श्रवण गर्ग

क्या किसी विपक्षी दल की सरकार का कोई मंत्री या देश का सामान्य नागरिक प्रधानमंत्री द्वारा किसी विषय पर विचार व्यक्त किए जाने को यह कहते हुए चुनौती दे सकता है कि ऐसा करने के लिए उनके पास अपेक्षित विशेषज्ञता या शैक्षणिक डिग्रियाँ नहीं हैं ? क्या सर्वोच्च अदालत को उन विषयों पर राय देने का अधिकार नहीं है जिनका लिखित उल्लेख संविधान में नहीं है या जो केवल विधायिका के ही अधिकार क्षेत्र में आते हैं ?

एक राष्ट्रीय टीवी चैनल पर पिछले दिनों डिबेट के दौरान तमिलनाडु के वित्त मंत्री पलानिवेल त्याग राजन (पीटीआर) ने प्रधानमंत्री के वैचारिक अधिकार-क्षेत्र और उनकी आर्थिक उपलब्धियों को लेकर कई सवाल खड़े कर दिए। चूँकि मामला दक्षिण के एक ग़ैर-हिंदी भाषी राज्य के मंत्री से जुड़ा था और बहस अंग्रेज़ी के चैनल पर थी, हिंदी पट्टी का उस पर ज़्यादा ध्यान नहीं गया। भाजपा के मीडिया सेल सहित हिंदी के गोदी चैनलों द्वारा भी या तो विषय को बहस के योग्य नहीं समझा गया या जान-बूझकर नज़रंदाज़ कर दिया गया। हिंदी-भाषी राज्य की किसी विपक्षी सरकार का कोई वित्त मंत्री अगर प्रधानमंत्री की आर्थिक-विशेषज्ञता को लेकर सवाल करता तो अभी तक बवाल मच चुका होता।

टीवी चैनल की उक्त डिबेट में पीटीआर के उत्तेजित होने का कारण प्रधानमंत्री द्वारा लोकलुभावन चुनावी वादों की तुलना रेवड़ी बाँटने से किया जाना था। चैनल के एंकर ने प्रधानमंत्री के कथन के पीछे के मंतव्य को यह कहते हुए प्रस्तुत किया कि दलों द्वारा मतदाताओं को सब्सिडी की पेशकश किसी दीर्घकालीन उपलब्धि के बजाय सरकारी ख़ज़ाने को ख़ाली करने का ही काम करती है। साथ ही, इस तरह की चुनावी पेशकशों और लोक-सशक्तिकरण के लिए क्रियान्वित की जाने वाली जन-कल्याणकारी योजनाओं के बीच फ़र्क़ किया जाना चाहिए। टीवी डिबेट के लेकर कलकत्ता के ‘द टेलिग्राफ’ में चेन्नई से प्रकाशित एक विस्तृत समाचार के मुताबिक़, एंकर के कथन पर तमिलनाडु के छप्पन-वर्षीय वित्त मंत्री ने जो जवाब दिया उससे एक नई बहस छिड़ गई।

पीटीआर ने अपनी बात शुरू करते हुए कहा कि वे ईश्वर में यक़ीन करते हैं पर ऐसा नहीं मानते कि कोई इंसान भगवान है। उन्होंने आगे कहा :’ आप जो कह रहे हैं उसका कोई संवैधानिक आधार होना चाहिए। तभी लोग सुनेंगे ! या फिर आपके पास कोई विशेष योग्यता होनी चाहिए—जैसे आपके पास अर्थशास्त्र में दोहरी पीएचडी हो या आपको नोबेल पुरस्कार मिला हो ! आपके पास ऐसा कुछ होना चाहिए जो हमें बता सके कि आप हमसे बेहतर जानते हैं ! आपके अब तक के काम का रिकॉर्ड ऐसा हो कि अर्थव्यवस्था ने ऊंचाइयां हासिल कर ली हो ! क़र्ज़ में कमी हो गई हो ! प्रति व्यक्ति आय बढ़ा गई हो ! नौकरियाँ मिलने लगीं हों ! तब हम कहेंगे —ओह, हम आपकी बात सुनते हैं !‘ अगर इसमें कुछ भी सच नहीं है तो किसी की बात क्यों सुनना चाहिए ? किस आधार पर तब मुझे आपके लिए अपनी नीति बदल देना चाहिए ? क्या कोई संविधानेतर आदेश है जो आसमान से जारी हो रहा है ? आप कहना क्या चाह रहे हैं ?’

माथे पर कुंकू धारण करने वाले देवी मीनाक्षी के समर्पित भक्त पीटीआर ने त्रिची से इंजीनियरिंग की पढ़ाई पूरी करने के बाद एमआईटी (अमेरिका) से फाइनेंस में एमबीए किया है। साल 2016 में तमिलनाडु की राजनीति में प्रवेश करने से पहले वे अमेरिका और सिंगापुर के बड़े वित्तीय संस्थानों में काम कर चुके थे। वित्त मंत्री बनने के बाद पहले ही साल में उन्होंने राज्य के वित्तीय घाटे को सात हज़ार करोड़ रुपए से कम कर दिया। उनके पिता भी करुणानिधि सरकार में मंत्री थे।

मानकर चला जाना चाहिए कि तमिलनाडु के वित्त मंत्री ने प्रधानमंत्री की आर्थिक विषयों पर विचार व्यक्त कर सकने की सीमाओं पर जो टिप्पणी की उससे मुख्यमंत्री एमके स्टालिन, उनके मंत्रिमंडल के सदस्य और राज्य की आठ करोड़ जनता भी सहमत है। स्टालिन या राज्य सरकार का ऐसा कोई स्पष्टीकरण देखने में नहीं आया कि टीवी चैनल की डिबेट में पीटीआर ने जो कुछ कहा वे उनके निजी विचार हैं। तमिलनाडु के वित्त मंत्री को यह कहते हुए भी उद्धृत किया गया है कि भारत की ही नहीं बल्कि दुनिया के किसी भी प्रजातांत्रिक मुल्क की सर्वोच्च अदालत के लिए यह संवैधानिक प्रावधान नहीं है कि वह जनता के धन के उपयोग के सम्बंध में निर्देशित करे। ऐसा करना केवल विधायिका के ही अधिकार-क्षेत्र में आता है।

( इस बीच ,सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश एनवी रमना ने मुफ़्त वाले वादों के ख़िलाफ़ दायर एक याचिका पर 23 अगस्त को सुनवाई के दौरान टिप्पणी की कि : ‘देश में ऐसी कोई भी पार्टी नहीं है जो चुनावों के दौरान मुफ़्त वाले वादे नहीं करना चाहती है। इस मुद्दे पर बहस करना ज़रूरी है और देश हित में भी है।’ रमना ने तमिलनाडु सरकार की ओर से पेश हुए वकील को भी फटकार लगाई और कहा :’ जिस तरह से आप बातें कर रहे हैं और बयान जारी कर रहे हैं , ये मत सोचिए कि जो कहा जा रहा है हम उसे नज़रंदाज़ कर रहे हैं।’)

पीटीआर के कहे पर विपक्ष के मौन को तो समझा जा सकता है, पर केंद्रीय वित्त मंत्री सहित भाजपा-शासित राज्यों के मुख्यमंत्रियों या वित्तमंत्रियों की ओर से भी किसी प्रभावशाली प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा का अंत होना बाक़ी है। भाजपा के एक प्रवक्ता नरेंद्र तनेजा की प्रतिक्रिया को अख़बार ने बहस की खबर के साथ ज़रूर उद्धृत किया है जिसमें पीटीआर की टिप्पणी को ‘बौद्धिक अहंकार’ निरूपित करते हुए कहा गया है कि : ‘सिर्फ़ इसलिए कि उन्होंने पीएचडी अमेरिका से की है इस तरह से नहीं बोलना चाहिए।’

तमिलनाडु के वित्त मंत्री की टिप्पणी केंद्र और ग़ैर-भाजपाई राज्य सरकारों के बीच सम्बन्धों में बढ़ते टकराव का संकेत तो देती ही है, दो अन्य सवाल भी जगाती है : पहला यह कि भाजपा के हिंदी-भाषी प्रभाव क्षेत्र की किसी विपक्षी सरकार का कोई मंत्री अथवा देश का कोई आम नागरिक अगर प्रधानमंत्री के आर्थिक विषयों पर अधिकारपूर्वक विचार व्यक्त करने अथवा उनकी उपलब्धियों के दावों को लेकर प्रश्नचिन्ह खड़ा करता है तो उसकी प्रतिक्रिया कितनी सामान्य या असामान्य होगी ? दूसरे यह कि अगर पीटीआर द्वारा प्रधानमंत्री की वैचारिक स्वतंत्रता को कठघरे में खड़े करने का संवैधानिक प्रतिरोध नहीं किया जाता है है तो उस संसदीय व्यवस्था का क्या होगा जिसमें बहुमत प्राप्त करने वाले दल के सांसद किसी व्यक्ति विशेष को उसके द्वारा अर्जित योग्यता के आधार ही पर देश का नेतृत्व करने के लिए अधिकृत करते हैं ? बड़ा सवाल यह है कि पीएम अगर आर्थिक विषयों और अपनी उपलब्धियों पर बोलना बंद कर देंगे तो वे फिर किस बात की चर्चा करेंगे?

Shashi Kumar Keswani

Editor in Chief, THE INFORMATIVE OBSERVER