राजेश बादल

नया साल संसार की आधी से अधिक आबादी के लिए बड़ा महत्वपूर्ण है। लगभग सत्तर देशों में इस बरस निर्णायक निर्वाचन होंगे ।इसके बाद नई सरकारें या संसदें अपनी विदेश नीति का नया चेहरा प्रस्तुत करने पर मजबूर होंगीं ।वर्तमान परिस्थितियों में लगभग प्रत्येक देश अपनी विदेश नीति की धुरी बदलने के लिए बाध्य है। अंतरराष्ट्रीय राजनीति के मद्देनज़र नई विदेश नीतियों का रूप समूचे विश्व को प्रभावित करेगा । इन नीतियों में सैद्धांतिक और नैतिक आधार नदारद सा होगा। अलबत्ता आर्थिक आधार प्रधान होगा । आम चुनावों के बाद भारत के लिए अपनी नीतियों की समीक्षा भी आवश्यक हो जाएगी, क्योंकि जिन देशों में चुनाव होंगे ,उनमें एशिया के भी कई देश शामिल हैं।हिन्दुस्तान में इस साल लोकसभा चुनाव होने हैं ।इसके अलावा बांग्लादेश,पाकिस्तान,श्रीलंका भूटान और रूस जैसे पड़ोसी देशों में भी निर्वाचन संपन्न होंगे । इन राष्ट्रों के आपसी संबंधों में यह साल बदलाव का संकेत दे रहा है।इसके अलावा भारतीय नज़रिए से देखें तो ब्रिटेन, रूस और अमेरिका के चुनाव भी ख़ास हैं,जिनसे भारतीय हितों पर असर पड़ता है।

हालांकि पाकिस्तान में तो चुनाव के बाद भी भारत के साथ संबंधों में कोई ख़ास सुधार की संभावना नहीं है क्योंकि वहां चुनाव तो फ़ौज के दिल बहलाने का खिलौना मात्र है।सरकार उसी दल की बनेगी,जिसे सेना चाहेगी और जो सरकार बनेगी,उसे फौजी अधिकारियों के इशारे पर नाचना पड़ेगा । पाकिस्तान तभी तक ज़िंदा है,जब तक वहां सेना भारत विरोधी नफ़रत की लहर पर सवार है।जिस दिन फौज़ हाशिए पर गई,उस दिन वहां लोकतंत्र धड़कने लगेगा और मुल्क भारत बन जाएगा।ऐसे में उसके अस्तित्व पर ही सवाल खड़े होने लगेंगे ।इसलिए फ़ौजी अफसर कभी भी अपना रौब कम होते नहीं देखना चाहेंगे।ऐसा कभी होगा ,इसकी संभावना भी दूर दूर तक नज़र नहीं आती। पर ,इतना तो पक्के तौर पर कहा जा सकता है कि इस बार वहां सत्ता किसी भी पार्टी को मिले,अवाम का कोई ख़ास भला नही होने वाला है।वहाँ का ताज़ा घटनाक्रम इस मायने में दिलचस्प है।जिस इमरान ख़ान को पिछले चुनाव में सेना ने बड़े उत्साह से प्रधानमंत्री की कुरसी पर बिठाया था,आज वे जेल में हैं।आरोप है कि पद पर रहते हुए उन्हें जो उपहार मिले ,उन्हें सरकारी ख़ज़ाने से उन्होंने नियमानुसार ख़रीद लिया ।बाद में उन उपहारों को मँहगे दामों पर बेच दिया। ज़ाहिर सी बात है कि जब कोई इंसान एक वस्तु खरीद लेता है तो उसका वह मालिक हो जाता है।

बाद में वह चाहे तो ज़्यादा दाम लेकर बेच सकता है। कितने लोग हैं ,जो इस तरह का पूंजीनिवेश करते हैं। सस्ते में खरीदने के बाद अवसर मिलते ही ऊंची क़ीमत पर बेचना कोई अपराध नहीं है। लेकिन सेना की भृकुटि तनी थीं। इसलिए इमरान तीन साल के लिए जेल में हैं और पाँच साल के लिए चुनाव के अयोग्य ठहराए गए हैं। निर्णय को इमरान ने चुनौती दी है। चूंकि फ़ैसला नहीं आया है ,इसलिए तब तक तो वे चुनाव लड़ने के अधिकारी हैं।पर विडंबना यह कि उन्होंने दो निर्वाचन क्षेत्रों से नामांकन भरा तो चुनाव आयोग ने नैतिक आधार पर निरस्त कर दिया।विश्व में नैतिक आधार पर चुनाव नामांकन पत्र खारिज करने की संभवतया यह पहली घटना है। दूसरी तरफ जो पूर्व प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ़ फ़ौज के चहेते होने के कारण सत्ता में आए थे ,फ़ौज के तेवर बदलते ही सींखचों के भीतर पहुँचा दिए गए।यही नहीं,उन्हें ज़िंदगी भर चुनाव लड़ने के लिए अयोग्य घोषित कर दिया गया। क्या ही दिलचस्प नज़ारा है कि चुनाव के लिए अयोग्य ठहराए जाने के बाद चुनाव आयोग ने उनका नामांकन दो स्थानों से स्वीकार कर लिया। क्योंकि अब सेना उन पर मेहरबान है। जो सेना पूर्व प्रधानमंत्री भुट्टो को सरे आम फाँसी पर लटका दे और उसका कवरेज करने के लिए दुनिया भर के पत्रकारों को आमंत्रित करे तो उसकी जम्हूरियत का ऊपर वाला ही मालिक है। इस प्रसंग का मक़सद यह स्थापित करना है कि चुनाव के बाद भी पाकिस्तान और हिन्दुस्तान के बीच रिश्ते सामान्य होने की कोई उम्मीद नहीं की जा सकती और अब तक के आम चुनाव यह निष्कर्ष निकलने के लिए काफी हैं कि पाकिस्तान लोकतंत्र के दृष्टिकोण से शापित मुल्क़ है।

दूसरा प्रमुख चुनाव अमेरिका का है। उसके नतीजे यक़ीनन भारत को विदेश नीति पर पुनर्विचार करने के लिए बाध्य करेंगे। डेमोक्रेटिक पार्टी के उम्मीदवार और वर्तमान राष्ट्रपति जो बाइडेन और रिपब्लिकन पार्टी के प्रत्याशी पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप आमने सामने हो सकते हैं।ट्रंप के कार्यकाल में भारतीय विदेश नीति का पलड़ा अमेरिका की ओर झुका हुआ था। इससे किरकिरी हुई ,जब बाइडेन सत्ता में आए। उनका पूरा कार्यकाल बेरुखी भरा रहा। भारतीय कश्मीर नीति के वे स्थाई आलोचक हैं। उनके साथ भारतीय मूल की उप राष्ट्रपति कमला हेरिस भी ऐसी ही आलोचक रही हैं। पर,इन दिनों जो बाइडेन के साथ उनका सब कुछ ठीक नहीं चल रहा है। यदि डोनाल्ड ट्रंप जो बाइडेन को अगली बार सत्ता में आने से रोकते हैं तो भारत के लिए चुनौती होगी कि वह संबंधों में संतुलन किस तरह बनाए रखेगा . ग़ौरतलब है कि पाकिस्तान इन दिनों अमेरिका की प्राथमिकता सूची में है। बाइडेन भारत के मुक़ाबले पाकिस्तान को तरजीह दे रहे हैं।

वैसे तो यूरोप के अनेक देशों में चुनाव होने हैं ,मगर मैं ब्रिटेन के चुनाव का ज़िक्र करना चाहूँगा। वहाँ कंज़र्वेटिव पार्टी चौदह साल से सरकार चला रही है। भारतीय मूल के ऋषि सुनक ने जब प्रधानमंत्री पद संभाला तो आर्थिक चुनौतियाँ विकराल आकार में थीं। उनमें कोई बहुत चमत्कारिक सफलता तो नहीं मिली है। लेकिन सुनक का भारत प्रेम वहाँ के मतदाताओं को रास नहीं आ रहा है। इसलिए नाक़ामियों के अलावा ऋषि का भारतीय रिश्ता भी उनकी पार्टी की क़ामयाबी को कठिन बना रहा है। ऐसे में लेबर पार्टी के सत्ता में आने की प्रबल संभावना है। यदि ऐसा हुआ तो संभवतया लेबर पार्टी भारत को लेकर बहुत सहज नहीं रहेगी।यूँ भी हिन्दुस्तान के आकाश पर ब्रिटेन को लेकर अतीत के प्रेत हमेशा मंडराते रहते हैं।आने वाले दिनों में ब्रिटेन और भारत के संबंध कठिन दौर से गुजरेंगे। इसमें दो राय नहीं है।

Shashi Kumar Keswani

Editor in Chief, THE INFORMATIVE OBSERVER