TIO BHOPAL
‘न भूतो न भविष्यति’। हां इस तरह की पुस्तक कभी पहले तो नहीं बनी पर आगे नहीं बनेगी, ऐसा बिलकुल नहीं कहा जा सकता। वरिष्ठ पत्रकार चंद्रहास शुक्ल ने इस ऐतिहासिक पुस्तक को तैयार करके एक अनूठी मिसाल कायम की है। ‘पुण्य स्मरणम पत्रकार’ पुस्तक के बारे में निश्चित तौर पर कहा जा सकता है कि यह एक ऐतिहासिक पुस्तक है। कुछ वरिष्ठ पत्रकारों के गलियारों में इसे इनसाइक्लोपीडिया भी कहा जा रहा है। यह पुस्तक बनी भी तो उन 122 दिवंगत पत्रकारों की स्मृति में जिन्होंने अपना पूरा जीवन कलम और कागज के साथ बिता दिया। 264 पृष्ठ की इस पुस्तक में 45 लेखकों द्वारा लेखन कार्य किया गया है। रंगीन और जिल्द के कवर से ढंकी यह पुस्तक दिवंगत पत्रकारों के प्रति गहरी संवेदना और श्रद्धांजलि देती महसूस होती है। पुस्तक की कीमत मात्र 1 रुपया रखी गयी है। यह पुस्तक लोकार्पित है इसका कापीराइट भी नहीं है। पुस्तक का प्रकाशन अमित प्रकाशन द्वारा किया गया है। सबसे खास बात यह है कि इस पुस्तक को तैयार करने या प्रकाशित करने में भी किसी भी व्यक्ति या संस्था की ओर से किसी भी तरह की कोई भी या आर्थिक मदद नहीं ली गयी है। यह कठिन और श्रमसाध्य कार्य चंद्रहास शुक्ल ने और सहयोगी संपादक पूर्णिमा दुबे ने किया। इस पुस्तक में अम्बा सूफी जैसे क्रांतिकारी पत्रकारों से आरम्भ करके विगत दिनों दिवंगत ठाकुर विक्रम ंिसंह सहित 122 दिवंगत पत्रकारों का जीवन शामिल किया गया है।
इस किताब की नींव रखे जाने से लेकर इसे आकार देने की साक्षी रहने का सौभाग्य मुझे मिला। करीब 22 वर्ष लग गये पुस्तक को आकार देने में। समय लगा, पर सही समय लगा। कहते हैं कलम के सिपाही अगर सो गये तो वतन के मसीहा वतन बेच देंगे। पर जब कलम के सिपाही की आंखें बंद होती हैं तो उसके बारे में चार पंक्तियां भी बमुश्किल लिखी जाती है और कुछ मामलों में तो ये भी नहीं।
दिवंगत पत्रकारों के बारे में लिखना बड़ा ही मुश्किल कार्य रहा। कुछ की जानकारी बड़ी आसानी से मिली और कुछ की इसके विपरीत। मिले-जुले अनुभव मिले। कोई अपने दिवंगत व्यक्ति के बारे में जानकारी देने के लिए तत्पर दिखा और साथ ही अनुगृहीत भी। वहीं दूसरी ओर विपरीत भाव भी नजर आया। किसी ने कहा कि ऐतिहासिक पुस्तक बन रही तो कोई देरी पर आपत्ति उठाता नज़र आया।
बहुत बुद्धिमत्ता, गंभीरता, सजगता, दूरदर्शिता, धैर्य, परिश्रम चाहिये ऐसी पुस्तक को आकार देने में। चंद्रहास शुक्ल जी निश्चित तौर पर ऐसे पहले पत्रकार हैं जिन्होंने दिवंगत पत्रकारों की स्मृति को जीवित रखने के लिए प्रयास किये। ऐसे दिवंगत पत्रकार जिनसे उनका कोई नाता भी ना हो। कितना मुश्किल था दिवंगत पत्रकारों के परिजनों को तलाशना और फिर उनसे जानकारी या फोटो प्राप्त करना। कुछ तो अपने बेटे या बेटी के साथ प्रदेश से बाहर शिफ्ट हो चुके और वहीं उनका निधन भी हो गया। बेटा-बेटी या रिश्तेदार से संपर्क करना या उनसे जुड़े किसी व्यक्ति से संपर्क नंबर प्राप्त करना बड़ा ही पेचीदा काम था। पर ष्शुक्ल’ जी ने यह सब बेहद सजगता और धैर्य के साथ किया। उन्होंने पूरी कोशिश की है कि भोपाल के अधिकांश दिवंगत पत्रकारों को इस पुस्तक में शामिल किया जाए। उनके लिए स्थान भी उपलब्ध जानकारी के आधार पर कम या ज्यादा तय किया गया। संभव है कुछ शेष रह गये हों। प्रयास किया गया कि ऐसा ना हो।
सहयोग का तरीका सभी का अलग-अलग रहा। संपर्क और जुड़ाव का सिद्धांत इस कार्य में गहराई से समझ पायी। जीवन में रिश्ते की गहराई का अनूठा पहलू दिखा भी और महसूस भी किया।
चंद्रहास शुक्ल का कहना है कि यह अंतहीन किताब है जो आगे आने वाली पीढ़ियों के लिए प्रेरक पुस्तक है। इस पुस्तक से प्रेरणा लेकर उन्हें भविष्य में इसी तरह से परिश्रम करके यह कार्य करते जाना है।