TIO, नई दिल्ली
सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि तमिलनाडु के राज्यपाल की ओर से भेजे गए 10 विधेयकों पर राष्ट्रपति ने अगर कोई कार्रवाई की है, तो वह भी गैरकानूनी है। शीर्ष कोर्ट ने स्पष्ट कहा, अगर किसी विधेयक को राज्य विधानसभा की ओर से दोबारा पारित किया जाता है, तो राज्यपाल राष्ट्रपति की मंजूरी के लिए उसे सुरक्षित नहीं रख सकते।
जस्टिस जेपी पारदीवाला व जस्टिस आर महादेवन की पीठ की ओर से तमिलनाडु के राज्यपाल आरएन रवि मामले में आठ अप्रैल को सुनाए फैसले को चौथे दिन सुप्रीम कोर्ट की वेबसाइट पर शुक्रवार रात 10:54 बजे अपलोड किया गया। संविधान के अनुच्छेद 200 की व्याख्या करते हुए पीठ ने कहा, राज्यपाल किसी विधेयक को राष्ट्रपति की स्वीकृति के लिए सुरक्षित नहीं रख सकते हैं, जब उसे विधानसभा की ओर से दोबारा पारित कर दिया गया हो, भले ही राज्यपाल ने पहले चरण में अपनी स्वीकृति रोक ली थी।
पीठ ने 415 पेज के अपने फैसले में स्पष्ट कहा, राज्यपाल डॉ. रवि का 10 विधेयकों को रोकने का फैसला अवैध था। राष्ट्रपति की ओर से 10 विधेयकों के संबंध में उठाए गए कदम भी कानून के मुताबिक वैध नहीं हैं। पीठ ने कहा, जब ये 10 विधेयक विधानसभा से पारित होने के बाद दूसरी बार राज्यपाल के समक्ष पेश किए गए, तो इन विधेयकों को राज्यपाल से स्वीकृत माना जाए। शीर्ष अदालत ने अपनी रजिस्ट्री को इस फैसले की प्रति सभी हाईकोर्ट और सभी राज्यों के राज्यपालों के प्रधान सचिव को भेजने के निर्देश दिए।
अनुच्छेद 200 में राज्यपाल के पास सिर्फ तीन विकल्प
पीठ ने कहा, विधानसभा से पारित होने के बाद विधेयक राज्यपाल के समक्ष पेश किए जाने पर राज्यपाल के पास अनुच्छेद 200 के तहत तीन विकल्प होंगे। पहला इसे स्वीकृति दें। दूसरा स्वीकृति रोकें और तीसरा राष्ट्रपति के विचार के लिए विधेयक को सुरक्षित रख लें।
पीठ ने कहा कि जहां राज्यपाल किसी विधेयक को राष्ट्रपति के विचारार्थ सुरक्षित रखते हैं और राष्ट्रपति उस पर अपनी सहमति नहीं देते, वहां राज्य सरकार को शीर्ष अदालत में जाने का अधिकार होगा। जब राष्ट्रपति अनुच्छेद 201 के तहत स्वीकृति के लिए उनके समक्ष किसी विधेयक पर निर्धारित समयसीमा के भीतर निर्णय नहीं लेते, तो भी राज्य सरकार को सुप्रीम कोर्ट से परमादेश रिट की मांग करने का अधिकार होगा।
विधेयक दोबारा पारित हुआ तो एक माह में देनी होगी मंजूरी
अनुच्छेद 200 में राज्यपाल के लिए समय सीमा निर्धारित नहीं है, लेकिन कहा गया है कि वह जितनी जल्द हो सके फैसला लेंगे। विधेयक को राष्ट्रपति के विचारार्थ रखे जाने की स्थिति में, राज्यपाल से अपेक्षा की जाती है कि वह अधिकतम एक महीने में सहमति देंगे। मंजूरी नहीं देने पर संदेश के साथ अधिकतम तीन माह के भीतर उसे वापस करना होगा। विधानमंडल विधेयक दोबारा पारित कर भेजता है तो राज्यपाल को एक माह में स्वीकृति देनी होगी।
कोर्ट ने संविधान के तहत राष्ट्रपति को प्राप्त शक्तियों के प्रयोग की व्याख्या की
शीर्ष अदालत ने फैसले में संविधान के अनुच्छेद 200 के तहत राज्यपाल को मिली शक्तियों और अनुच्छेद 201 के तहत राष्ट्रपति को प्राप्त शक्तियों के प्रयोग की न्यायिक समीक्षा भी की। पीठ ने कहा, जहां राज्यपाल मंत्रिपरिषद की सलाह के विपरीत किसी विधेयक को राष्ट्रपति के विचारार्थ अपने विवेकानुसार सुरक्षित रखते हैं, वहां राज्य सरकार ऐसी कार्रवाई को हाईकोर्ट या सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दे सकती है।
क्या कहता है अनुच्छेद 201
पीठ ने कहा कि अनुच्छेद 201 के अनुसार, राष्ट्रपति के पास भी किसी विधेयक को मंजूरी के लिए असीमित समय तक रोकने का अधिकार नहीं है। राष्ट्रपति या तो स्वीकृति देंगे या रोकेंगे। अगर राष्ट्रपति विधेयक की स्वीकृति को रोकते हैं तो इसके कारण भी स्पष्ट करने होंगे।
पीठ ने कहा, हम यह नहीं कह सकते कि राष्ट्रपति को अनुच्छेद 201 के प्रावधान का प्रयोग न करने और राज्य विधानमंडल को अनुमति न देने के कारणों की जानकारी न देने की अनुमति होगी, क्योंकि ऐसा करने से अनुच्छेद 200 में प्रावधान का समावेश हो जाएगा।
पीठ ने कहा, जहां किसी कानून के तहत कोई समय-सीमा निर्धारित नहीं है, वहां भी उसे उचित समय के भीतर प्रयोग किया जाना चाहिए।