राजेश बादल
ख़बर न अप्रत्याशित है और न असाधारण। जब भी भारत और पाकिस्तान में आम चुनाव होते हैं तो प्रचार मुहीम में एक दूसरे का ज़िक्र होता ही है। दोनों ही मुल्क़ों में प्रचार अभियान एक दूसरे की आलोचना के बिना अधूरा ही रहता है। हिन्दुस्तान में लोकसभा चुनाव अपना आधा सफ़र तय कर चुका है।अभी तक के सारे चरणों में पाकिस्तान की उपस्थिति किसी न किसी रूप में बनी रही है। अब ताज़ी ख़बरें पाकिस्तान के क़ब्ज़े वाले कश्मीर से आई हैं। वहाँ के लगभग सारे कस्बों में पाकिस्तान की हुक़ूमत के ख़िलाफ़ आक्रोश सड़कों पर दिखाई दे रहा है। सुरक्षाबलों के लिए ग़ुस्से में आई अवाम का सामना करना कठिन हो गया है।तनाव और हिंसा का आलम यह है कि क़रीब एक सप्ताह से जन जीवन ठप्प है। लोग ज़रुरत की चीज़ों के लिए तरस रहे हैं। उत्तेजित भीड़ सुरक्षाबलों की सरे आम पिटाई कर रही है। रविवार को एक पुलिस अधिकारी की गुस्साए प्रदर्शनकारियों ने गोली मार कर हत्या कर दी ।इससे पहले सेना की फायरिंग में दो गाँववाले मारे गए थे।अनेक क़स्बों में सैकड़ों प्रदर्शनकारी हिंसक झड़पों में घायल हुए हैं ।कहीं कहीं इलाक़े में भारत के समर्थकों ने तिरंगा भी लहराया और हिन्दुस्तान में विलय की माँग करते हुए रैलियाँ निकालीं ।
पाकिस्तान के बलूचिस्तान और क़ब्ज़े वाले कश्मीर क्षेत्र में चुनाव के दिनों में हर बार माहौल में पारा आसमानी ऊँचाई पर पहुँचता है। निर्वाचन प्रक्रिया समाप्त हो जाने के बाद सारा आक्रोश फ़ुस्स हो जाता है। सब कुछ सामान्य हो जाता है। न बलूचिस्तान आज़ाद हो पा रहा है और न कश्मीर का इलाक़ा पाकिस्तान के क़ब्ज़े से मुक्त हो पा रहा है। असल में इन दोनों प्रदेशों के निवासियों को लगता है कि पाकिस्तान के साथ उनका भविष्य नहीं है और उन्हें स्वतंत्र कराने में भारत ही सहायता कर सकता है। जब भारत के चुनाव प्रचार में पाकिस्तान के प्रति क्रोध भरे स्वर गूँजते हैं तो उसका असर पाकिस्तान में भी होता है।ऐसा ही हाल भारत में होता है ,जब पाकिस्तान में सेना के साए में चुनाव होते हैं।वहाँ भी जम्मू कश्मीर को भारत से स्वतंत्र कराने के नारे लगते हैं।सरकार किसी भी दल की हो ,वह अपने मतदाताओं को भरोसा दिलाती है कि यदि वह सत्ता में आई तो भारत से वह जम्मू कश्मीर छीन लाएगी। लेकिन ऐसा कभी नहीं होता।दोनों राष्ट्रों के मतदाता भी अब समझने लगे हैं कि ऐसी प्रोपेगंडा – जंग का कोई अर्थ नहीं है।न कभी पाकिस्तान कश्मीर छीन पाएगा और भारत ऐसा शायद ही चाहेगा। अलबत्ता भारतीय जनता पार्टी के शिखर नेता खुल्लम खुल्ला यह कहने से नहीं चूकते कि हम पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर वापस लेकर ही रहेंगे।
दरअसल यही दोनों सूबे तरक़्क़ी के नज़रिए से पाकिस्तान सरकार की प्राथमिकता सूची में शामिल नहीं हैं। इसलिए न तो वहाँ के नागरिकों को बुनियादी सुविधाएँ आसानी से मिलती हैं और न वहाँ के नौजवानों के बेहतर भविष्य की कोई गारंटी है।दोनों सूबों के ऐतिहासिक तथ्यों और सन्दर्भों को देखें तो पता चलता है कि नागरिकों ने अभी तक पाकिस्तान में उनके इलाक़ों का विलय मंज़ूर नहीं किया है। पाकिस्तान सरकार वहाँ के नागरिकों के साथ दोयम दर्ज़े का व्यवहार करती है। बलूचिस्तान में तो पाकिस्तानी फ़ौज ने अपनी थल और वायु सेना का इस्तेमाल किया है। ठीक वैसा ही युद्ध लड़ा है ,जैसा दो देशों के बीच हुआ करता है। फिर भी वह अलगाववादियों पर नियंत्रण नहीं कर पाई है।चूँकि बलूचिस्तान का इलाक़ा भारत के विभाजन के बाद बने पाकिस्तान में नहीं था। वह तो अँग्रेज़ों के क़ब्ज़े में एक स्वतंत्र देश ही था ,जिस पर पाकिस्तान ने धोखे से क़ब्ज़ा कर लिया था ।यही स्थिति कश्मीर घाटी की है। बँटवारे के बाद पाकिस्तान ने कबाइली वेश में लड़ाकू भेजे और उस पर क़ब्ज़ा कर लिया। अब इतने वर्षों पर दोनों ओर से भरोसे की दीवार टूटी हुई है।
आपको याद होगा कि जब बांग्ला देश युद्ध हुआ और भारत ने बांग्लादेश को सबसे पहले मान्यता दी तो बलूचिस्तान के लोग सबसे ज़्यादा प्रसन्न थे। उन्होंने भारतीय प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और उस समय थलसेना अध्यक्ष जनरल मानेक शॉ के बड़े बड़े फोटो लेकर रैलियाँ निकाली थीं और उनकी ज़िंदाबाद के नारे लगाए थे। बलूचिस्तान के लोग चाहते थे कि इंदिरा गांधी उन्हें भी पाकिस्तान से आज़ादी दिलाएँ।बलूचिस्तान प्राकृतिक संसाधनों के नज़रिए से बेहद संपन्न प्रदेश है। लेकिन पाकिस्तान भयभीत रहता है कि यह क्षेत्र कभी न कभी पाकिस्तान के अधिकार से आज़ाद होगा ही। इसलिए वहाँ ख़ुशहाली के प्रयास नहीं होते। मुझे याद है कि 2005 में जब आठ अक्टूबर को कश्मीर में भूकंप आया था तो मैं वहाँ एक वृत्तचित्र की शूटिंग के लिए गया।वहाँ दोनों मुल्क़ों के बीच का अमन सेतु टूट गया था। इसलिए बहुत से पाकिस्तानी भारतीय कश्मीर में रुके रहे। मुझसे बातचीत में उन्होंने स्पष्ट स्वीकार किया था कि पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर की हालत अच्छी नहीं है। वहाँ की हुकूमत डरती रहती है कि यह इलाक़ा उनके हाथ से देर सबेर निकल ही जाएगा। इसलिए वह कोई विकास के काम नहीं करती। इन दोनों सूबों में चीनी नागरिक,चीनी सुरक्षाबल और हस्तक्षेप बढ़ता जा रहा है। इसका स्थानीय नागरिक विरोध करते हैं।अब तक अनेक चीनी नागरिक और इंजीनियर हमलों में मारे जा चुके हैं।यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि एक तरफ़ तो चीन पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर का क्षेत्र विवादास्पद बताता है लेकिन उसी हिस्से को पाकिस्तान से उपहार की तरह लेने में कोई संकोच नहीं करता।
असल में पाकिस्तान के इन सूबों को अंतर्राष्ट्रीय हस्तक्षेप की दरकार है। लेकिन पाकिस्तान सरकार को अमेरिकी संरक्षण के चलते यहाँ की अवाम भारत के अलावा किसी अन्य राष्ट्र से सहयोग की अपेक्षा नहीं करती।इसलिए भारत के लिए भी आवश्यक है कि भारतीय उप महाद्वीप में शान्ति और स्थिरता के लिए सकारात्मक पहल करे।