फिल्मी इतिहास शशी कुमार केसवानी के साथ
नमस्कार दोस्तों आईए आज बात करते हैं एक ऐसे फिल्मकार की जो फिल्मों में कुछ भी जादूगरी कर सकता था। इतने जादू तो खुद जादूगर भी नहीं दिखाते थे जितना वह एक फिल्म में दिखा देते थे। क्या कभी आप कल्पना कर सकते हैं कि एक आदमी से खून लिया जा रहा है और वह खून बोतल में ऊपर की तरफ जा रहा है और वही खून दूसरी तरफ मरीज को चढ़ाया जा रहा है। वो भी बिना क्रॉस मैच किए हुए। ऐसा जादू दिखाने वाला और कोई नहीं मेरा और आपका प्रिय मनमोहन देसाई हो सकता है। जिन्होंने फिल्मों में अनेकों ऐसे प्रयोग किए जिनके लिए आज भी सोचा नहीं जा सकता। मैंन उनसे कहता था आप तो जेम्स बॉन्ड की फिल्मों को भी पीछे छोड़ देते हो। हर बार नई जादूगरी दिखा देते हो। तब वह जवाब देते थे कि हैरान परेशान लोग मेरी जादूगरी और मनोरंजन के लिए फिल्में देखने आते हैं न कि अपनी परेशानियां बढ़ाने के लिए। कई बार मेरे मन में विचार आता था कि मनमोहन जी के दिमाग में इतने नए-नए आइडिया आते कहां से हैं। तो एक दिन पूछ ही बैठा तो उन्होंने बताया कि मैं सड़क पर चलते समय आंखे और दिमाग खुला रखता हूं और होने वाली छोटी-मोटी घटनाओं पर नजर रखता हूं। फिर उसे अपनी तरह से पेश कर देता हूं। जो अधिकतर सफल हो जाती हैं। बस उसमें कुछ चटपटा मसाला या कभी कुछ मीठा चासनी जैसा घोलकर पेश कर देता हूं। तो लोगों को मजेदार लगने लगता है। सच पूछो तो हमे भी कई बार आश्चर्य होता है कि यह सब मैंने ही किया है। फिर सोचता हूं कि यह सब तो मैं ही कर सकता हूं। पर यह सब करने में मजा बहुत आता है।
मनमोहन देसाई (26 फरवरी 1937 – 1 मार्च 1994) एक भारतीय फिल्म निर्माता और निर्देशक थे। वह 70 और 80 के दशक के सबसे सफल फिल्म निमार्ताओं में से एक थे। देसाई बॉलीवुड के एक प्रभावशाली और चर्चित फिल्म निर्देशक थे और प्रकाश मेहरा और नासिर हुसैन के साथ मसाला फिल्में बनाने में अग्रणी थे । मनमोहन देसाई गुजराती वंश के थे। उनके पिता, किकुभाई देसाई, एक भारतीय फिल्म निर्माता और 1931 से 1941 तक पैरामाउंट स्टूडियो (बाद में फिल्मालय) के मालिक थे। उनकी प्रस्तुतियों में, मुख्य रूप से स्टंट फिल्में शामिल थीं, जिनमें सर्कस क्वीन , गोल्डन गैंग और शेख चाल्ली शामिल थीं । मनमोहन देसाई के बड़े भाई, सुभाष देसाई 1950 के दशक में निमार्ता बन गए और उन्होंने मनमोहन को हिंदी फिल्म छलिया (1960) में पहला ब्रेक दिया। बाद में सुभाष ने निर्देशक के रूप में मनमोहन के साथ ब्लफ मास्टर , धरम वीर और देश प्रेमी का निर्माण किया। मनमोहन देसाई का सिनेमा मसाला-सिनेमा है। वे दूसरे फिल्मकारों की तुलना में डबल तड़का लगाकर अपने दर्शकों को परोसते थे। वह यह बात अच्छी तरह जानते थे कि देश के फिल्म समीक्षक उन्हें निजाम आॅफ नानसेंस (बकवास का बादशाह) या फिर ड्रीम आॅफ एम्परर (सपनों का शहंशाह) विशेषणों के साथ खिल्ली उड़ाते हैं। मनमोहन ने अपने आलोचकों की कभी परवाह नहीं की। जो रास्ता एक बार तय कर लिया था, आखिरी समय तक उस पर चलते रहे। उनका सीधा तर्क था- ‘सिनेमा मेरे लिए शिक्षा तथा कला बिलकुल नहीं है। महंगाई, बेरोजगारी, गरीबी भ्रष्टाचार और अभावों के बीच रहने वाला आदमी जब फिल्म देखने के लिए आता है, तो उसे मनोरंजन और सिर्फ मनोरंजन चाहिए। मैं हमेशा मनोरंजन प्रधान फिल्में बनाता रहूंगा। जब नहीं बना पाऊंगा, तो फिल्मों से संन्यास ले लूंगा।’
मुम्बई के गुजराती परिवार में जन्मे मनमोहन देसाई के पिता का साया उन पर से साढ़े तीन साल में ही उठ गया था। उनसे बड़े सुभाष देसाई हैं, जो फिल्म लाइन में आ गए थे। सेंट जेवियर्स स्कूल-कॉलेज से मनमोहन ने इन्टरमीजिएट तक शिक्षा प्राप्त की। बीस साल की उम्र में बड़े भैया सुभाष से कहा कि उन्हें फिल्मों में किस्मत आजमाना है। तो सुभाष ने अपने पास उन्हें असिस्टेंट के तौर पर रखा था। फिर कुछ समय बाद सुभाष ने मनमोहन से कहा तुम खुद अपना काम शुरू करो। सुभाष ने पूछा कौन सा हीरो और कौन सी हिरोइन चाहिए। तब उन्होंने अंतरराष्ट्रीय प्रसिद्धी वाले राज कपूर और नूतन को फिल्म में लेने का विचार किया। राजकपूर को जब कहा गया तो उन्होंने अपने ही अंदाज में जोर का ठहाका लगाते हुए कहा कि सुभाष अब बच्चों की फिल्मों में काम करवाओगे। मनमोहन की उस समय उम्र कम थी, तब सुभाषा ने कहा कि जब आपने फिल्मों में काम किया था, तब आपकी भी उम्र कम थी। उनकी इस बात से प्रभावित होकर राजकपूर ने कहा कि पहले फिल्म का एक गाना शूट करते हैं उसके बाद तय करूंगा की मनमोहन के साथ काम करूंगा या नहीं। फिर क्या था मनमोहन ने गाने की इतनी जबरदस्त तैयारी की कि राज कपूर आश्चर्य चकित रह गए। गाना था छलिया मेरा नाम, छलना मेरा काम जो आज भी भी लोकप्रिय है। इस पहली फिल्म के पालने से ही मनमोहन के पांव दिखाई दे गए थे कि वे कितना आगे जाएंगे।अपनी एंटरटेनिंग स्टाइल से उन्होंने राज साहब को प्रसन्न किया। फिर उनकी मदद से कल्याणजी-आनंदजी से राज साहब की पसंद का संगीत भी तैयार कराया। फिल्म हिट हुई। मनमोहन जब फिल्मों में आए तब दिलीप देव-राज की त्रिमूर्ति के अलावा शम्मी कपूर रिबेल हीरो के रूप में तेजी से उभर रहे थे। उन्होंने सम्मी को लेकर फिल्म ‘ब्लफ मास्टर’ तथा ‘बदतमीज’ फिल्में बनाई। फिल्मों ने औसत सफलता हासिल की। ब्लफ मास्टर का हंसी- मजाक-जोश-खरोश में फिल्माया गाना ‘गोविंदा आला रे’ हर जन्माष्टमी पर मक्खन की हंडिया फोड़ते समूह द्वारा जोर-शोर से गाया जाता है। दरअसल मनमोहन , राजकपूर के स्कूल के विद्यार्थी थे। गुरु तथा चेले में अंतर यही था कि राज कपूर की फिल्म स्टाइल का यह सरलीकरण कर देते थे।
मनमोहन की फिल्मों में ऐसे-ऐसे सीन देखने को मिलते हैं कि जादूगर पी.सी. सरकार भी वैसा जादू कभी नहीं दिखा पाते। अथवा कोई बेटमैन-सुपरमैन-स्पाइरमैन भी जिसे संभव नहीं कर पाता, उसे मनमोहन की फिल्म का साधारण कलाकार संभव बना देता था। फिल्म मर्द में हवाई जहाज आसमान में उड़ रहा है। जमीन पर दारासिंह खड़े हैं। वह रस्सी का फंदा इतनी ताकत से उछालते हैं कि वह हवाई जहाज के पंखों में उलझकर उसे जमीन पर उतरने को मजबूर कर देता है। यह भले ही अति हो, मगर दर्शक दारासिंह के हाथों से यह कमाल देखते हैं, तो आसानी से भरोसा कर तालियां पीटने लगते थे। फिल्म कां हीरो किसी इमारत की दसवीं मंजिल से नीचे गिर रहा है, तो सड़क पर कपड़ों से लदा ट्रक गुजरता है, जो उसे बचा लेता है। भारतीय पौराणिक कथाओं में जो किरदार तथा चमत्कार हुए हैं, उन्हें आधुनिक अंदाज में परदे पर दिखाने में मनमोहन की महारत को सलाम करने का चाहता है। इसके पीछे एक सच्चाई यह है कि डायरेक्टर बनने के पहले मनमोहन की ट्रेनिंग सिनेमाटोग्राफर बाबू भाई मिस्त्री के निर्देशन में हुई। बाबू भाई धार्मिक फिल्मों की ट्रिक फोटोग्राफीके बादशाह थे। मनमोहन ने उस कला का इस्तेमाल सामाजिक फिल्मों में किया। यह मनमोहन की विशेषता भी है और उनका फॉर्मूला भी है कि उन्होंने बचपन में खोए भाई तथा मां-बाप के फॉर्मूले पर इतना जोर दिया कि वह उनके नाम से पेटेंट बन सकता था। खोए बच्चों की मां का किरदार निभा रही अभिनेत्री निरुपा राय पर तो मजाक में यह लिखा जाता था कि वह ऐसी मां हैं, जो दो बच्चों को भी संभाल कर नहीं रख पाती और वे बचपन में ही बिछुड़ जाते हैं। लेकिन इस फारमूले की शुरूआत के लिए पाठकों को हम याद दिला दें कि बॉम्बे टॉकीज की फिल्म किस्मत (1943) में भी अशोक कुमार अपने मां-बाप से कुंभ बिछड़ जाते हैं। मनमोहन ने विदेशी फिल्मों की कभी नकल नहीं की और न कभी प्रेरणा प्राप्त की। वे भारतीय फिल्मकारों की फिल्मों से ही आइडिया लेकर अगली फिल्म उससे बेहतर बनाने की कला जानते थे। जैसे बीआर चोपड़ा की फिल्म वक्त से आइडिया लेकर अमर अकबर एंथोनी बना कर अधिक सफलता हासिल करने में कामयाब रहे।
मनजी के सितारे : सितारों के मनजी
मनजी में भी कुछ चुंबकीय शक्ति ऐसी थी कि वे जिस सितारे को आॅफर करते वह उनकी फिल्म में काम करने को राजी हो जाता। राज कपूर से उन्होंने शुरूआत की थी। जब राजेश खन्ना सितारा बने, तो उन्हें अपनी फिल्म में मौका दिया। अमिताभ बच्चन को सितारा हैसियत बनाने का श्रेय भी मनजी को जाता है। मनजी पर अमिताभ आंख मूंद कर विश्वास करते थे और कभी उन्होंने सवाल नहीं किया कि फिल्म में उनसे ऐसा क्यूं करवाया जा रहा है? अमिताभ जानते थे कि आम आदमी की नब्ज पर मनजी को गजब की पकड़ है। अमिताभ, मनजी के पसंदीदा एक्टर हो गए थे। कुली फिल्म के सेट पर खलनायक के एक घूंसे से घायल अमिताभ के स्वास्थ्य लाभ के लिए मनजी ने एड़ी- चोटी का जोर लगाया था। जब अमिताभ वापस सेट पर आए थे तब मनमोहन जी ने अमिताभ को कहा था कि मेरी हर फिल्म में आप रहोगे जब तक मैं जीवित हूं। शशि कपूर, ऋषि कपूर, विनोद खन्ना, शत्रुघ्न सिन्हा, धर्मेन्द्र, हेमा मालिनी, परवीन बॉबी जैसे तमाम स्टार्स के साथ उन्होंने फिल्में बनाईं। अपने तीस साल के फिल्म करियर में मनजी ने बीस फिल्में डायरेक्ट की। इनमें से पन्द्रह फिल्मों ने सिल्वर, गोल्डन तथा डायमंड जुबिली तक मनाई थी। मनजी की फिल्में बड़े बजट, बड़े सितारे और भव्यता के साथ बनाई जाती थी। वे भी शो-मैन थे, लेकिन घर की छत पर चढ़कर अपने शो-मैन होने की बात पर वे कभी जोर से नहीं चिल्लाए।
अमर अकबर एंथोनी
यदि मनजी की तमाम फिल्मों को खारिज कर दिया जाए और सिर्फ अमर अकबर एंथोनी फिल्म को ही रखा जाए, तो भी वे हमेशा याद किए जाएंगे और इस मनोरंजक फिल्म के जरिये फिल्म इतिहास में शामिल रहेंगे। बीबीसी लंदन ने जब अपने चैनल पर हिंदी फिल्म दिखाने का फैसला लिया, तो पहली फिल्म थी- अमर-अकबर एंथोनी। इस फिल्म की कव्वाली परदा है परदा बेहद लोकप्रिय हुई। वे मुंबई के खेतवाड़ी इलाके में रहते थे, जहां अक्सर कव्वाली की रातें होती थी। उसका असर उन पर जबरदस्त हुआ। आम आदमी के बीच रहना मनजी को अच्छा लगता था इसलिए मुंबई के पॉश इलाके में रहने के लिए वे नहीं गए। खेतवाड़ी में वे अक्सर आम लोगों के साथ क्रिकेट खेलते थे और उन्हीं के बीच से वे अपनी फिल्मों के लिए किरदार ढूंढ लिया करते थे।
मनमोहन देसाई : आधा हकीकत, आधा फसाना
> एक मार्च 1994 को मनजी ने अपनेघर की पांचवीं मंजिल से कूदकर आत्महत्या कर ली थी। यह कद रहस्य आज भी रहस्य है कि उन्होंने ऐसा क्यों किया।
> मनमोहन देसाई अपनी वेन (कार) में कभी बैठकर सफर नहीं करते थे। पिछली सीट पर लेट जाते थे। ऐसी स्पेशल वैन उन्होंने अपने तथा अमिताभ के लिए डिजाइन कराई थी।
> मनजी कभी टीवी नहीं देखते थे। कभी देखना होता, तो टीवी स्क्रीन की इमेज को दर्पण में देखा करते थे। उनका मानना था कि इससे आंखें खराब नहीं होती।
> मनजी शराब, सिगरेट, गुटखा का इस्तेमाल नहीं करते ने। सिर्फ दिलचस्प सपने देखते थे। मनजी अपनी हीरोइनों में पापुलर थे, लेकिन कभी किसी से अफेयर नहीं किया।
> गंगा जमुना सरस्वती, तूफान फिल्मों के पिटने के बाद वे मनजी डिप्रेशन के शिकार हो गए थे।