शशी कुमार केसवानी

पुणे। हमें याद पड़ रहा है कि सन 90 से पहले एक दुनिया अलग थी। 90 के बाद दुनिया में बदलाव का दौर आया और दुनिया बदलती चली गई। तब तक यह कहावत चलती थी कि आफिस का काम आॅफिस में करके बाकी का समय परिवार के साथ गुजारा जाए, जिससे अगले दिन आॅफिस में जोश के साथ काम किया जाए। पर मल्टीनेशन कंपनियों ने भारत के बच्चों में काम के प्रति पागलपन या कहें तो जुनून ऐसा भरा कि परिवार और रिश्ते नाते सभी टूटते चले गए। ऐसा ही कुछ एना सेबेस्टियन पेरायिल के साथ भी हुआ। ईवाय कंपनी में एग्जिक्यूटिव के पद पर काम कर रही एना की वर्कलोड के कारण मौत हो गई। पर ऐसा पहली बार नहीं हुआ है। वर्कलोड के चक्कर में हजारों बच्चों की जान जा चुकी हैं। जिसका कहीं जिक्र तक नहीं हुआ। कंपनियां इस तरह से अहिंसात्मक हिंसा करती है कि बच्चों को सम­ा में ही नहीं आता कि वह क्या करें। भविष्य के डर से अपने माता को भी यह बातें नहीं बता पातें। अगर आज समाज और कंपनियां नहीं जागी तो आने वाले समय में ऐसी अनेकों मौतें होती रहेंगी, जिसका कहीं जिक्र तक नहीं होगा। यहां पर चौंकाने वाली बात यह है कि ऐना की मौत पर ईवाय कंपनी के चेयरमैन ने ऐसा बयान दिया है जो हैरानी भरा है। हमें सम­ा में नहीं आता कि ऐसा कौन सा काम रहता है, जिसे पूरा करने के लिए 24 घंटे भी कम पड़ते हैं। हमें यह लगता है कि तीन लोगों का काम एक व्यक्ति से ही कराया जाता है। जिसके कारण ऐसी परिस्थियां पैदा होती हैं।

राजीव मेमानी ने कहा कि ‘कंपनी में लगभग 1 लाख एम्प्लॉई हैं। इसमें कोई शक नहीं कि सभी को मेहनत से काम करना पड़ता है। एना ने हमारे साथ सिर्फ 4 महीने काम किया। उसे भी उतना ही काम अलॉट किया गया जितना किसी और को। हम ये नहीं मानते कि काम के प्रेशर की वजह से एना की जान गई।’ दरअसल, कुछ दिन पहले कंपनी की एग्जिक्यूटिव एना सेबेस्टियन पेरायिल की मौत हो गई थी। डॉक्टर्स का कहना था कि एना न ठीक से सो रही थी, न समय से खाना खा रही थी, जिसकी वजह से उसकी जान चली गई। एना की मौत के बाद से सोशल मीडिया पर कंपनियों के टॉक्सिक वर्क कल्चर पर सवाल उठने शुरू हो गए थे। एना की मां अनीता आॅगस्टिन ने चेयरमैन राजीव मेमानी को लेटर लिखकर अपनी कंपनी के टॉक्सिक वर्क कल्चर में सुधार करने को कहा था। इसका जवाब देते हुए राजीव ने एक मीडिया हाउस को दिए बयान में कहा कि एना की मौत का वर्क प्रेशर से कोई लेना-देना नहीं है।

‘रात को भी काम करना होगा, हम सब करते हैं’ एना ने 4 महीने पहले 19 मार्च 2024 को कंपनी में बतौर एग्जिक्यूटिव ज्वाइन किया था। 6 जुलाई को जब एना के माता-पिता उससे मिलने पुणे आए तो उसने सीने में दर्द की शिकायत की थी। डॉक्टर को दिखाने पर पता चला कि एना न ठीक से सो रही थी, न समय से खाना खा रही थी। उसे हर समय आॅफिस के काम की फिक्र थी। अस्पताल से जांच करवाकर भी एना सीधे आॅफिस पहुंची। कोच्चि से पुणे आए माता-पिता के लिए भी समय नहीं था। रात को देर को लौटी और सुबह फिर जल्दी चली गई। हद से ज्यादा स्ट्रेस, एंग्जायटी और फिजिकल-मेंटल प्रेशर के चलते 20 जुलाई को एना की मौत हो गई। जिस कंपनी के लिए काम करते हुए एना की जान चली गई, उस कंपनी से कोई भी उसके लास्ट रिचुअल्स (ईसाई अंतिम संस्कार) में शामिल नहीं हुआ।

एना की मां अनीता आॅगस्टिन का कहना है कि उनकी बेटी की मौत एक सबक है। एक्सट्रीम वर्क कंडीशंस में काम कर रही एना एकलौती नहीं है। एना से उसके मैनेजर अक्सर कहते थे कि आधी रात को भी काम करना होगा, हम सब करते हैं। कंपनियों में काम को लेकर संजीदगी पागलपन की हद तक बढ़ना एक खतरनाक संकेत है। ऐसे में उन्होंने ईवाय के कंट्री चेयरमैन राजीव मेमानी को एक इमोशनल चिट्ठी लिखी।

डियर राजीव, मैं एक मां हूं जिसने अपनी प्यारी बेटी को खो दिया है। ये चिट्ठी लिखते हुए मेरा दिल भारी है और आत्मा चूर-चूर है। मगर मुझे लगता है कि ऐसा करना जरूरी है ताकि कोई और परिवार उस पीड़ा से न गुजरे जिससे मैं गुजरी हूं। मार्च 2024 की बात है। एना ने नवंबर 23 का उअ एग्जाम क्लियर किया और पुणे में ए कंपनी ज्वाइन की। ये उसके लिए कोई सपना पूरा होने जैसा मौका था। इतनी बड़ी और नामी कंपनी में नौकरी पाकर वो खुशी से पागल थी। मगर 4 महीने बाद ही, 20 जुलाई को जब मुझे उसकी मौत की खबर मिली, तो मेरे लिए वक्त जैसे वहीं रुक गया। मेरी बच्ची महज 26 साल की थी। ये भला कोई मरने की उम्र होती है।

एना बचपन से ही हर चीज में अव्वल थी। पढ़ाई हो या खेलकूद। ए में काम करते हुए उसने अपना सब-कुछ दे दिया। उसे जो काम सौंपा गया, उसे पूरा किया। हालांकि, नई जगह, काम का प्रेशर और कभी न खत्म होने वाले काम ने उसपर मेंटली, इमोशनली और फिजिकली असर डालना शुरू कर दिया। उसे एंग्जायटी और स्ट्रेस होने लगा। सोने के लिए वक्त ही नहीं मिल रहा था। वो तब भी कमर तोड़ मेहनत करती रही। उसे तो यही पता था कि मेहनत से कामयाबी मिलती है। 6 जुलाई की बात है। मैं और मेरे पति एना का कॉलेज कॉन्वोकेशन अटेंड करने पुणे पहुंचे थी। वो रात करीब 1 बजे अपने पीजी पहुंची। उसने बताया कि लगभग एक सप्ताह से उसे सीने में दर्द है। हम उसे पुणे के ही एक अस्पताल लेकर गए।

उसका ईसीजी तो ठीक था, पर डॉक्टर ने बताया कि वो ठीक से सो नहीं रही है और खाना भी समय पर नहीं खा रही। इसके बावजूद उसने हमसे कहा कि आॅफिस के लिए लेट नहीं हो सकती, और अस्पताल से सीधे आॅफिस चली गई। उस रात भी देर से ही लौटी। 7 जुलाई को उसका कॉन्वोकेशन था। उस दिन भी वो सुबह जल्दी उठकर दोपहर तक घर से काम करती रही। इसकी वजह से हम कॉन्वोकेशन भी देरी से पहुंचे। मेरी बेटी का सपना था अपनी पेरेंट्स को अपने कमाए पैसों से अपने कॉन्वोकेशन लेकर जाना। उसने हमारी फ्लाइट टिकट्स बुक कीं और हम कॉन्वोकेशन पहुंचे। ये बताते हुए मेरा दिल भरा आ रहा है कि अपने बेटी के साथ बिताए वो आखिरी दो दिन भी वो काम के प्रेशर के चलते परेशान थी।

जब एना ने अपनी टीम जॉइन की थी, उसे पता चला था कि इससे पहले कई लोग वर्क प्रेशर के चलते नौकरी छोड़ चुके हैं। मगर मैनेजर ने उससे कहा, ‘एना, तुम्हें डट कर काम करना है और टीम के बारे में सबकी सोच बदलनी है।’ मेरी बेटी को तब अंदाजा भी नहीं था कि इसकी कीमत उसे अपनी जान देकर चुकानी पड़ेगी। उसके मैनेजर अक्सर क्रिकेट मैच के समय मीटिंग रीशेड्यूल कर देते थे जिसके चलते उसे देर रात तक काम करना पड़ता था। एक आॅफिस पार्टी में एक सीनियर ने उससे मजाक में कहा था कि जिस मैनेजर के अंडर वो काम कर रही है, वहां काम करना आसान नहीं है। वो बात आखिरकार सच साबित हुई।

एना हमें अक्सर बताती थी कि मैनेजर उसे काम पर काम दिया करते थे। वो मना करती तो उस पर प्रेशर बनाया जाता। वो लगभग हर रात देर तक काम करती। छुट्टी के दिनों में भी काम करती। एक बार तो उसके मैनेजर ने आधी रात को फोन कर उसे एक काम थमा दिया जो सुबह तक पूरा होना था। न उसे आराम करने का समय मिल रहा था न कुछ सोचने समझने का। जब उसने अपनी बात मैनेजर के सामने रखी तो उसने जवाब दिया, ‘तुम्हे रात को भी काम करना पड़ेगा, हम सब करते हैं।’ एना रात को थक का चूर होकर रूम पर लौटती थी। कई बार बगैर कपड़े बदले या कुछ खाए सीधे बिस्तर पर गिरकर सो जाती थी। तब भी उसे और काम के मैसेज आते रहते थे। वो हर काम समय पर पूरा करने के लिए हद से ज्यादा काम कर रही थी। हमने उससे कई बार कहा कि काम छोड़ दे। मगर वो एक फाइटर थी, आखिर तक हार नहीं मानती थी।

एना कभी अपने मैनेजर पर उंगली नहीं उठाती। मेरी बेटी जरूरत से ज्यादा शालीन थी। पर मैं खामोश नहीं रह सकती। नए लोगों पर इतना काम डालना, उनसे रात-दिन काम कराना, ये कतई सही नहीं है। मेरी बेटी ने अभी अपना घर छोड़ा था, अपने परिवार से दूर आई थी। जगह, भाषा, नौकरी, सब उसके लिए नए थे। वो एडजस्ट करने की पूरी कोशिश कर रही थी। मैनेजर ने उसके नए होने का पूरा फायदा उठाया और उसपर बेतरतीब काम लाद दिया।

ये किसी मैनेजर या टीम की नहीं, पूरे सिस्टम की गड़बड़ी है। कभी न खत्म होने वाली डिमांड, ऊटपटांग डेडलाइंस और एक्सट्रीम प्रेशर ने एक लड़की की जान ले ली, जो जिंदगी में बहुत कुछ कर सकती थी। एना अभी जवान थी, अपना करियर शुरू ही किया था। उसके जैसे और बच्चों की तरह उसे भी बाउंड्री तय करना नहीं आता था। उसे नहीं पता था कि कब और कैसे ‘ना’ कहना है। वो खुद को साबित करना चाहती थी, इसके लिए खुद को पुश कर रही थी। और आज वो हमारे बीच ही नहीं है। काश मैं उसे बचा पाती। उसे बता पाती कि उसकी सेहत और खुशी ही हमारे किए सबसे जरूरी है। पर अब बहुत देर हो गई है।

राजीव, मैं आपको ये इसलिए बता रही हूं, क्योंकि मुझे यकीन है कि ए अपने कर्मचारियों की मेंटल, फिजिकल हेल्थ को लेकर भी संजीदा है। एना का उदाहरण ये बताता है कि दफ्तरों में हद से ज्यादा काम करने का कल्चर कितना खतरनाक है। ये सिर्फ मेरी बेटी की बात नहीं है। ये हर नई उम्र के प्रोफेशनल्स की बात है जिनके सपने काम के बोझ के नीचे दब रहे हैं। मैंने ए के ह्यूमन राइट्स स्टेटमेंट को अच्छी तरह पढ़ा। इस पर आपके दस्तखत भी हैं। स्टेटमेंट में लिखी बातें और जो मेरी बेटी ने झेला उसमें जमीन आसमान का अंतर है। ए ऐसे खोखले उसूलों पर कैसे काम कर सकता है

एना की मौत ए के लिए एक सबक होनी चाहिए। आपको फौरन अपने वर्क कल्चर में सुधार करने और अपने काम करने वालों की सेहत पर ध्यान देने की जरूरत है। आपको ऐसा माहौल बनाना चाहिए जहां लोग अपनी बात कहने में डरें नहीं। जहां मैनेजर वर्कलोड कम करने में मदद करें। जहां प्रोडक्टिविटी के लिए लोगों को जान दांव पर लगाकर काम न करना पड़े। ईवाय में से कोई भी एना के फ्यूनरल (ईसाई अंतिम संस्कार) में शामिल नहीं हुआ। जिस कंपनी के लिए एना ने अपना सब कुछ दे दिया, वहां से किसी के भी फ्यूनरल तक में शामिल न होने से मैं बेहद दुखी हूं। एना ये डिजर्व नहीं करती थी। न ही कंपनी के बाकी लोग करते हैं जो ऐसी वर्किग कंडीशंस में काम कर रहे हैं।

मेरे दिल में सिर्फ अपनी बेटी को खोने का दुख नहीं है। दुख इस बात का भी है कि जिन लोगों को उसे गाइडेंस और सपोर्ट देना था, उनमें से किसी ने भी संवेदना तक नहीं दिखाई। एना के फ्यूनरल के बाद मैंने उसके मैनेजर से बात करने की कोशिश की। मगर कोई जवाब नहीं मिला। कोई कंपनी जो ह्यूमन राइट्स और वैल्यूज की बात करती है, तो अपने ही एम्प्लॉई के आखिरी समय में मौजूद कैसे नहीं थी एक सीए बनने के लिए कड़ी मेहनत और लगन की जरूरत होती है। ये मेहनत सिर्फ बच्चों की नहीं उनके माता-पिता की भी होती है। मेरी बेटी की सालों की मेहनत महज 4 महीने में ए के संवेदनहीन रवैये की भेंट चढ़ गई।

उम्मीद करती हूं कि इस आप इस चिट्ठी की गंभीरता को समझेंगे। मुझे नहीं पता कोई उस मां के दर्द को समझेगा जिसने अपनी जवान बेटी को दफनाया हो। वो बेटी जिसे अपनी बांहों में खिलाया, खेलते, रोते, बड़े होते देखा। मुझे उम्मीद है अब कोई बदलाव आएगा। ताकि कोई और परिवार वो दर्द न झेले जो मैंने झेला। मेरी एना अब हमारे बीच नहीं है, मगर उसकी कहानी जरूर कोई बदलाव ला सकती है।

Shashi Kumar Keswani

Editor in Chief, THE INFORMATIVE OBSERVER