योगीराज योगेश
मध्य प्रदेश में बुदनी और विजयपुर में उपचुनाव सम्पन्न हो गए। इसमें बुदनी में भारतीय जनता पार्टी को जीत मिली और विजयपुर में हार। वैसे इस हार से प्रचंड बहुमत वाली राज्य सरकार की सेहत पर ज़रा भी असर पड़ने वाला नहीं है, लेकिन विजयपुर की हार के बाद पार्टी के कद्दावर नेताओं के बीच जो बयानबाजी हुई उससे खुलकर गुटबाजी सामने आ गई।
प्रदेश भाजपा संगठन के पदाधिकारियों द्वारा हार के लिए केंद्रीय मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया को जिम्मेदार ठहराने की कोशिश की गई। कहा जा रहा है कि श्री सिंधिया प्रचार के लिए जाते तो परिणाम शायद अलग होता। उधर श्री सिंधिया से जब पूछा गया तो उन्होंने कहा कि मुझे बुलाया ही नहीं गया। वैसे देखा जाए तो बात यहीं खत्म हो जाती लेकिन प्रदेश महामंत्री भगवान दास सबनानी ने यह बयान देकर मामले को तूल दे दिया कि श्री सिंधिया को न केवल बुलाया गया था बल्कि वे हमारे स्टार प्रचारक थे। संगठन चाहता तो यह कहकर भी बात समाप्त कर सकता था कि श्री सिंधिया महाराष्ट्र चुनाव प्रचार में व्यस्त होने की वजह से विजयपुर में प्रचार के लिए नहीं आ पाए। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। ऐसे में अब यह कहा जा रहा है कि पूर्व केंद्रीय मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर के इशारे पर सिंधिया को जानबूझकर टारगेट किया गया। क्योंकि विजयपुर चुनाव प्रचार की कमान श्री तोमर के हाथ में ही थी। यही नहीं विजयपुर से प्रत्याशी और वन मंत्री रामनिवास रावत को भाजपा में लाने वाले भी श्री तोमर ही थे। लेकिन श्री तोमर के समर्थकों के क्षेत्र में ही भाजपा को बुरी तरह हार का सामना करना पड़ा। अब तो श्री रावत के समर्थक भी खुलकर कह रहे हैं कि स्थानीय नेताओं ने साथ नहीं दिया।
पूरी सरकार लगी रही फिर भी मंत्री कैसे चुनाव हार गए :
राजनीतिक क्षेत्र में यह भी चर्चा है कि श्री सिंधिया को यदि छोड़ दें तो विजयपुर में चुनाव प्रचार के लिए पूरी सरकार लगी रही। मुख्यमंत्री मोहन यादव समेत प्रदेश अध्यक्ष विष्णु दत्त शर्मा और कई पदाधिकारी यहां डेरा डाले रहे। इसके बावजूद राज्य सरकार के मंत्री श्री रावत चुनाव हार गए। यह प्रदेश भाजपा के लिए चिंता की बात है। आखिर वह पार्टी जो संगठन के दम पर हर चुनाव जीतने का दावा करती है और निकाय स्तर तक की जीत का श्रेय संगठन को देती है, उसका संगठन विजयपुर में कैसे फेल हो गया। सवाल यह भी है कि यदि श्री सिंधिया प्रदेश में कहीं चुनाव प्रचार के लिए नहीं जाएंगे तो क्या भाजपा हर चुनाव हारेगी? इस पर पार्टी संगठन को गंभीरता से विचार करना चाहिए।
क्या बुदनी में भी संगठन फेल हुआ :
विजयपुर के साथ-साथ बुदनी में भी उपचुनाव हुए। विगत चुनाव में यहां पूर्व मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने एक लाख से ज्यादा वोटो से जीत हासिल की थी। इस चुनाव में उनके सिपहसालार रमाकांत भार्गव को टिकट दिया गया लेकिन वह जैसे- तैसे करीब 12000 वोट से ही जीत पाए। यानी बुदनी की जीत की लीड करीब 90000 घट गई। वह भी तब जब श्री चौहान ने खुद लोगों से श्री भार्गव को जिताने की बारंबार अपील की। यहां भी भाजपा संगठन पूरी तरह नदारद ही रहा।
रावत ने भी सिंधिया को बुलाने के लिए दबाव नहीं बनाया :
कहा यह भी जा रहा है कि नरेंद्र सिंह तोमर और अपने कार्य व्यवहार की दम पर श्री रावत जीत को लेकर पूरी तरह आश्वस्त थे, क्योंकि वह पिछले 6 बार से यहां से चुनाव जीत रहे थे और प्रदेश सरकार में मंत्री का ओहदा उनके पास था ही। यही वजह रही कि सिंधिया समर्थक नेता महाराज को बुलाने की अपील करते रहे लेकिन श्री रावत ने कोई खास तवज्जो नहीं दी। लिहाजा कुछ नेता साइलेंट हो गए।
आदिवासियों की नाराजगी को हैंडल नहीं कर पाया संगठन:
चुनाव के दौरान आदिवासियों पर जो गोलीबारी और हिंसा की घटनाएं हुई उसको पार्टी संगठन ठीक से डील नहीं कर पाया। लिहाजा आदिवासी वोट भाजपा के विरोध में चले गए। आदिवासी बहुल इलाकों से भाजपा को बहुत कम वोट मिले। आदिवासी हितों का ढिंढोरा पीटने वाली भाजपा के लिए यह चिंता की बात है।विजयपुर की हार ने इस बात पर भी प्रश्न चिन्ह लगा दिया है कि क्या आदिवासी वोट बैंक बीजेपी से दूर होता जा रहा है।
यह सबक भी लेना चाहिए:
इसके अलावा भाजपा को यह सबक भी लेना चाहिए कि जो नेता दूसरी पार्टी से भारतीय जनता पार्टी में आ रहे हैं, उनको एकदम से बड़े पदों पर नवाजा जाना कहां तक उचित है? क्योंकि इससे पार्टी के समर्पित कार्यकर्ताओं में निराशा और उपेक्षा की भावना आती है। श्री रावत के मामले में यही हुआ। वे अपनी शर्तों पर बीजेपी में आए। शर्तों के मुताबिक ही उन्हें मंत्री पद दिया गया। इससे अच्छा मैसेज नहीं गया। पार्टी में ही इसका विरोध हो गया।अजय बिश्नोई जैसे वरिष्ठ विधायकों ने खुलकर कहा कि पार्टी के समर्पित कार्यकर्ताओं की उपेक्षा की जा रही है। अंत में पार्टी संगठन को नए सिरे से मजबूत करने की जरूरत है ताकि प्रत्याशी कोई भी हो यदि संगठन मजबूत है तो उसकी जीत मिलनी ही चाहिए।
(लेखक राजनीतिक विश्लेषक हैं)।