शशी कुमार केसवानी
दुनिया में भाईयों में अक्सर प्यार होता है। लेकिन कुछ भाई ऐसे रहते है। जिनमें बहुत प्यार रहता है। मैं उन खुशनसीबों में से हूं जिन्हें अनंत प्यार अपने बड़े भाई से मिला। बहुत डांट भी मिली। नाराजगी भी मिली, लेकिन इन सबके पीछे छुपा हुआ बेशुमार प्यार ही था। मेरे माता-पिता बताते थे कि जब मैं पैदा हुआ था तब भाई मेरे को अपने हाथों में लेकर ही घूमा करते थे। उन हाथों की नरमी मेरे को आज भी महसूस होती है। मेरे बड़े भाई राजकुमार केसवानी दुनिया के लिए पत्रकार, लेखक,कवि, फिल्म इतिहासकार थे पर मेरे जीवन में तो बचपन से लेकर आज तक हम दोनों एक ही उस्ताद के चेले रहे। उस्ताद हमारे पिताजी ही थे। उनका अनंत प्रेम अपने आपसे अलग ही नहीं कर पाता था। जब धीरे-धीरे बड़े होने लगे तो क्रिकेट खेलने से लेकर सभी खेलों को सिखाने की कोशिश करते रहे। चाहे वो साइकिल या स्कूटर चलाना हो सब समय आने पर सब सिखाते रहे।
जरा सी गलती पर नाराज भी हो जाते थे। बस थोड़ी देर में उससे कई गुना ज्यादा प्यार भी कर देते थे। कुछ समय बाद ऐसा समय आया जब भाइयों में से कब दोस्त बन गए पता ही नहीं चला। मैं सारी बातें अपनी जरूर बता देता था कई बार शाबाशी मिलती थी तो कई बार नाराजगी भी मिलती थी। नाराजगी इसलिए होती थी कि मैं कही गलती न कर बैठूं। हम अक्सर होटलों में खाने के लिए जाया करते थे दोनों का स्वभाव चटोरेपन वाला था। कई होटल वाले आश्चर्य करते थे कि दो भाई अक्सर होटल में आकर बहुत देर तक खाते रहते है और बातें करते रहते है ठहाको के साथ ऐसा शायद उन्हें कम देखने को मिलता था। भाई साहब तो अक्सर फोन कर देते थे, कि जल्दी आ जाओ तुम्हारी पसंद का कुछ बनाया है। मैं भी दीवाने टाइप का आदमी जो ठहरा तो तुरंत पहुंच जाता था और साथ-साथ खाते थे, और घंटों बाते बहस करते रहते थे। लेकिन आज पीछे मुड़कर देखता हूँ तो जीवन में जैसे सब कुछ खाली हो गया है। भाई साहब का अचानक यूं जाना दिल में एक वीरानगी और अकेलापन छोड़ गया है। जिसे शायद मैं शब्दों में कभी भी जाहिर नहीं कर पाउंगा जब अस्पताल में थे जब मेरा हाथ वो पकड़ते थे तो एक अलग ताकत महसूस होती थी ऐसा लगता था मेरे सिर पर अभी साया है और ये साया बना रहेगा। लेकिन भगवान को शायद ये मंजूर न था।
इसी वजह से केसवानी परिवार अपने आप में एक अकेलापन महसूस कर रहा है। न केवल केसवानी परिवार उनके कई चाहने वाले मित्र, लाखों प्रशंसक भी ऐसा ही महसूस कर रहे है। मुझे याद आता है कि उनके जीने का एक अलग अंदाज था। अपनी हर किताब को ऐसे रखते थे जैसे छोटे बच्चे को संभालकर पाला जाता है। सालों पुरानी गानों की चौपड़ियां भी ऐसे रखते थे। जैसे कोई जौहरी हीरे जवाहरात रखता हो। किताब के छूने पर वो अक्सर नाराज होते थे और मेरा पेट बिना डांट खाए भरता नहीं था। तो जानबूझकर किसी किताब को छेड़ता जरूर था। डांट भी पड़ती, मजा भी आता था। ये बात वो भी जानते थे कि ये सब जानबूझकर ही करता है। दोनों भाई एक-दूसरे के बिना रह भी नहीं पाते भाई साहब गुस्से में कहते थे जबरदस्ती मेरी किताबों को क्यों छेड़ते हो। तो मैं हंसते हुए कहता था भाई किताबें है या लड़कियां जो मैं छेड़ रहा हूं तो वो और नाराज होते थे। वहीं कहते यार बहुत दीवाने टाइप के आदमी हो बड़ी मुश्किल हो जाती है कुछ कह भी नहीं सकता और चुप रह भी नहीं सकता। पर ये बात समझने में मुझे सालों लग गए कि उनका प्यार उन किताबों के लिए किसी महबूबा से कम नहीं था।
भाई एक व्यक्ति न होकर अपने आप में एक यूनिवर्सिटी ही थे जिनसे अनंत सीखने को मिलता था। मुझे ही नहीं बल्कि पूरे परिवार को समाज व देश को लेकिन अब जो जीवन का खालीपन है अब न कोई सिखाने वाला है न बहुत कुछ सीखने की इच्छा रह गई है। पर हां भाई के कुछ काम अधूरे रह गए जो शायद कोई नहीं कर पाएगा हालांकि कुछ लोग उनकी नकल जरूर करने लगे है पर देखने वाली वो आंख शायद किसी और के पास है ही नहीं जो हम भाईयों को पिता से विरासत में मिली थी। असल में हमारे पिता दादा लक्ष्मणदास केसवानी ने ही हमें वो बारीक नजर सिखाई थी। वो चीजों को अलग नजरिए से देखने का अंदाज सिखाया था। जिस तरह से दादा हर चीज को पांच तरह से सोचते थे या देखते थे हमें वो एक अनूठा अंदाज देखने और सोचने का सिखा गए थे। हालांकि कुछ लोगों को लगता था भाई का स्वभाव गलत चीज पर नाराजगी व्यक्त करते थे तो शायद लोगों को उनका स्वभाव सख्त लगाता था असल में वो अखरोट थे। ऊपर से कड़क अंदर से इतने नरम थे । शायद शायर बशीरबद्र ने भाई को सोचकर ही लिखा है।
पत्थर मुझे कहता है मिरा चाहने वाला
मैं मोम हूँ उसने मुझे छूकर नहीं देखा
दुनिया में कुछ शख्स ऐसे आते है जो दुनिया को अपना करके चले जाते है। पीछे एक लंबा इतिहास छोड़ जाते है। जिसे दुनिया याद करती रहती है और उन पर चर्चा करती रहती है। ऐसे ही मेरे भाई राजकुमार अपने अंतिम समय में मेरे हाथों को पकड़े इस दुनिया से जुदा हो गए, लेकिन उनके हाथो ंकी नरमी दिल और दिमाग में कई बातें बसी। आज तीन साल बाद भी महसूस कर सकता हूं। हालांकि उनके बिना जीवन में एक खालीपन आ गया है पर उनके दिखाए रास्ते पर चलने के अलावा दूसरा कोई रास्ता भी नहीं है।
मनाने रूठने के खेल में हम
बिछड़ जाएँगे ये सोचा नहीं था
राजकुमार भाई हमेशा रिश्तों को बहुत अहमियत देते थे। जन्म के जो रिश्ते हैं उनको तो ऐसे संजो कर रखते थे, जिस तरह से खून की रबानियों में रिश्ते बसते हैं वैसे ही अपनी एक किताब प्रथम कॉपी अनंत प्यार के साथ दादा और हमें भेंट की थी, जिसमें उन्होंने रिश्तों की अहमियत को दर्शाते हुए लिखा था।
बेहतर रिपोर्टिंग के लिए मिली अंतरराष्ट्रीय पहचान
वरिष्ठ फिल्म इतिहासकार, पत्रकार राजकुमार केसवानी की द्वितीय पुण्यतिथि 21 मई 2024 को है। राजकुमार केसवानी को 1984 में हुए भोपाल गैस त्रासदी की उम्दा रिपोर्टिंग के लिए भी जाना जाता है। यूनियन कार्बाइड के प्लांट में गैस लीक से संबंधित इस हादसे ने कई लोगों की जान ले ली थी। इस गैस हादसे के प्रमुख गवाहों में राजकुमार केसवानी का भी नाम शुमार रहा। उन्हें इस पूरे हादसे से पहले और हादसे के बाद की रिपोर्टिंग के लिए अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पहचान मिली और उन्हें इसके लिए अंतर्राष्ट्रीय स्तर के अवॉर्ड्स से भी नवाजा गया था। दुनियाभर के चर्चित पत्रकारों के अनुभवों पर आधारित किताब ‘ब्रेकिंग द बिग स्टोरीज’ के लिए राजकुमार केसवानी ने भोपाल गैस त्रासदी के कवरेज के अपने अनुभवों को एक अध्याय एक तौर पर भी लिखा था। 71 साल के राजकुमार केसवानी लम्बे समय तक एनडीटीवी के विशेष संवाददाता व अन्य कई पदों पर कार्य करते रहे।
दस सालों के लंबे समय में एनडीटीवी के लिए बहुत सी खास स्टोरियां कवर की। जिसकी बराबरी आज के रिपोर्टर कहीं दूर तक करते हुए नजर भी नहीं आते। अपनी पैनी नजर और जागरूकता की वजह से उन चीजों पर हमेशा नजर रखते थे जिन चीजों पर आम पत्रकारों का कभी ध्यान भी नहीं जाता था। ‘दैनिक भास्कर’ इंदौर के संपादक के रूप में नो निगेटिव न्यूज की शुरुआत करने वाले राजकुमार केसवानी ने भास्कर का स्वरूप ही बदलकर रख दिया था। अपने साथियों व सहयोगियों को हमेशा इस तरह से अपने साथ जोड़े रहते थे, जैसे साथ मिलकर ही काम करना है। पर गलती हो जाने पर बम की तरह फट पड़ते थे। पर वहीं कुछ देर बाद प्यार का एक सैलाब अपने साथ लेकर आ जाते थे। बस उनसे गलत बात और गलत काम बर्दाश्त नहीं हो पाता था। वो हमेशा चाहते थे उनके सभी सहयोगी उनसे बेहतर काम करें। यहीं कारण है कि आज उन्हें वो सब लोग उसी प्यार और अपने पन की वजह से यादों में बसाए रहते है। कहीं भी पत्रकारिता की चर्चा होती है तो उनका नाम जरूर आता है।
दैनिक भास्कर से रिटायर होने के बाद भी अखबार के एमडी सुधीर अग्रवाल के विशेष आग्रह पर कालम ‘आपस की बात’ लिखते रहे। जिसे अंतिम दिन तक लिखते रहे। 1960 में रिलीज हुई बेहद चर्चित फिल्म ‘मुगल-ए-आजम’ पर आधारित उनकी किताब ‘दास्तां-ए-मुगल-ए-आजम’ काफी चर्चित रही। साथ ही साथ बेस्ट सेलर की श्रेणी में आज भी चल रही है। कुछ साल पहले मशहूर शायर रूमी पर ‘जहां-ए-रूमी’ नामक किताब भी लिखी थी। “फिल्मों पर कई किताबें लिखने वाले राजकुमार केसावानी इन दिनों 1957 में रिलीज हुई सुपरहिट फिल्म और आॅस्कर के लिए नामांकित पहली भारतीय फिल्म ‘मदर इंडिया’ पर भी किताब लिख रहे थे। उन्होंने गुजरे जमाने के सिनेमा पर ‘बॉम्बे टाकीज’ नामक किताब भी लिखी थी जिसका दूसरा अध्याय भी वो लिख चुके थे। इसके अलावा कई ऐसी किताबें थी जिन पर वह लगातार काम कर रहे थे। खासतौर पर भोपाल के ऊपर लिखी किताब जो अधूरी रह गई। उस किताब में उस जमाने के किस्से-कहानियां है। जिसकी कोई कलपना भी नहीं कर सकता।
राजकुमार भाई की इस किताब के लिए बहुत लंबे समय से मेहनत कर रहे थे। इसमें अपने पिता स्वर्गीय दादा लक्ष्मणदास केसवानी की यादों का एक झरोखा भी था। कुछ किस्से और अफसाने मेरे से भी जुड़े थे। ये सब यादें वो अपने साथ ही लेकर गए। वैसे उनकी एक बहुत पुरानी आदत थी जो मैं बचपन से देखता था। वो हमेशा कहते थे कि कुछ किस्से मेरे साथ ही जाएंगे, और ये किस्से मैं किसी के साथ बांटना भी नहीं चाहता। उनका एक मशहूर किस्सा है गायक किशोर कुमार का। जिसे कई लोगों ने जानने की कोशिश की हालांकि मुंबई के उनके कुछ फिल्मी मित्रों को ये किस्सा याद है। पर उन्होंने इसके बारें में न कभी लिखा न कभी बताया। दिल्ली में एक बार जब इंटरव्यू में किसी ने जिद की तब इस किस्से को लेकर उन्होंने कहा था कि कुछ अपनी यादें अपने साथ ही लेकर जाऊंगा।
हालांकि कुछ लोगों ने मेरे से वह किस्से जानने की बहुत कोशिश की, पर जब भाई ने नहीं बताया तो मैं कैसे बता सकता था। वह किस्से मैं भी अपने साथ ही लेकर जाऊंगा। राजकुमार केसवानी को सबसे पहले मैंने खबरों के माध्यम से ही जाना। जब 2-3 दिसंबर 1984 की काली अंधियारी रात को भोपाल में विश्व की सबसे भीषणतम औद्योगिक त्रासदी हुई थी और यहां के यूनियन कार्वाइड कारखाने से रिसी मिथाइल आइसो साइनाइड गैस ने मौत का तांडव मचाते हुए हजारों लोगों को मौत की नींद सुला दिया। पूरे शहर को भुतहा और वीरान कर दिया था। तब पता चला कि वह राजकुमार केसवानी ही थे, जो हादसे के तीन-चार साल पहले से लगातार यूनियन कार्बाइड कारखाने में बन रही गैस के खतरे से सत्ता और लोगों को अपने साप्ताहिक समाचार पत्र के माध्यम से आगाह कर रहे थे, लेकिन तब किसी ने भी उनकी नहीं सुनी। उन वर्षों में बचाइए हुजूर, इस शहर को बचाइए, ज्वालामुखी के मुहाने पर बैठा भोपाल, समझोगे तो आखिर मिट ही जाओगे, शीर्षक से उनके समाचार बताते हैं कि वह खतरे को लेकर कितनी संजीदा और बेचैन थे। यह बेचैनी इसलिए भी थी, क्योंकि वह जानते थे यह जानलेवा गैस कौनसी है, उससे क्या बनाया जाता है और कितनी खतरनाक है। केसवानी जी की यह रिपोर्ट्स देश-विदेश में काफी सराही गईं। भोपाल गैस त्रासदी को लेकर वह सड़कों पर भी उतरे, गैस त्रासदी के संदर्भ में अदालतों में गवाहियां भी दीं। लेकिन वह इस बात को लेकर अक्सर दुखी रहते थे, कि खबरों के जरिए इतनी चेतावनियों के बाद भी वह त्रासदी होने से नहीं रोक सके। भोपाल गैस त्रासदी ही नहीं, बल्कि ऐसी कई घटनाएं, कई किस्से हैं, जहां वह एक सोशल एक्टिविस्ट के रूप में दिखे। किसी जमाने में पुराने भोपाल में उनके पड़ोसी रहे पत्रकार, राजनेता शैलेन्द्र शैली बताते हैं कि केसवानी जी पत्रकारिता, साहित्य,संगीत, सिनेमा के क्षेत्र में चेतनापूर्ण, प्रगतिशील, धर्मनिरपेक्ष मूल्यों से प्रेरित थे। भोपाल गैस त्रासदी पर लिखने या अध्ययन के लिए पूरे देश- दुनिया के पत्रकार उनसे संपर्क करते थे।