फिल्मी इतिहास शशी कुमार केसवानी के साथ
नमस्कार दोस्तों आईए आज बात करते हैं एक ऐसी अभिनेत्री की जिसने भारतीय सिनेमा में अपना ट्रेड मार्क बनाया हुआ था। बाकी अभिनेत्रियों से अलग तरह का अभिनय करने वाली यह अभिनेत्री अपने अभिनय के लिए एक अलग पहचान रखती थी। इसके पीछे वजह थी कि 20 से लेकर 30 के दशक तक मदर थिएटर अभिनय करती थी। यह थिएटर देश भर में अलग-अलग जगहों पर जाकर नाटक किया करता था। देश भर घूमते-घूमते जैसे सभी का पड़ाव आखिरी बॉम्बे होता है तो इनका भी पड़ाव मुंबई बना। एक नाटक के दौरान आनंद प्रकाश कपूर की नजर इस अभिनेत्री पर पड़ी और उन्होंने थिएटर और फिल्मों के लिए साइन कर लिया। जी हां दोस्तों मैं बात कर रहा हूं अपने जमाने की अलग पहचान रखने वाली या ए कहूं हमारे अब्बा के जमाने की अभिनेत्री सरदार अख्तर की। जिसकी बातें अक्सर अपने पिता से सुनते-सुनते हुआ बड़ा हुआ बाद में यह किस्से बड़े भाई से भी सुने। हालांकि हमारे चच्चा कम किस्से सुनाते थे, पर उनके पास भी सरदार अख्तर से जुड़े किस्से बहुत थे। तो आईए आज बात करते हैं एक ऐसी अभिनेत्री की जिसे आज की पीढ़ी पहचानती नहीं है। हमारे जमाने के लोभी कम ही जानते हैं।
सरदार अख्तर (1915-1986) एक भारतीय अभिनेत्री थीं जिन्होंने हिंदी और उर्दू फिल्मों में काम किया । उन्होंने अपने अभिनय करियर की शुरूआत उर्दू मंच से की। उनकी शुरूआती फिल्में सरोज मूवीटोन के साथ थीं, जहाँ उन्होंने अधिकांश स्टंट (एक्शन) भूमिकाएँ कीं। वह सोहराब मोदी की पुकार (1939) में रामी धोबन की भूमिका में धोबी के रूप में प्रसिद्ध हुईं । अपने पति की मौत के लिए न्याय की मांग करने वाली एक महिला के रूप में, यह उनके लिए एक महत्वपूर्ण भूमिका थी। फिल्म में उनका गाया एक लोकप्रिय गाना था “काहेको मोहे छेड़े”। उनके करियर को परिभाषित करने वाली भूमिका मेहबूब खान की औरत (1940) में उनके पति द्वारा छोड़ी गई एक “किसान महिला” के रूप में थी, इस भूमिका को बाद में मेहबूब की रीमेक मदर इंडिया में नरगिस ने प्रसिद्ध बनाया ।
उन्होंने 1933-45 के करियर में 50 से अधिक फिल्मों में अभिनय किया। अख्तर ने 1942 में मेहबूब खान से शादी की, जिनसे उनकी मुलाकात तब हुई थी जब उन्होंने उन्हें अली बाबा (1940) में कास्ट किया था। फैशन (1943) और राहत जैसी फिल्में पूरी करने के बाद वह रुक गईं । अख्तर का जन्म 1915 में लाहौर , ब्रिटिश भारत में हुआ था । उन्होंने एक सहायक “नर्तक-कलाकार” के रूप में शुरूआत की और मदन थिएटर्स लिमिटेड द्वारा निर्मित स्टेज नाटकों में अभिनय करके अपने फिल्मी करियर की शुरूआत की । अख्तर ने अपना करियर सरोज मूवीटोन में शुरू किया, जिसे तब “स्टंट” फिल्में कहा जाता था। उन्होंने 1933 में एपी कपूर (आनंद प्रसाद कपूर) द्वारा निर्देशित रूप बसंत , ईद का चांद , मालती माधव जैसी फिल्मों में अभिनय किया। सरोज में उन्होंने कुछ एक्शन फिल्में जेपी आडवाणी (जगतराय पेसुमल आडवाणी) द्वारा निर्देशित कीं, जिनमें गाफिल भी शामिल है। मुसाफिर , जौहरे-शमशीर , शाह बेहराम और तिलासिमी तलवार । 1934 में, उन्होंने कांजीभाई राठौड़ द्वारा निर्देशित होथल पद्मिनी में अभिनय किया।
1935 में, अख्तर ने मदनराय वकील द्वारा निर्देशित दिल्ली एक्सप्रेस में अभिनय किया। 1936 में, उन्होंने केएल सहगल के साथ हास्य-कॉमेडी करोड़पति में अभिनय किया । यह कॉमेडी सहगल की आम तौर पर गंभीर फिल्मों से अलग थी। अख्तर ने विजय भट्ट निर्देशित स्टेट एक्सप्रेस (1938) में एक नकाबपोश बदला लेने वाले की भूमिका निभाई । इसे एक “सफल फिल्म” कहा गया, जो बॉक्स आॅफिस पर अच्छा प्रदर्शन कर रही थी। मुख्य आकर्षण एक “प्रदर्शनकारी गोरिल्ला” और सरदार अख्तर के गाने और प्रदर्शन था। राजाध्यक्ष और विलेमेन ने इसे भट्ट की “सर्वश्रेष्ठ स्टंट फिल्मों” में से एक बताया, जो आम तौर पर पौराणिक फिल्में बनाते थे। 1939 में, सोहराब मोदी की पुकार में धोबी-महिला रामी धोबन की भूमिका के लिए सरदार अख्तर को उनके प्राकृतिक रूप के कारण चुना गया था। महारानी नूरजहाँ द्वारा चलाये गये तीर से उनके पति की आकस्मिक मृत्यु हो गयी। रामी ने सम्राट जहांगीर से न्याय की मांग करते हुए उनके सिद्धांत “जीवन के बदले जीवन” का आह्वान किया। अख्तर की भूमिका को जनता और आलोचकों द्वारा सराहा गया; यह उनके करियर का एक महत्वपूर्ण मोड़ था – स्टंट भूमिकाएं करने से लेकर बड़े प्रोडक्शन सोशल तक। 1940 में अख्तर ने अली बाबा में काम किया । फिल्म का निर्देशन मेहबूब खान ने किया था, जिससे अख्तर कुछ समय से मिलने की कोशिश कर रहे थे। इसमें सुरेंद्र और वहीदन बाई सह-कलाकार थे और यह व्यावसायिक रूप से सफल रही। अली बाबा के निर्माण के दौरान महबूब और अख्तर के बीच रिश्ता शुरू हुआ और 1942 में दोनों ने शादी कर ली। नेशनल स्टूडियोज के लिए महबूब खान द्वारा निर्देशित औरत (1940) को “हिंदी सिनेमा के सर्वश्रेष्ठ क्लासिक्स में से एक” कहा जाता है। “मदर इंडिया के शक्तिशाली पूर्ववर्ती” के रूप में वर्णित, भूमिका ने अख्तर की अभिनय क्षमता को पूरी तरह से प्रदर्शित किया, और उनकी “माँ की छवि की व्याख्या” की सराहना की गई। अख्तर ने इसे अपना पसंदीदा फिल्म प्रदर्शन बताया। 1940 में पूजा को बाबूराव पटेल ने अपनी समीक्षा में”जबरदस्त सफलता” कहा था। नेशनल स्टूडियो द्वारा निर्मित और एआर कारदार द्वारा निर्देशित, समीक्षा शीर्षक में इसे “कारदार वर्ष की सर्वश्रेष्ठ फिल्म का निर्माण करता है” के रूप में वर्णित किया गया है। वार्नर पिक्चर्स की द ओल्ड मेड (1939)से प्रेरित कहानी , अख्तर और सितारा देवी द्वारा अभिनीत बहनों के बारे में थी । अपनी भूमिका को ईमानदारी से निभाने के लिए अख्तर की सराहना की गई।
सरदार अख्तर का व्यक्तिगत जीवन
सरदार अख्तर बहार अख्तर की बड़ी बहन थीं, जो एक महत्वाकांक्षी अभिनेत्री भी थीं। एआर कारदार के साथ उनकी फिल्म कातिल कतर में अपनी पहली शुरूआत के दौरान , बहार और कारदार भाग गए। उत्पादन रोक दिया गया और अंतत: बहार ने फिल्मों में काम करना बंद कर दिया। अख्तर की मुलाकात अलीबाबा के निर्माण के दौरान मेहबूब खान से हुई और दोनों एक रिश्ते में आ गए, जो 1942 में उनकी शादी में परिणत हुआ। यह मेहबूब की दूसरी शादी थी। हालाँकि अख्तर ने 1945 के बाद काम करना बंद कर दिया था, जैसा कि महबूब ने कहा था, वह आन (1952), अंदाज और औरत : मदर इंडिया (1957) की रीमेक जैसी फिल्में बनाने के लिए उनकी प्रेरणा थीं। फिल्में देखने की शौकीन, उनके पसंदीदा अभिनेता बेट्टे डेविस , नोर्मा शियरर , विवियन लेह और चार्ल्स बोयर थे ।
न्यूयार्क में दिल का दौरा पड़ने से हुआ था निधन
शायद बातों-बातों में इस बात का जिक्र नहीं किया कि सरदार अख्तर की कोई औलाद नहीं थी। मदर इंडिया के टाइम का बाल कलाकार यानि बचपन बिरजू का रोल करने वाला साजिद खान सौतेला बेटा था। मेहबूब खान की मौत (सन 1964) के बाद न्यूयार्क चली गई थीं। वे जानती थी कि संपत्ति को लेकर विवाद बहुत होगा इतना नहीं, यह खराब स्तर पर जाएगा। वहीं ेसे बैठकर कानूनी लड़ाई और पूरी संपत्ति की बारिश बनी। एक बार जब अख्तर के भतीजे ने अख्तर की वसीयत के संबंध में फर्जी दावे किए तो संपत्ति मुकदमे में चली गई। दशकों पुराना विवाद अभी भी लंबित है। 1970 के दशक में उन्होंने एक बार फिर फिल्म इंडस्ट्री में वापसी कर चरित्र अभिनेत्री के रूप में फिर से शुरूआत की, जब उन्होंने ओपी रल्हन की हलचल (1971) में अभिनय किया। जिसमें कोई खास सफलता नहीं मिल पाई। एक तरह से कहें तो यह पूरी से फ्लाप रहा। इसके बाद सरदार अख्तर की 2 अक्टूबर 1986 को अमेरिका के न्यूयॉर्क शहर में दिल का दौरा पड़ने से मृत्यु हो गई ।
जीवन साथी के रूप बहुत पहले चुन लिया था महबूब खान को
1915 में लाहौर में जन्मी सरदार अख़्तर की एक और बहिन थी बहार। छोटी बहिन बहार ने काफी पहले ही प्रसिद्ध प्रोड्यूसर-डायरेक्टर ए.आर. कारदार से शादी कर ली थी। सरदार की महबूब से शादी हो गई थी। (हमारे अब्बा जान इस रिश्ते को कुछ इस अंदाज में कहा करते थे तो हम लोगों की जुबान पर भी यह लब्ज चढ़ गए हैं।) नतीजे में कारदार और महबूब भी हम जुल्फ हो गए। मतलब वही कि साढ़ू भाई हो गए। या कहें पंजाबी में सांडू भाई बन गए। यह शब्द कहने में अजीब सी आवाज आती है, सो उससे बच रहा था। खैर, फिलहाल तो अब्बा की मेहरबानी से काम चल गया। इस शादी की भी एक बड़ी मजेदार कहानी है। महबूब खान की जीवनी लिखने वाले बन्नी रूबेन ने महबूब खान के खास भरोसे के असिस्टेंट चिमनकांत गांधी के हवाले से बयान की है। महबूब खान के गहरे से गहरे राजों के राजदार थे यह चिमन भाई। आप भी सुन लें उनकी बात। शायद कुछ बातें आपको पता न हो राज बड़े गहरे हैं।
सरदार अख़्तर ने बहुत पहले से महबूब खान को अपने लिए चुन लिया था। इस बात में शक की जरा भी गुंजाइश नहीं। महबूब के साथ काम करते हुए उसकी नजरों में सुर्ख-रू होने के लिए उसने कैमरे के आगे और पीछे जी तोड़ मेहनत का मजाहिरा किया। महबूब खान को रिझाने की उसकी कोशिशों की वजह से मुझे उसके इरादों पर पहले से ही शक होने लगा था कि वो सिर्फ इतने पे रुकने वाली नहीं है। औरतों के मामले में महबूब खान हमेशा से ही जरा फिसलू किस्म के इंसान थे। औरत उनकी कमजोरी थी। इसमें बहुत सारे किस्से और कहनानियां और है। हमारे पिता जी का भी फिल्मों पर बड़ा गहरा वास्ता रहा था। तो उनकी पैनी नजर फिल्मों पर और फिल्मों की पीछे की कहानियों पर खूब बनी रहती थी। हमने अपने वचपन से लेकर जवानी तक उनकी किस्सा गोही अपने दोस्तों के साथ चलती थी तो हम भी कहीं कान लगाकार सुन लेते थे। यही वजह थी जो यह किस्से-कहानियां हमें आज भी याद है। बहरहाल अब बात करते हैं महबूब खान की ही। बात आधे में ही टूट गई थी। उन्होंने छोटे-मोटे डांस वाले किरदार करने वाली एक्ट्रेस सरदार अख़्तर को रातों-रात उन्होंने अपनी फिल्म अलीबाबा (40) की हीरोइन बना डाला। सरदार अख़्तर और महबूब खान की इस प्रेम कहानी में एक नया मोड़ तब आया जब फिल्म औरत की शूटिंग के दौरान निम्मी की मौसी और वहीदन बाई की बहिन ज्योति ने भी महबूब पर डोरे डालने शुरू कर दिए थे। फिल्म में सरदार अख़्तर, मां वाला मुख्य किरदार निभा रही थीं तो ज्योति बड़े बेटे बने सुरेंद्र नाथ की माशूका का।
सरदार अख़्तर और ज्योति के बीच चली रकाबत और झगड़े की दास्तान सुरेंद्र ने मोहन बावा के सामने इस तरह बयान की थी। मुझे बखूबी याद है कि औरत के बनने के दौरान महबूब की मंजूर-ए-नजर बन चुकी सरदार अख़्तर के सामने ही ज्योति महबूब को लुभाने के लिए हर तरह की हरकतें (अपनी अदाएं ) करने पर उतारू हो गई थी। दिल फैंक महबूब खान को भी बड़ा मजा आ रहा था। टी ब्रेक और लंच के दौरान दोनों औरतों को अपने दाएं-बाएं बिठाकर दोनों से खूब फ्लर्ट करता रहता। इस बात को लेकर सरदार अख़्तर बेहद खफा थी। उसे नजरों के सामने ही अपने सपनों का महल टूटता नजर आ रहा था। वो किसी हाल में ज्योति को बरदाश्त करने को तैयार न थी। लिहाजा उसने एक सोची समझी चाल के तहत महबूब खान के कान भरे कि ज्योति अच्छे किरदार की औरत नहीं है और न ही किसी तौर उनके लायक है। रात भर उसके घर पर मर्दों का आना-जाना लगा रहता है। महबूब खान भी इस हकीकत से वाकिफ थे लेकिन कानों में पड़ी सरदार अख़्तर की बातें दिल तक पहुंच चुकी थीं, लिहाजा आंख का काम भी दिल के हवाले कर दिया था। अब उसे घर के दरवाजे तक पहुंचने वाली हर सूरत में अपने रकीब नजर आने लगे थे। इसी क्रोध में उबलते हुए उसने घर में दाखिल होते ही ज्योति को तमाचे जड़ दिए और फिल्मी अंदाज में अपनी सूरत मत दिखाना टाइप डायलाग मार दिया। फिर धीरे से एक दिन सरदार अख़्तर से शादी कर ली। एक बात जरूर कहनी होगी कि सरदार अख़्तर ने शादी के बाद बड़े आला जर्फ का सुबूत दिया। महबूब खान की बड़ी खिदमत की। उसकी जिंदगी में खूबसूरत बदलाव किए और साया बनकर साथ रहते हुए फिल्म मेकिंग के दौरान भी बड़ी मदद की। महबूब बीमार हुए तो खूब तीमारदारी की। जिस तरह कि जिस तरह इन दिनों सायरा बानो दिलीप कुमार की सेवा में लगी रहती थी।