शशी कुमार केसवानी

बचपन कितना सुहाना होता है, इस बात का एहसास तब होता है जब 60 पार कर जाते हैं। वह सुनहरी यादें दिलों-दीमाग में अपना घर बना लेती हैं और किसी न किसी रूप से अक्सर सामने आती हैं। हम दोनों जमूरे एक ही उत्साद के हाथ के निकले हुए हैं। मतलब हमारे पिता ही हमारे उस्ताद रहे। उन्होंने जो-जो सिखाया आज भी उसी राह पर चलते हैं। पढ़ाई के अलावा हमेशा उन्होंने अन्य भाषाओं पर जोर देकर हमारे जीवन में एक खजाना भर दिया। चाहे वह हिंदी, उर्दू, सिंधी, अरबी और फारसी से पूरी तरह लबरेज कर दिया। हमें याद है मेरे जन्म दिन पर पिता जी घर पर हलवा बनवाते थे, पर राजकुमार जी के जन्मदिन पर कहते थे सुबह तो हलवा बनेगा ही साथ ही साथ में दिन में राजकुमार जी की पसंदीदा मिठाई गुलाब जामुन भी आएंगे। इस बात पर मैं कहता था कि मेरे जन्म पर तो नहीं आते तब पिता जी कहते थे, इसके मुंह में जब तक गुलाब जामुन नहीं जाएगा। तब तक इसकी खुशी बाहर नहीं दिखेगी। क्योंकि यह बचपन से ही गुलाब जामुन का ऐसा प्रेमी रहा है कि सुबह-सबेरे इसके लिए घंटे वाले की दुकान पर शर्मा जी को उठाकर भी लाता था। क्योंकि इसकी आंख गुलाब जामुन के अलावा खुलती थी नहीं थी। इसलिए तो इसका हक बनता है कि यह अपने जन्म दिन पर पसंद की चीज की खाए। उस जमाने में केक का चलन उतना नहीं होता।

साधारण घरों में लोग बड़ों के पैर पड़ लेते थे और आशीर्वाद ले लेते थे। राजकुमार जी यह अधिकार केवल अपने माता-पिता को देते थे और किसी के पैर नहीं पड़ते थे। हां दादा-दादी और नाना-नानी के जरूर पैर पड़ते थे। चाचा रतनलाल जी से अपार प्यार होने की वजह से उनके तो हर कभी पैर पड़ लेते थे। कुल मिलाकर पीछे मुड़कर देखता हूं तो अब बस यह सुनहरी यादें ही दिलों दिमाग में बसी रहती हैं। धीरे-धीरे समय के साथ हम बड़े होते गए। जमाना बदलता गया। हम भी उस बदलाव में हलवे और मावा बाटी से केक और अन्य व्यंजनों की तरफ मुड़ते गए, पर उनके लिए हमेशा मावा बाटी तो मैं स्पेशल बनवाता ही था, केक काटने में जरूर वे झल्लाते थे। पर उनकी झल्लाहट में मुझे जो मजा आता था। वह शायद शब्दों में बयां नहीं कर सकता। बाद में अक्सर कहते थे, यार तुम बहुत दीवाने टाइप के आदमी हो। मेरे से सब उल्टे-सीधे काम करवा लेते हो। अब यह बताओ मावा बाटी कहा है। वह मैं उन्हें आखिर में ही देता था। हमे याद है, उनके कुछ बचपन के दोस्तों ने एक बार उनका जन्म दिन भोपाल के इब्राहिमपुरा स्थित पटेल होटल में मनाया था।

इस आयोजन को मुजाहिद जो उनका बचपन का दोस्त था, उसने आयोजित किया था। इसमें सुरेन्द्र पाल सिंह जो राजकुमार जी के सबसे प्रिय मित्र रहे। वसीम, रईस, तेजिंदर, संतोष, प्रेमनारायण और बचपन के कई अन्य मित्र शामिल हुए। आयोजन के लिए पटेल होटल की नमक वाली चाय और समोसे की पार्टी थी पर कुछ देर बाद समोसा पार्टी से हटकर मावा बाटी पार्टी होती चली गई। क्योंकि उनके सभी मित्र इस बात से वाकिफ थे। इसलिए कुछ मित्र मावा बाटी लेकर आए। तभी वहां पर मशहूर शायर ताज भोपाली भी तसरीफ लाए। उनके पीछे-पीछे कैफ भोपाली व अन्य कई साहित्य प्रेमी और शायर भी वहां तसरीफ ले आए। राजकुमार जी अचानक ठहाका मारते हुए कहते हैं मुजाहिद देखना अभी तक तो पार्टी मीठी-मीठी चल रही थी, ऐसा न हो कि कहीं थोड़ी देन में सुरूर पार्टी हो जाए। मुजाहिद भी सुर से सुर मिलाते हुए कहता है कि चलो खां चलो दावत हो गई अब सब निकल लो। हालांकि इस आयोजन की जानकारी बहुत कम लोगों को ही थी। पर अक्सर यह सभी लोग वहां आया करते थे। तो अचानक पहुंच गए। जिससे इस आयोजन की भव्यता और सुंदरता दोनों ही बढ़ गई और यादगार भी हो गया। उस जमाने में इस तरह के आयोजन बहुत ही कम हुआ करते थे। जब दोनों भाई वापस घर आ रहे थे हमें कहते हैं अरे यार यह फालतू का मुजाहिद ने फैलावा कर दिया। अब तुम्हीं दादा से पैसे लेकर होटल वाले को पहुंचाना। मैंने कहा पर मजा बहुत आया। अब तुम्हें क्या है, तुम्हें तो मजे ही चाहिए। घर पर जब जवाब देना पड़ेगा तब आएंगे तुम्हारे मजे।

हम दोनों भाई हमेशा एक दूसरे से दिल के भीतर की बातें खुलकर करते थे। यहां तक की साथ में कई होटलों में खाना खाने जाते थे। पैग की महफिल भी उनकी खुशी के लिए भी साथ में ही जमा लेते थे। हर समय हम दोनों में खुले दिल से बात होती थी। रूठना-मनाना जीवन का एक हिस्सा था। बिना लड़े दोनों को कभी मजा नहीं आया। दोनों कोरोना के दौरान भी इस तरह से जुड़े रहे की मानो दो जिस्म एक जान हो। हालांकि उन्हें मैंने काफी समय तक इस बात की जानकारी नहीं दी थी कि मैं भी हॉस्पिटलाइज था। पर वे जब बंसल में शिफ्ट हुए तब उन्हें पता चला कि मैं भी दस दिन तक हॉस्पिटल में रहकर आया हूं। तब वह बहुत नाराज हुए। उसी दौरान उन्होंने कुछ बातें ऐसी बताई जिन्हें जानकर मैं आश्चर्य चकित रह गया। इसके बाद तो उनकी स्थिति बिगड़ गई तो कई बातें कह न सकें। बाद में मैंने महसूस किया कि इस कोरोना के दौरान कई चीजें ऐसी हो गर्इं जिसकी कल्पना हमने कभी की नहीं थी। घटना-दुर्घटना के इस शोर में मैंने तो अपना भाई खोया ही सही, पर वह जो चीजें अपने दिल में लेकर गए उस बात का हमें बहुत अफसोस होता है। जिसमें मैं उनकी कोई मदद न कर सका और उनका दर्द उस तरह से न बांट सके जो उनके दिल के भीतर घर कर गया था। बस मैं दुनिया में उनकी सुनहरी यादों के साथ बहुत अकेला सा रह गया। बता दें कि हमारे बड़े भाई राजकुमार केसवानी का आज जन्म दिन है। उनका जन्म 26 नवंबर 1949 में हुआ था। अगर वह आज होते तो आज हम उनका 75वां जन्म दिन मावा बाटी के साथ मना रहे होते। पर हमें याद आते हैं वो पुराने दिन वो सुहाने दिन वो आशिकाने दिन ओस की नमी में भीगे वो पुराने दिन दिन गुजर गए हम किधर गए पीछे मुड़ के देखा पाया सब ठहर गए अकेले हैं खड़े कदम नहीं बढ़े चल पड़ेंगे जब भी कोई राह चल पड़ें जायेंगे कहा है कुछ पता नहीं कहां रहें हैं (वो) कि हम ने किया खता नहीं वो पुराने दिन।

तुम्हारी उपस्थिति में ह्रदय भरा रहता था हमेशा।
और तुम्हारी अनुपस्थिति में आँखे भी साथ छोड़ देती है।
दोनो परिस्थितियो में मेरे भीतर की मनोदशा कोई नही जान सकता।
कोई भी नही तुम भी नही!

Shashi Kumar Keswani

Editor in Chief, THE INFORMATIVE OBSERVER