राजेश बादल

लोकतंत्र के सबसे बड़े पर्व में अजीब से नज़ारे दिखाई दे रहे हैं।जबानें फिसल रही हैं।वे नफ़रत,घृणा और सामाजिक द्वेष बढ़ाने वाली बोली उगल रही हैं । सियासत अपने गिरते स्तर,गुम होते वैचारिक मूल्य और संप्रेषण में बदज़बानी तथा अश्लील-अमर्यादित व्यवहार के कारण देश विदेश में उपहास का केंद्र बन रही है ।सत्ता सुख की होड़ में राजनेता अपने घर में ही सम्मान खो रहे हैं।दूसरी ओर इसके उलट एक दृश्य दूसरा है।वह यह कि संसार के सबसे बड़े जवान देश के रूप में इन दिनों भारत की पहचान है।क़रीब 40 करोड़ नौजवान यहां आधुनिक भारत की नींव रख रहे हैं।लाखों युवक युवतियां अनेक देशों में ज्ञान का डंका बजा रहे हैं।अमेरिका जैसा विश्वचौधरी भारतीय प्रतिभाओं की इनफॉर्मेशन टेक्नोलॉजी प्रतिभा को सलाम करता है।वहां की आई टी इंडस्ट्री की कमान भारतीय नौजवानों के हाथ में है।लेकिन यही नई नस्ल अपने घर में लोकतंत्र मज़बूत बनाने में दिलचस्पी कम लेती है।

एक राष्ट्र के यह दो विरोधाभासी दृश्य क्या संकेत देते हैं ।यही कि मुल्क की नई पीढ़ी राष्ट्र संचालन में दिलचस्पी नहीं रखती ।उसे राजनीति का मौजूदा संस्करण रास नहीं आ रहा है।परिणाम यह कि सियासी मैदान में अधिकतर वे लोग नज़र आते हैं ,जिनकी बोली से फूल नही झरते।वे अपने विरोधी दलों को काटने दौड़ते हैं,गाली गलौज और घटिया भाषा का इस्तेमाल करते हैं,अवाम के साथ सामंतों जैसा सुलूक करते हैं और भ्रष्टाचार तथा दलबदल जैसी महामारियों को संरक्षण देते हैं।उनके इस आचरण को चुनाव आयोग भी नही नियंत्रित कर पा रहा है।वह ऐसे तत्वों को न चुनाव लड़ने से रोक पाता है और न उनको सजा दिला पाता है।राजनीति में वे लोग घुसपैठ कर चुके हैं,जो जीत के लिए हर हथकंडा अख़्तियार करते हैं।बाहुबल और धनबल का सहारा लेते हैं,वोटर को पैसे,शराब और तोहफ़े बाँटते हैं,धर्म को बाँटने वाले भाषण देते हैं और आचारसंहिता को धता बताते हैं।

निर्वाचन आयोग भी क्या करे ?वह किसी को 48घंटे के लिए प्रचार से रोक देता है तो किसी को 72 घंटे के लिए।किसी को रेडकार्ड दिखा कर नज़रबंद कर देता है तो किसी को कारण बताओ नोटिस जारी कर देता है।इससे अधिक कार्रवाई करने का अधिकार आयोग के पास नहीं देता।यह याद करना दिलचस्प होगा कि इन्ही क़ानूनी प्रावधानों के चलते टीएन शेषन जैसे मुख्य चुनाव ने पच्चीस साल पहले इन्ही राजनेताओं को सुधार दिया था।पर,आज के चुनाव आयोग से जब सर्वोच्च न्यायालय जवाब तलब करता है तो वह बेचारगी का रोना रोता है।जब अदालत फटकार लगाती है तो दो चार दिन कड़क दिखता है।उसके बाद फिर वही ढाक के तीन पात।ताज्जुब होता है कि क्या इसी आयोग ने सर्वशक्तिमान नेत्री इंदिरागांधी और उनकी पार्टी को 1977 में बाहर का दरवाज़ा दिखाया था,क्या इसी आयोग ने राजीवगांधी सरकार को पराजय के प्रमाणपत्र सौंपे थे और क्या यह वही आयोग है,जिसने नरसिंहराव सरकार को दिन में तारे दिखाए थे ?उन दिनों आयोग के पास कौन से अमोघ अस्त्र थे,जो आज नहीं हैं।

दरअसल वर्तमान आदर्श आचार संहिता को न्यायिक प्रणाली का अभिन्न अंग नहीं माने जाने से यह स्थिति बनी है।आचार संहिता तोड़ने वाली पार्टियाँ जानती हैं कि आयोग के पास कार्रवाई का कोई क़ानूनी चाबुक नहीं है।ऐसे में उनकी चिंता करने की क्या आवश्यकता है।लेकिन भारत के शुरुआती दौर में ऐसा नहीं था।राजनेताओं ने आत्मअनुशासन की तलवार ख़ुद पर लटका रखी थी।यह तलवार उन्हें नैतिक रूप से भयभीत रखती थी।इसलिए आचार संहिता की ज़रुरत नहीं पड़ी। मगर दूसरे आम चुनाव के बाद सबसे पहले नेहरू सरकार ने ज़रूरत महसूस की,क्योंकि राजनेता एक दूसरे की टोपी उछालने का काम करने लगे थे।इसके बाद प्रधानमंत्री नेहरूजी की पहल पर 1960 में सभी पार्टियों ने मिलकर एक आचारसंहिता को अंतिम रूप दिया।यह उस समय के लोकतांत्रिक विश्व के लिए अनूठा उदाहरण था।केरल विधानसभा चुनाव में इसे पहली बार अमल में लाया गया।इसमें बताया गया था कि पार्टियों और प्रत्याशियों को क्या करना चाहिए और क्या नहीं।नतीजे सकारात्मक निकले।जब 1962 के लोकसभा चुनाव हुए तो आयोग ने इसी संहिता को परिष्कृत रूप में सभी दलों को वितरित किया।निर्वाचन आयोग ने राज्य सरकारों से कहा कि वे प्रादेशिक दलों को भी इससे जोड़ें।ऐसा हुआ और अच्छे परिणाम मिले।इस तरह 1967 के लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव में पहली बार आचार संहिता का सभी पार्टियों ने सख़्ती से पालन किया।तबसे यह संहिता आयोग का सशक्त अधिकार है।पर 1979 के मध्यावधि चुनाव में राजनीतिक माहौल बदला हुआ था।तब आयोग के मुख्य आयुक्त एसएल शकधर की अगुआई में सभी दलों से बात कर नया हिस्सा जोड़ा। इसमें सत्तारूढ़ दल पर कुछ नई बंदिशें लगाईं गईं।उद्देश्य था कि सरकार चला रही पार्टी को अन्य दलों की अपेक्षा शक्तियों के अधिक इस्तेमाल का अवसर न मिले।इसके बाद आया टीएन शेषन के कार्यकाल में इसे सख़्त बनाया गया। तब से यही संहिता आंशिक संशोधनों के साथ जारी है।इसमें कहा गया है कि किसी की निजी ज़िंदगी पर हमला नहीं किया जाएगा,सांप्रदायिक भावनाएं भड़काऊ अपीलें नहीं होंगीं।इसके अलावा सरकारी कार्यक्रमों,पैसे के दुरूपयोग,नई नीतियों और फ़ैसलों के ऐलान पर रोक लगी ।बाद में इसे सुप्रीम कोर्ट ने भी मान्यता दे दी।

इनदिनों इसी आचार संहिता का मख़ौल उड़ाया जा रहा है।हालाँकि सुप्रीमकोर्ट की मान्यता से भी इसे क़ानूनी रूप नहीं मिला।यदि कोई दल या प्रत्याशी इसे तोड़ता है तो उसके ख़िलाफ़ क़ानूनी कार्रवाई का कोई आधार नहीं है।जब जब ऐसे मामले सामने आए तो आयोग ने ही एतराज़ किया।आयोग का तर्क है कि इसे क़ानूनी दर्ज़ा दिया गया तो कोड ऑफ कंडक्ट का उल्लंघन करने वाला इसी का सहारा लेकर बचता रहेगा।मामला पुलिस,मजिस्ट्र्रेट अथवा अदालत में वर्षों तक लंबित रहेगा,जबकि आयोग को सिर्फ़ 45 दिनों में प्रक्रिया पूरी कर देनी होती है।सुनने में तर्क उचित लगता है,लेकिन हर चुनाव में जिस तरह मर्यादाएँ टूट रही हैं,उससे तो समूची निर्वाचनी प्रक्रिया पर ही सवाल खड़े हो जाएँगे।

Shashi Kumar Keswani

Editor in Chief, THE INFORMATIVE OBSERVER