शशी कुमार केसवानी

नमस्कार दोस्तों, आइए आज हम बात करते हैं एक ऐसे अभिनेता की जो फिल्मों में हमेशा कठोर रूप में देखा गया। हालांकि कुछ फिल्मों में बड़ा नर भी दिखा। पर व्यक्तिगत जिंदगी में बहुत मस्त और मेजदार व्यक्तित्व का धनी यह कलाकार अपने ऊपर जोग सुनाने में भी नहीं चूकता था। बस इसे एक शौक था कि किसी सभी पार्टियों में सेंट्रल आॅफ अट्रेक्शन रहे। चाहे वर्थडे की पार्टी हो या फिर शादी। वर्थडे में उसका दिल होता था कि मेरा बर्थडे क्यों नहीं है। शादी में दिल होता था कि मैं दूल्हा क्यों नहीं हूं। एक बार एक दोस्त ने फिरकी लेते हुए पूछा क्या आपका दिल मैय्यत में आपका सेंट्रल आॅफ अट्रेक्शन होने का दिल नहीं करता क्या। जही हां दोस्तों फिल्मों में जितनी जरूरत हीरो की होती है उतनी ही जरूरत एक खलनायक की भी होती है। खलनायक को हराकर ही हीरो बनता है। वैसे तो हिंदी फिल्मों में कई विलेन रहे हैं लेकिन आज हम बात करेंगे उस विलेन की जिसने कभी फिल्मों के बारे में नहीं सोचा था। उसका मकसद तो नौकरी करना था जबकि उसके परिवार के लोग फिल्मों से जुड़े थे। पहले ये कलाकार नायक बना और जब सफलता नहीं मिली तो खलनायक बनकर शोहरत पा ली। इस दिग्गज अभिनेता का नाम है अनवर हुसैन। हालांकि हमारे जमाने के लोग तो इन्हें जानते हैं, पर आजकल के लोग अनवर को उतना नहीं पहचानते जितना पहचानना चाहिए। ऐसे बहुत से अभिनेता रहे हैं, जिन्हें हम भूलते जा रहे हैं। लेकिन मेरी किताब के पहले सफे पर रहने वाले कलाकारों में से एक हैं। इनके शानदार अभिनय के लिए कभी भुलाया नहीं जा सकता। लेकिन दुख की बात यह है कि इंडस्ट्री ऐसे कलाकारों को धीरे धीरे भूलती जा रही है, जिसका मुख्य कारण है पुराने कलाकारों पर कोई काम न होना। पर मेरी कोशिश रहती है कि मैं इन कलाकारों को याद रखूं और आपकों भी याद दिलाता रहूं। आईए आज बात करते हैं दिलों में गहरी छाप छोड़ने वाले अभिनेता अनवर हुसैन की।

फिल्मी दुनिया में कई ऐसे कैरेक्टर आर्टिस्ट रहे हैं, जिनका काम इतना अच्छा था कि वे फिल्मों की जान बन जाया करते थे। या यूं कहें कि हर फिल्म में इनका होना जरूरी सा हो गया था। पुराने दौर के एक ऐसे ही विलेन है अनवर हुसैन , जिन्होंने अपनी अदाकारी से बॉलीवुड की कई फिल्मों को सजाया है। पर्दे पर विलेन की भूमिका में नजर आने वाले अनवर असल जिंदगी में काफी खुश मिजाज थे और पान खाने के बेहद शौकीन थे। अनवर हुसैन का जन्म 11 नवम्बर 1925 को कोलकाता में हुआ था। उनकी मां का नाम जद्दन बाई था जो अपने जमाने की मशहूर क्लासिकल सिंगर और फिल्म निर्माता थीं। अनवर के पिता का नाम इरशाद मीर खान हुैसन था। वहीं उनके बड़े भाई का नाम अख्तर हुसैन था, जो फिल्म निर्माता थे। इसके अलावा अनवर की एक छोटी बहन थी, जो अपने दौर की फेमस एक्ट्रेस थीं और यही अनवर के लिए परेशानी का सबब बन गया था। हम बात कर रहे हैं नरगिस दत्त की। नरगिस ने अपने दौर में काफी नाम कमाया और हर कोई उनकी अदायगी का कायल था। ऐसा नहीं था कि अनवर और नरगिस के रिश्ते बेहतर नहीं थे या फिर वे नरगिस की सफलता से परेशान थे। उन्हें मलाल था तो सिर्फ एक बात कि उनकी अपनी कोई पहचान इंडस्ट्री में नहीं बन पा रही थी। उन्हें सिर्फ नरगिस के बड़े भाई के तौर पर ही पहचान मिल रही थी।

अनवर ने चाइल्ड आर्टिस्ट के तौर पर फिल्म राजा गोपीचंद से फिल्मी दुनिया में कदम रखा था। उस समय उनकी उम्र महज 11 साल थी। चाइल्ड आर्टिस्ट के तौर पर काम करने के बाद बड़े होने पर वे काम की तलाश में 1939 में भोपाल आ गए थे। उन्होंने भोपाल रियासत में कमीशन एजेंट और जनरल सप्लायर का काम करते थे। इसके बाद उन्होंने मुंबई का रुख किया और यहां आॅटोमोबाइल इंजीनियरिंग का प्रशिक्षण लिया। मौका मिलने पर ये आॅल इंडिया रेडियो में बतौर रेडियो आर्टिस्ट काम करने लगे। वहां पर इन्होंने लगभग 3 साल काम किया। लेकिन सफलता न मिलने पर उन्होंने 1941 में वापस मुंबई की ओर रुख कर लिया। उनके भोपाल में कई मित्र आज भी जीवित हैं, जिन्होंने उनके साथ दो साल का समय गुजारा। एक मुलाकात में उन्होंने बताया था कि भोपाल मोहब्बत भरा शहर है। जहां हमें काम करने का मौका दिया और लोगों ने बहुत सहयोग भी किया। पर मेरे नसीब में भोपाल इतने समय ही रहना था। लेकिन वह हमें यह बात बताते बताते भोपाल की बाते इस लय में रम गए कुछ पल के लिए तो हमें लगा कि मैं बाहर का हूं और भोपाल की बातें सुन रहा हूं। बहरहाल भोपाल के उनके दिल में जो मोहब्बत देख तो हमें बहुत अच्छा लगा और सारे नायाब किस्से जहन में बसे हुए हैं। भोपाल से जाने के उनकी किस्मत ही बदल गई। यार कादरी की फिल्म संजोग में उन्हें काम मिला। जिसके बाद उन्हें फिल्म इंडस्ट्री में एक अलग पहचान मिल गई।

अनवर हुसैन की पढ़ाई-लिखाई कोलकाता में ही हुई। यहां से इन्होंने मैट्रिक पास किया, लेकिन हालात कुछ ऐसे हुए कि स्कूल से निकाल दिया गया। इस कारण ये अपनी आगे की पढ़ाई पूरी न कर सके। अपने फिल्मी सफर में अनवर हुसैन ने एक से बढ़कर एक फिल्मों में काम किया था। ये फिल्मों में जितने अच्छे से सकारात्मक भूमिका निभाते थे उतनी ही बारीकी से नकारात्मक भूमिका भी। श्वेत-श्याम और रंगीन सिनेमा दोनों में इन्होंने दोनों में अपनी कला का जलवा दिखाया। अनवर फिल्म अभिनेता ही नहीं बल्कि निर्माता भी थे। 1940 से लेकर 1982 तक वह लोकप्रिय कैरेक्टर एक्टर रहे। अपने फिल्मी करियर में उन्होंने 200 से अधिक फिल्मों में काम किया।

अनवर हुसैन की मां की तीसरी शादी से जो लड़की हुई उसका नाम नरगिस था। वही नरगिस जिन्होंने बड़े होकर एक समय में बॉलीवुड पर राज किया। वह अनवर की बहन थीं। कहते हैं कि जद्दनबाई के गाने सुनकर मोहन बाबू उनपर मोहित हो गए थे। उन्होंने डॉक्टरी की पढ़ाई छोड़कर जद्दन से शादी की। इसके लिए उन्होंने धर्म परिवर्तन कर अपना नाम अब्दुल रशीद रखा। इन्हीं की बेटी थीं नरगिस। नरगिस और सुनील दत्त से अनवर के ताल्लुकात हमेशा अच्छे रहे। ये संजय दत्त के मामा और सुनील दत्त के साले थे। अख्तर हुसैन की बेटी और अनवर की भतीजी जाहिदा हुसैन भी फिल्मों में काम करती थीं। अनवर हुसैन पहले तो अपने ही माता-पिता की फिल्मों में छोटे मोटे किरदार निभाया करते थे। इनकी जिंदगी ने एक बार फिर पलटी मारी और उस समय के मशहूर निर्देशक एआर कारदार ने अनवर के हुनर को पहचाना। उन्होंने फिल्म ‘संजोग’ में खुद को साबित करने का मौका दिया। इस पिक्चर में अनवर ने अपने अभिनय से लोगों को काफी प्रभावित किया। फिर ‘पहले आप’, ‘हमलोग’, ‘आवाज, ‘बारिश’ और ‘फुटपाथ’ जैसी फिल्मों में बतौर नायक नजर आए। हालांकि फिल्म कुछ कमाल नहीं कर पाई।

‘रंगमहल’ फिल्म में अनवर हुसैन पहली बार खलनायक बने थे, लेकिन इनकी किस्मत यहां धोखा दे गई। रंगमहल के लेब्रोटरी में आग लग गई, जिस कारण ये फिल्म आई ही नहीं। इनके भाई फिल्म ‘रोमियो जूलियट’ बना रहे थे। इसमें अनवर को लिया गया। कहा जाता है कि इस पिक्चर के लिए पहले याकूब को लिया गया था, लेकिन वो बीमार थे। इसके बाद मजहर को चुना गया, लेकिन शूटिंग के दिन वो भी नहीं आ पाए। इसके बाद अनवर को ये रोल दे दिया गया। ये फिल्म लोगों को भा गई। पत्रकारों संगठनों ने अनवर को सम्मानित भी किया। दिलीप कुमार की मशहूर फिल्म ‘गंगा यमुना’ में इन्होंने अय्याश साले का किरदार निभाया था। इनके अभिनय का ही कमाल था कि दिलीप कुमार का गुंडा बनना लोगों को पसंद आया। वहीं, फिल्म ‘गाइड’ में उन्होंने देवानंद के ड्राइवर के दोस्त गफ्फूर का सकारात्मक रोल निभाया था। बताया जाता है कि अनवर मिजाज के भी काफी ईमान वाले थे, जो दूसरों से प्रेम करते थे। वे अपने दोस्त के स्वास्थ्य के लिए मंदिर में बैठ नमाज पढ़ते थे और दुआ मांगते थे। अनवर हुसैन को लोग आज भी भूले नहीं भुलाते हैं। उनकी पांच संतानें हुईं। इनमें से 4 बेटे और एक बेटी। 1 जनवरी 1988 को अनवर हुसैन दुनिया से रुख्सत हो गए।

अनुभवी किरदार अनवर हुसैन ने हिंदी फिल्म उद्योग में 38 साल तक काम किया और 1938 से 1981 तक 100 से ज्यादा फिल्मों में काम किया। लेकिन अनवर हुसैन को परिभाषित करने वाले सिर्फ़ आँकड़ों से कहीं ज्यादा हैं। एक बात तो यह है कि उनका वंश बहुत दिलचस्प है, वे जद्दनबाई के बेटे हैं, जो भारतीय सिनेमा के शुरूआती दौर में एक मशहूर गायिका थीं, जिन्होंने बाद में फिल्मों का निर्माण भी शुरू किया। इस वंशावली में दूसरी दिलचस्प कड़ी मशहूर अभिनेत्री नरगिस की है, जो जद्दनबाई की बेटी भी थीं और इस तरह अनवर हुसैन की सौतेली बहन थीं। दरअसल, बहुत से लोग यह नहीं जानते कि हालाँकि नरगिस आखिरकार अनवर हुसैन से ज्यादा मशहूर हो गईं, लेकिन नरगिस को फिल्मों में लाने वाले वे ही थे। हालाँकि, अजीब बात यह है कि नरगिस और अनवर हुसैन ने बहुत ज्यादा फिल्मों में साथ काम नहीं किया – जो फिल्में तुरंत याद आती हैं, वे हैं 1947 में आई “रोमियो एंड जूलियट” और दूसरी लगभग 20 साल बाद आई “रात और दिन”।

अनवर हुसैन के अगली पीढ़ी के अभिनेताओं से जुड़ाव की बात करें तो, स्वाभाविक रूप से, वे अभिनेत्री नरगिस के बेटे संजय दत्त के मामा भी थे। अनवर हुसैन ने अपनी कई फिल्मों में कई तरह के चरित्र किरदार निभाए हैं, लेकिन उन्होंने जो छवि बनाई, वह एक मजबूत इरादों वाले और शारीरिक रूप से मजबूत व्यक्ति की थी, जो अपनी कठोर बाहरी छवि के पीछे एक नरम दिल वाला व्यक्ति था। ऐसा नहीं है कि वे इस स्टीरियोटाइप से अलग नहीं थे। दरअसल यह उनके अभिनय कौशल की बहुमुखी प्रतिभा ही थी, जिसने उन्हें हास्य भूमिकाओं में भी उतनी ही आसानी से अभिनय करने में सक्षम बनाया, जितनी आसानी से वे एक षडयंत्रकारी खलनायक की भूमिका निभा सकते थे। यही कारण है कि वे “विक्टोरिया नंबर 203” जैसी हल्की-फुल्की फिल्मों से लेकर “गंगा जमुना” जैसी एक्शन से भरपूर फिल्मों या फिर “शहीद” जैसी देशभक्ति वाली फिल्मों में भी समान रूप से सफल रहे। इसलिए, अपने करियर के अंत में, उनके जैसे ऊजार्वान व्यक्ति को व्हील चेयर पर बैठकर अपनी भूमिकाएं निभाते देखना दुखद था, क्योंकि तब तक उन्हें लकवा मार चुका था। यह भी जानना मार्मिक था कि जब वह वर्ष 1981 में अपनी आखिरी फिल्म रॉकी में दिखाई दे रहे थे, तो उनके भांजे संजय दत्त भी उसी फिल्म में अपनी पहली उपस्थिति दर्ज करा रहे थे। अनवर हुसैन की हेयर स्टाइल और कलमें रखने का अपना एक अलग अंदाज था। हालांकि लोग उस जमाने में बाल बड़े जरूर रखते थे, पर उनकी एकदम कॉपी नहीं करते थे, यह सोचकर कि अरे उस जैसे दिखेंगे तो लोख क्या कहेंगे।

Shashi Kumar Keswani

Editor in Chief, THE INFORMATIVE OBSERVER