राजेश बादल

शंघाई सहयोग संगठन का दो दिनी समरकंद शिखर सम्मेलन संपन्न हुआ।इस बार यह संगठन तमाम विरोधाभासों का गुच्छा नज़र आया।भारत को छोड़कर कमोबेश सारे सदस्य पश्चिमी राष्ट्रों के ख़िलाफ़ खड़े नज़र आते हैं। लेकिन इस संगठन में अनेक मुल्क़ों के बीच गंभीर मतभेद भी हैं। रूस और चीन खुलकर इसे अमेरिका विरोधी मंच बनाना चाहते हैं। कुछ इसके समर्थन में और कुछ इसके पक्ष में दिखाई देते हैं।आपसी असहमतियों के चलते यह संस्था बहुत ठोस काम नहीं करने वाली एक प्रतीक संस्था बनती जा रही है। सदस्य देशों का भला करने की बात तो दूर ,उनके संबंधों की कड़वाहट दूर करने में भी यह संगठन नाक़ाम दिखाई दे रहा है। समरकंद शिखर सम्मेलन से भारत के लिए यही ख़ास बात है कि वह अध्यक्ष चुना गया है तथा अगले बरस वह शंसस सम्मेलन की भारत में मेज़बानी करेगा।इसके अलावा ईरान को स्थाई सदस्यता मिलना दूसरी महत्वपूर्ण बात है।

शायद इसके पीछे अमेरिका को भी क़रारा उत्तर देना रहा होगा।
अपनी स्थापना की रजत जयंती मना चुके इस संगठन की शुरुआत तो पाँच सदस्यों ने की थी ,लेकिन देश आते गए और कारवाँ बनता गया। अब आठ मुल्क़ – भारत ,चीन ,रूस ,पाकिस्तान ,क़ज़ाख़स्तान ,किर्गिस्तान ,ताज़िकिस्तान और उज़्बेकिस्तान इसका हिस्सा हैं ।भारत और पाकिस्तान पाँच साल से इसके नवेले साथी हैं। इनके अतिरिक्त अफ़ग़ानिस्तान ,बेलारूस,ईरान,और मंगोलिया को बतौर पर्यवेक्षक शामिल किया गया है। श्रीलंका,तुर्की ,नेपाल ,कंबोडिया,आर्मीनिया ,अज़रबैजान ,सऊदी अरब ,मिस्त्र ,क़तर ,बहरीन ,मालदीव ,संयुक्त अरब अमीरात तथा म्यांमार इस मंच के संवाद सहयोगी हैं।मगर देखा जाए तो वास्तविक अर्थों में संवाद टूटा हुआ है।

भारत और पाकिस्तान के प्रधानमंत्रियों में कोई संवाद नहीं हुआ।यह देश आर्थिक बदहाली के चरम दौर का सामना कर रहा है। पर भारत से कारोबारी प्राणवायु लेने से झिझकता है।उसके विदेश मंत्री बिलावल भुट्टो ज़रदारी ने भारत के बारे में अपने आलोचक तेवर बरक़रार रखे। इसी तरह मिस्त्र के साथ भी भारत के संबंधों में ठंडापन बरक़रार है। संगठन ने इस मामले में भी मदद नहीं की। चीन के साथ भारत के रिश्तों में जमी बर्फ़ नहीं पिघली। सीमा पर भले ही चंद रोज़ पहले सेनाएँ कुछ पीछे हटी हों ,पर वे दोनों राष्ट्रों के बीच कुछ बेहतर माहौल नहीं बना सकी हैं।अलबत्ता चीनी राष्ट्रपति शी ज़िन पिंग और पाकिस्तानी प्रधानमंत्री शाहबाज़ शरीफ़ की मुलाक़ात को तनिक आश्चर्य से देखा गया।दोनों राष्ट्रों ने आपसी भरोसा बढ़ाने वाले कुछ ख़ास समझौतों पर काम किया। भारत के सन्दर्भों को एकबारगी अलग कर दें तो भी सदस्य राष्ट्रों को रूस और यूक्रेन युद्ध समाप्त कराने में कोई दिलचस्पी अब नहीं रही है और न ही चीन तथा ताईवान के बीच तनाव कम करने पर विचार हुआ।अफ़ग़ानिस्तान की गाड़ी पटरी पर लाने की तरफ किसी का ध्यान नहीं गया तो जर्जर हाल श्रीलंका के लिए भी किसी समग्र कार्ययोजना पर चिंतन की आवश्यकता नहीं समझी गई। अमेरिकी बंदिशों के बाद ईरान की दुश्वारियाँ कम करने की ओर भी किसी का ध्यान नहीं गया और नेपाल में चल रहीं चीनी साज़िशों का तोड़ भी किसी ने नहीं सोचा।

इसके बावजूद यदि कोई सकारात्मक बिंदु खोजना ही हो तो तुर्की के राष्ट्रपति अर्दोगान और प्रधानमंत्री मोदी की मुलाक़ात तनिक असामान्य सी कही जा सकती है। फिलहाल तुर्की शंघाई सहयोग संगठन में डायलाग पार्टनर याने संवाद साझीदार के तौर पर है और वह इस संस्था की स्थायी सदस्यता चाहता है।इसके लिए उसे शंघाई सहयोग संगठन के सभी सदस्य देशों की सहमति चाहिए। भारत की सहमति दो कारणों से महत्वपूर्ण हो जाती है। एक तो भारत अब इस संगठन का अध्यक्ष है और दूसरा यह कि तुर्की की विदेश नीति अनेक वर्षों से पाकिस्तान की ओर झुकी हुई है। कश्मीर के मसले पर उसने हरदम खुलकर पाकिस्तान का समर्थन किया है।क्या वह पाकिस्तान से अब अपने रिश्तों पर पुनर्विचार करेगा ? भारतीय प्रधानमंत्री से मिलने के बाद तुर्की के राष्ट्रपति रेसेप तैयप अर्दोगान ने पत्रकारों से स्पष्ट कहा कि वे संगठन की स्थायी सदस्यता चाहते हैं।अजीब सी बात थी कि इसके बाद वे अपनी निर्धारित यात्रा पर अमेरिका चले गए। पर, उनका यह रवैया सदस्य देशों को आश्चर्य में डालने वाला था।

विचित्र यह है कि तुर्की नाटो का सदस्य भी है और नाटो की ओर यूक्रेन के झुकाव के चलते ही रूस ने जंग छेड़ी है। इसका क्या अर्थ यह लगाया जाए कि तुर्की के राष्ट्रपति नाटो से संबंध तोड़ना चाहते हैं और क्या वह अमेरिका तथा अन्य नाटो देशों से बिगाड़ करना चाहेंगे ? दूसरी बात क्या रूस की नीति नरम पड़ी है ?क्या तुर्की के नाटो में बने रहने से उसे कोई परेशानी नहीं रही है।यह ठीक है कि यूक्रेन की सीधी सीमाएँ रूस से सटी हुई हैं ,लेकिन तुर्की की सीमा भी बहुत दूर नहीं है। ऐसे कई नए सवाल अंतर राष्ट्रीय मंच पर तैरने लगे हैं।

विदेश नीति के नज़रिए से देखें तो भारत की दुविधा और चुनौतियाँ बढ़ गई हैं।एक समूह वह है ,जिसके प्रमुख देश उसके साथ नहीं हैं ,मगर भौगोलिक परिस्थितियों और ऐतिहासिक कारणों से उनके साथ रहना ज़रूरी है। दूसरा समूह पश्चिम और कुछ यूरोपीय देशों का है। उनके साथ भी हिन्दुस्तान के गहरे कारोबारी और रणनीतिक संबंध हैं। मौजूदा विश्व जिस तरह शनैः शनैः दो खेमों में विभाजित होता दिखाई दे रहा है ,वह क्या एक बार फिर गुट निरपेक्षता की नीति अपनाने के लिए भारत को बाध्य करेगा अथवा उसे साफ़ साफ़ एक धड़े के साथ अपनी प्रतिबद्धता जतानी होगी।इसे ध्यान में रखते हुए भारत के लिए आने वाले दिन मुश्किल भरे हो सकते हैं।

Shashi Kumar Keswani

Editor in Chief, THE INFORMATIVE OBSERVER