शशी कुमार केसवानी

नमस्कार दोस्तों, आईए आज बात करते हैं एक फिल्म अभिनेता की जिनकी पहचान रोमांटिक हीरो से ज्यादा देश भक्त हीरों की ज्यादा रही है। यहां तक की उनके असली नाम को छोड़कर उनका नाम ही देश के ऊपर आ गया था। जी हां दोस्तों मैं बात कर रहा हूं मनोज कुमार की। जिन्हें लोग भारत कुमार भी कहते थे। आजादी के आंदोलन से लेकर आजादी तक के दर्द झेल चुके मनोज कुमार को देश की आजादी और देश की कहानियों पर बड़ा विश्वास था। शायद आपको यह बात पता नहीं होगी कि एक जमाने में मनोज कुमार घोस्ट राइटिंग किया करते थे। जिसमें कई फिल्में व नाटक तैयार हुए। उन दिनों में उस मोटी रकम से उनका खर्चा व उनके प्रिय मित्र धर्मेंद्र का खर्चा भी चल जाता था। मेरी कई मुलाकातों में महसूस करता था कि उनके लिखने की कला बड़ी जबरदस्त है। बातों बातों में वे कब कहानी बना लें पता ही नहीं चलता था। जब वे भोपाल आए तो भोपाल के बारे में कुछ किस्से सुनकर बोले थे कि भोपाल के ऊपर तो कई फिल्में बन सकती हैं। पर उन्हें इस बात का कभी अवसर नहीं मिल पाया कि भोपाल के ऊपर कुछ लिख सकें। मुंबई में एक बार उन्होंने बातचीत में बताया था कि भोपाल आने का मन तो बहुत होता है पर अब तबियत इजाजत नहीं देती। इतनी खूबियां एक इंसान में कम ही होती है। पर कहीं कोई कमी भी रह जाती है। उनके पीने की आदत उनके सेहत की दुश्मन बनती चली गई। पर वे अपनी इजाजत को छोड़ नहीं सके। तो आईए आज बात करते हैं उनसे जुड़े कुछ किस्सों की।

भारतीय सिनेमा के सबसे बड़े पुरस्कार दादा साहेब फाल्के पुरस्कार से सम्मानित किए जा चुके मनोज कुमार का 87 साल की उम्र में निधन हो गया है। निर्माता-निर्देशक और अभिनेता मनोज कुमार ने लंबा सिनेमाई सफर तय किया है। नौ अक्तूबर 1956 को फिल्मों में हीरो बनने का सपना लिए 19 साल का एक नौजवान दिल्ली से मुंबई आया। साल 1957 में अपनी पहली फिल्म फैशन में 19 साल के इस युवक को 80-90 साल के भिखारी का छोटा सा रोल मिलता है। इस नौजवान का नाम था हरिकिशन गोस्वामी था, जो बाद में मनोज कुमार के नाम से मशहूर हुए।

हरिकिशन ने इसके बाद कुछ और फिल्में कीं, जिसमें मीना कुमारी जैसे बड़े सितारों के साथ चंद सीन करने को मिलते थे। मानो हरिकिशन के सब्र का इम्तिहान लिया जा रहा हो। आखिरकर साल 1961 में मनोज कुमार को बतौर हीरो ब्रेक मिला फिल्म ‘कांच की गुड़िया’ से। इसके अगले ही साल विजय भट्ट की फिल्म ‘हरियाली और रास्ता’ ने मनोज कुमार की जिÞंदगी का रास्ता ही बदल दिया। करीब 40 साल के लंबे फिल्मी करियर में मनोज कुमार ने फिल्मों में काम भी किया और खुद फिल्में बनाई भी।

भारतीय राजस्व सेवा अधिकारी निरुपमा कोटरू ने द स्विंगिंग सेवनटीज नाम की किताब में मनोज कुमार पर लेख लिखा है। निरुपमा कोटरू लिखती हैं, मनोज कुमार ने एक्टिंग के साथ कई फिल्मों का निर्देशन किया। इन सारी फिल्मों में उन्होंने फिल्म के कॉन्टेंट और फॉर्म पर लगातार अपनी उस्तादी का प्रदर्शन किया। कहानी लिखने की कला में उनकी महारत थी। वो जानते थे कि भारतीय भावुक होते हैं, इसलिए वो ऐसी कहानियाँ लिखते थे जिनसे लोग आसानी से जुड़ाव महसूस कर सकते थे। हर तरह के दर्शक के लिए कुछ होता था। मसलन शोर एक परिवार की खूबसूरत कहानी थी, जिसने मनोज कुमार को निर्देशक के तौर पर स्थापित किया।

मनोज कुमार के करियर में अहम मोड़ आया जब साल 1964 में भगत सिंह पर बनी फिल्म ‘शहीद’ रिलीज हुई। यहीं से देशभक्ति की फिल्में करने वाले हीरो की छवि की भी शुरूआत हुई। पर आगे बढ़ने से पहले मनोज कुमार के अतीत पर नजर डालना जरूरी है, जो उनकी फिल्मों से जुड़े कई पड़ावों का संदर्भ देता है। मनोज कुमार का जन्म अब के पाकिस्तान के ऐबटाबाद में हुआ। जंडियाला शेर खान और लाहौर जैसे इलाकों से उनका ताल्लुक रहा।

उन दिनों जब दिल्ली में सुभाष चंद्र बोस की आईएनए से जुड़े लोगों का ट्रायल चल रहा था तो लाहौर में भी नौजवान और बच्चे जुलूस निकाला करते थे- लाल किले से आई आवाज- ढिल्लो, सहगल, शाहनवाज। मनोज भी उन जुलूस निकालने वालों में शामिल होते। इसी बीच देश का बंटवारा हो गया- पाकिस्तान और भारत। वही भारत जो बाद में मनोज कुमार का दूसरा नाम बन गया। एक बातचीत में मनोज कुमार उस रोते हुए बचपन का जिÞक्र करते हैं जो लाहौर से बिछड़ गया था।

मनोज कुमार ने बंटवारे के उस दौर को याद करते हुए बताया था, बंटवारे के बाद हुई हिंसा में मेरे चाचा मारे गए। मेरे पिता खूब रोए थे। लेकिन अगले दिन जब भारत आजाद हुआ तो मेरे पिता मुझे लेकर लाल किले गए और नारे लगाए। अब मैं सोच कर हैरान होता हूँ। दिल्ली में आकर हम शरणार्थी कैंप में रहे। मुझे वो दिन आज भी याद है जब मेरी माँ मेरे भाई को जन्म देने वाली थी। चारों तरफ हिंसा और दंगे हो रहे थे। सायरन बजा और अस्पताल के लोग भी अंडरग्राउंड हो गए। माँ चिल्लाती रही और मेरा भाई मर गया। मैं छोटा ही था। मैंने अस्पताल के लोगों को जाकर मारना शुरू कर दिया। अपने भाई को जमुना को समर्पित कर दिया। लेकिन पिता ने समझाया कि जिÞंदगी में कभी दंगा-मारपीट मत करना। भारत के इन हालात का असर मनोज कुमार के फिल्मी काम पर भी देखने को मिला- मसलन फिल्म ‘शहीद’ बनने की कहानी।

शुरू में भगत सिंह पर फिल्म बनाने का मनोज कुमार का कोई इरादा नहीं था। हालांकि भगत सिंह उनके बचपन के हीरो थे और उनके बारे में ज्यादा जानना चाहते थे। इसी खोज में वो दिल्ली और अमृतसर जाते और मद्रास में हिंदू अखबार की लाइब्रेरी में घंटों रिसर्च करते। इस फिल्म को सर्वश्रेष्ठ हिंदी फिल्म और राष्ट्रीय एकता के लिए नेशनल अवॉर्ड मिला। इस समारोह के लिए मनोज कुमार ने भगत सिंह की माँ को भी बुलाया था। जब अभिनेता डेविड ने मंच से नेश्नल अवॉर्ड की घोषणा की तो भगत सिंह की माँ विद्यावती को बुलाया गया और पूरा हॉल तालियों से गूँज उठा था। मनोज कुमार ने एक पुराने इंटरव्यू में बताया था कि कैसे इंदिरा गांधी ने आकर भगत सिंह की माँ के पैर छूए थे।

फिल्म शहीद की स्क्रीनिंग के लिए दिल्ली में खुद तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री आए थे। अपने घर पर दावत के दौरान शास्त्री जी ने मनोज कुमार से कहा था कि मेरा एक नारा है जय जवान, जय किसान- मैं चाहता हूँ कि तुम इस पर कोई फिल्म बनाओ। लाल बहादुर शास्त्री की वो बात मनोज कुमार के मन में घर कर गई। सुबह दिल्ली से जब वो ट्रेन में बैठे तो अपने साथ कलम और डायरी लेकर बैठे। ये किस्सा मशहूर है कि जब ट्रेन बॉम्बे सेंट्रल पहुंची तो मनोज कुमार के पास फिल्म उपकार की कहानी तैयार थी। उपकार में मनोज कुमार ने न सिर्फ़ अभिनय किया बल्कि पहली बार निर्देशन भी किया। महेंद्र कपूर की आवाज में 7 मिनट 14 सेकंड का उपकार फिल्म का गाना है ‘मेरे देश की धरती’। उगते सूरज, मंदिर की घंटी और तालाब किनारे पानी भरते लोग, खेत में काम करते किसानों के शॉट से शुरू होता ये गाना गांधी, सुभाष, टैगोर, तिलक के आदर्शवाद से लेकर नेहरू के समाजवाद तक ले जाता है। उपकार के लिए उन्हें फिल्मफेयर की ओर से सर्वश्रेष्ठ निर्देशक, सर्वश्रेष्ठ फिल्म, सर्वश्रेष्ठ कहानी और सर्वश्रेष्ठ संवाद लिखने का पुरस्कार मिला और साथ ही राष्ट्रीय पुरस्कार भी।

बचपन में हरिकिशिन ने दिलीप कुमार (1949) की फिल्म ‘शबनम’ देखी थी। उस फिल्म में दिलीप कुमार का नाम था मनोज कुमार। बस बचपन से ही उन्हें फिल्मों की दुनिया और ‘मनोज कुमार’ नाम दोनों पसंद आ गए। यानी 12-13 साल की उम्र में ही तय हो गया कि हीरो बनना है और फिल्मी नाम होगा मनोज कुमार। माला सिन्हा के साथ 1962 में आई ‘हरियाली और रास्ता’ मनोज कुमार के करियर की पहली सिल्वर जुबली हिट थी। इसके बाद मनोज कुमार ने सायरा बानो, वैजयंतीमाला, आशा पारेख के साथ कई हिट रोमांटिक फिल्में कीं।

एक्टिंग के साथ -साथ निर्देशन और निर्माण के जरिए 70 के दशक में मनोज कुमार की दूसरी पारी भी चलती रही। उन्होंने उपकार, पूरब और पश्चिम, रोटी कपड़ा और मकान और क्रांति जैसी फिल्में डाइरेक्ट की। मनोज कुमार को संगीत की भी गहरी समझ थी। हालांकि उनकी फिल्मों में भारतीयता, महिलाओं और देशभक्ति का जो पैमाना दिखाया गया है उस पर बाद के सालों में सवाल भी उठते रहे हैं। मनोज कुमार की फिल्म ‘पूरब और पश्चिम’ भारतीयता और पश्चिमी संस्कृति के बीच तुलना करती है जहाँ लड़की के सिगरेट पीने या स्कर्ट पहनने को नैतिकता के नजरिए से दिखाया गया है।

Shashi Kumar Keswani

Editor in Chief, THE INFORMATIVE OBSERVER