतनी बला की खूबसूरत महिला का किरदार खराब करने में भी फिल्म बनाने वालों ने कोर कसर नहीं छोड़ी। वह अपने घर में घुसी महिला पुलिस कर्मियों को अपने पति के गुंडों से बलात्कार कराती है! और, पति उसका तमिल है लेकिन हिंदी फरार्टेदार बोलता है। कहीं कोई साउथ इफेक्ट नहीं। देवर विनीत कुमार सिंह बने हैं। मेन विलेन के बेस्ट साइड किक का उनका किरदार पूरी फिल्म में कोई खास असर छोड़ता नहीं है। उनके किरदार की वैल्यू थाने में लटकी 30 लाशों में बस एक गिनती और है। जगपति बाबू, मुरली शर्मा, बबलू पृथ्वीराज, मुश्ताक शेख और राम्या कृष्णन जैसे नाम भी यहां बस गिनती बढ़ाने के लिए ही हैं। नोटिस करने लायक काम फिल्म में संयमी खेर का भी है लेकिन चूंकि उनके किरदार को शुरू में ही कमजोर दिखा दिया जाता है लिहाजा उनके किरदार के साथ दर्शकों की सहानुभूति आखिर तक बनती नहीं है। और, फिल्म में रणदीप हुड्डा भी हैं। धड़ से सिर अलग कर देना उनके किरदार राणातुंगा का सबसे पसंदीदा शगल है। चर्च में जाकर गोलीबारी करना उसकी दहशत को बढ़ाता है। लेकिन, फिल्म में उसकी खलनायकी का असर फिर भी नहीं आता है। जरीना वहाब अपने छोटे से रोल में अलग छाप छोड़ी। कहानी की कमजोरियों को छोड़कर सनी देओल ने अपने कंधों पर फिल्म उठाई हुई है। फिल्म पहले हफ्ते के बजाय आने वाले समय में ज्यादा बिजनेस कर रही है और लोगों को पसंद भी आ रही है। पंजाब-हरियाणा में तो फिल्म की धूम है। पर साउथ में भी फिल्म खास नाम कर रही है। मेरे हिसाब से फिल्म एक बार देखने लायक है।

Shashi Kumar Keswani

Editor in Chief, THE INFORMATIVE OBSERVER