राजेश बादल वरिष्ठ पत्रकार
भारत के ख़ूबसूरत पड़ोसी देश भूटान के नौजवान राजा ज़िग्मे खेसर नामग्याल वांगचुक की तीन दिवसीय भारत यात्रा के अनेक अर्थ लगाए जा रहे हैं। कहा जा रहा है कि उनके इस दौरे से एशिया का स्वयंभु चौधरी चीन असहज महसूस कर रहा है। उसे लग रहा है कि बीते दिनों भूटानी प्रधानमंत्री लोटे छ्रिन्ग ने अपने बयान से उसका अप्रत्यक्ष समर्थन कर दिया था। चीन इससे प्रसन्न था ,लेकिन भारत के लिए यह परेशानी में डालने वाला था।राहत की बात यह है कि भूटान नरेश ने भारत की चिंताओं को समझा है और अपनी यात्रा में रिश्तों को संतुलित बनाने का प्रयास किया है। जानकारों का एक समूह कह रहा है कि अपने प्रधानमंत्री की बेल्जियम यात्रा से स्वयं भूटानी नरेश प्रसन्न नहीं हैं। इसलिए उन्होंने भारत के साथ रिश्तों में जम रही बर्फ़ को तोड़ने के लिए भारत आने का फ़ैसला लिया ।संभवतया इसी वजह से भारत यात्रा में उन्होंने अपने प्रधानमंत्री को शामिल नहीं किया । नरेश के साथ विदेश व्यापार मंत्री डॉक्टर टांडी दोरजी और भारी भरकम प्रतिनिधिमंडल आया।इस दल ने अपने प्रधानमंत्री के बयान से उपजी ग़लतफ़हमी दूर करने का प्रयास किया ।संदर्भ के तौर पर भूटानी प्रधानमंत्री का वह कथन याद करना आवश्यक है ,जिसमें उन्होंने कहा था कि चीन ने भूटान सीमा में कोई निर्माण या अतिक्रमण नहीं किया है। जो भी निर्माण चल रहा है ,वह भूटान की सीमा से बाहर है। उन्होंने यह बात बेल्जियम दौरे के दरम्यान वहाँ के अख़बार लॉ लेबरे को साक्षात्कार में कही थी। जब बवाल हुआ तो उन्होंने अपने मुल्क़ के समाचार पत्र द भूटनीज़ में गोल मोल सा स्पष्टीकरण दिया कि डोकलाम के बारे में भूटान के रूख में कोई परिवर्तन नहीं आया है। यहां याद रखना ज़रूरी है कि भूटान ने पंद्रह साल पहले राजशाही वाले लोकतंत्र को अपनाया था। इससे पहले भारतीय लोकतंत्र को समझने के लिए भूटान नरेश ने खास दल भी भेजे थे ।भूटान के वर्तमान लोकतंत्र में राजा आज भी सर्वोच्च है ,मगर उनके प्रधानमंत्री और अन्य सदस्य निर्वाचित होते हैं । इनमें पार्टियां हिस्सा लेती हैं ।भूटान की संसद को राष्ट्रीय परिषद् कहा जाता है। भारत की तरह वहाँ भी उच्च सदन तथा निम्न सदन हैं। उच्च सदन राज्यसभा की तरह और निम्न सदन लोकसभा जैसा है ।भूटान के राजनीतिक दलों में कुछ चीन और कुछ भारत से दोस्ती के पक्षधर माने जाते हैं ।मुख्य विपक्षी दल द्रुक फुएनसम शोगपा (डीपीटी) तो खुले तौर पर चीन समर्थक है। जब 2013 में भारत ने भूटान को तेल सब्सिडी बंद कर दी तो इस पार्टी ने भारत विरोधी भावनाएँ भड़काने का काम किया था।
क़रीब छह बरस पहले भूटान ने दावा किया था कि डोकलाम उसका अपना इलाक़ा है । लेकिन चीन ऐसा नहीं मानता।डोकलाम एक पठारी क्षेत्र है , जिस पर चीन और भूटान के बीच विवाद चल रहा है। एक संधि के तहत उसकी हिफ़ाज़त भारतीय सेना करती रही है। लेकिन पांच साल पहले जून से 28 अगस्त, 2017 के बीच भारत और चीन की सेनाएँ आमने सामने डटी रही थीं ।दोनों के बीच हिंसक झड़पें भी हुई थीं। चीन की मंशा डोकलाम में भूटान सीमा का अतिक्रमण करना था ।यह भारत की राष्ट्रीय सुरक्षा के नज़रिए से प्रतिकूल था। भारत ने चीन को पीछे हटने पर मजबूर किया । यह भारत की बड़ी कूटनीतिक – रणनीतिक जीत थी | इसके बाद दक्षिण एशिया के देशों में भारत के प्रति धारणा बदली।पहले वे चीन के विस्तारवादी रवैए से भयभीत रहते थे। इन्ही दिनों चीन ने बेल्ट और रोड शिखर बैठक बुलाई। भारत ने इसका बहिष्कार किया। भारत का कहना था कि यह परियोजना कई देशों की संप्रभुता का हनन करती है ।परियोजना के पक्ष में अनेक देश नहीं थे।चीन ने इसके बाद से ही चुपचाप भारत के पड़ोसियों से सीधे संपर्क कर उन्हें ललचाने का काम शुरू कर दिया । उसने श्रीलंका के पूर्व राष्ट्रपति महिंद्रा राजपक्षे को भरपूर आर्थिक मदद दी,नेपाल के पूर्व प्रधानमंत्री के पी औली को उपकृत किया,पाकिस्तान के फौजी अफसरों को लाभ पहुंचाए, मालदीव के पूर्व सत्ता प्रमुख को धन दिया और म्यांमार के सैनिक शासकों को खरीद लिया । भूटान के प्रधानमंत्री लोटे श्रृंग के बारे में भी यही चर्चाएं चल रही हैं । भूटान नरेश अपने स्तर पर इन आरोपों की खुफिया जांच भी करा रहे हैं ।
दरअसल डोकलाम जैसी स्थिति नेपाल के कालापानी की भी है।वहाँ भी चीन से 1962 की जंग के बाद से भारतीय सेना तैनात है और नेपाल तथा भारत की सीमाओँ की रक्षा करती रही है।जब डोकलाम में चीन की दाल उस तरह से नहीं गली,जैसी कि वह चाहता था तो उसने नेपाल में जन आंदोलन को परदे के पीछे से हवा दी ।लेकिन भारत ने उन्ही दिनों नेपाल की भी आर्थिक नाकाबन्दी कर दी।इससे नेपाली नागरिकों को भारी परेशानी हुई।वहाँ चीन समर्थित नेपाली कम्युनिस्ट पार्टी ने लाभ उठाया और भारत विरोधी भावनाएँ भड़काईं। भूटान में भी यही हुआ । आपको याद होगा कि चीनी राष्ट्रपति अक्टूबर में भारत से सीधे नेपाल गए थे और वहाँ से तिब्बत के सन्दर्भ में बेहद तीख़ा बयान दिया था कि चीन अपनी ज़मीन के एक इंच पर किसी को अधिकार नहीं करने देगा और हड्डी – पसली तोड़ देगा ।इसके बाद नेपाल में भारत विरोधी आंदोलन तेज़ हो गए।।भारत और नेपाल के रिश्ते अतीत में कितने ही मधुर रहे हों लेकिन हकीकत तो यही है कि बीते कुछ वर्षों में नेपाल भारत से छिटका है और चीन के क़रीब गया है। आर्थिक नाकाबंदी की कड़वाहट अभी तक नेपाल भूला नहीं है।इस कड़ी में म्यांमार की कहानी भी भूटान और श्रीलंका से अलग नहीं है। वहाँ के आतंकवादी शिविरों पर हमले करने की अनुमति म्यांमार ने दी ,लेकिन उसके बाद भारत के अफसर और नेता गाल बजाने लगे।यह बात म्यांमार को अखरी। तब से आज तक म्यांमार चीन की गोद में बैठा भारत को आँखें दिखा रहा है।तीन देशों के साथ हालिया घटनाक्रम यह सन्देश दे रहा है कि पड़ोसियों की राष्ट्रीय दुविधाओं और चिंताओं का ख़्याल भी करना लंबे और टिकाऊ रिश्तों के लिए ज़रूरी है। अन्यथा चीन तो फ़ायदा उठाने के लिए तैयार बैठा ही है।