शशी कुमार केसवानी
हमे हमेशा हकीकत और इतिहास वहीं पसंद है, जो उस समय हकीकत में था। ना कि उसे तोड़-मरोड़कर सौ तरह के बदलाव के साथ पेश किया हो। वह इतिहास न होकर कहानी बन जाता है। इसी तरह संजय लीला भंसाली ने एक कहानी बनाकर हीरा मंडी को पेश किया है। हमे समझ में नहीं आता संजय इतना समझदार बताता है कि और उसकी यह कोशिश भी रहती है कि लोग उसे समझदार मानें। इस बात पर उसका हमेशा जोर रहता है। यह मैंने उनसे हर मुलाकात में महसूस किया है। असल में इस बात पर कोई रोक भी नहीं है और सामाजिक-कानूनी अपराध भी नहीं है कि अगर कोई अपने-आपको समझदार समझता है। पर मेरा सोचना है कि हकीकत से मुंह नहीं मोड़ना चाहिए।
इस सीरीज में हीरा मंडी के अलावा सब कुछ नजर आ रहा है। उर्दू बोलती खूबसूरत ख्वातीन है, अलग-अलग डिजाइनर कपड़े पहने हुई हैं। सूफीयाना गाने भी गा रही हैं। लखनऊ जैसी नफासत दिखा रही हैं। बुढ़िया दादीजान अपने पौत्र की जवानी पर सदके जा रही है- तवायफों के पास भेज रही है। शेखर सुमन हवा में पिचकारी मार रहे है। तमाम अण्ड बंड वाहियात बातें दिखाई गई है। जो आज के युवा समाज में गलत दिशा में लेकर जाने के लिए भरपूर मसाले से लवरेज है। आने वाले दिनों में आप हीरा मंडी सीरीज के डॉयलॉग लोगों की जुबान पर बहुत ही गंदे तरीके से सुनने को मिलेंगे। अभी भी कुछ लोग इसको थोड़ी से मर्यादाओं में पेश कर रहे हैं पर एक अदब की जगह को इतनी गंदी जुबान में दर्शाया गया है, जिसकी हद नहीं।
भंसाली के साथ सबसे बड़ी समस्या ये है कि वो दर्शक बेवकूफ समझते हैं- उन्हें लगता है देखने वाले को कुछ नहीं पता कुछ भी दिखा दो। पता नहीं क्या रिसर्च की गई इस सीरीज को बनाने में। इतने बड़े बड़े कोठे दिखा दिये। हजारों किताबों के साथ साथ इतिहास के पन्नों में विवरण है हीरा मंडी बहुत कंजस्टेड (बहुत ही संकरा) इलाका था – किसी कोठे में कोई अहाता नहीं। भंसाली ने अपना हीरा मंडी खुद ही गढ़ दिया। सूफियाना गाने गा रही लाहौरी वेश्याएं दिखा दी। यदि पाकी गायिका नूरजहाँ के मद भरे पंजाबी टप्पे, गाने दर्शाए होते तो जियादा मुफीद होता। लाहौर की मंडी है तो वहाँ की बोली भी दिखाओ। कौन सी तवायफ डिजाइनर कपड़े गहने पहनती थी। दो वक़्त की रोटी को तरसती इन तवायफों का इस तरह से बॉलीवुडकरण बड़ा निंदनीय है।
इतनी पुस्तकें है हीरा मंडी पर, काश एक दो पढ़ कर रिसर्च कर लेते तो हीरा मंडी सचमुच में हीरा मंडी बन जाती। और हां एक बात यहां पर और बता दूं कि हीरा मंडी डायमंड का सजा बाजार कतई ना था जनाब। अनाज और भूख से भरी मंडी थी। हीरा नाम तो महाराज रणजीत सिंह के वजीर का था। इस में डायमंड जैसा कुछ था ही नहीं। कुछ डॉयलॉग तो इतने गंदे लगते हैं कि सुनने में भी अजीब लगता है। जैसे क्या अब आप आधा-आधा मिनट का भी हिसाब रखेंगे नवाब साहब। तौबा …तौबा… ऐसी भाषा तो किसी कोठे पर भी नहीं बोली जाती, यह संजय की दिमाग की उपज है या फिर आपबीती। संजय ने कहा है कि हीरा मंडी दोबारा नहीं बन सकती। हमारा भी यही कहना है कि बिलकुल न बनाएं।
बेवसाइट पर डाली गई हीरा मंडी की फोटो सभी ओरिजनल हैं।