राजेश बादल

ब्रजेश राजपूत की पाँचवीं पुस्तक ऑफ़ द कैमरा पढ़ चुका हूँ। एक बार में ।पहले पन्ने से आख़िरी पन्ने के अंतिम शब्द तक और उसके बाद बैक कवर पर बृजेश के परिचय तक। अब सोचता हूं कि लिखूं तो क्या लिखूं । जब वर्तमान आपके सामने अतीत बनता है और फिल्म की शक्ल में इतिहास का दस्तावेज़ बनता है तो वह सिर्फ़ महसूस किया जा सकता है।उसे शब्दों में व्यक्त करना असंभव होता है।लेकिन भाई ब्रजेश ने इसे संभव कर दिखाया है।अपनी इस दो सौ चौदह पन्नों की गागर में वर्षों का सागर भरकर दिखाया है ।

पुस्तक के बहाने ब्रजेश की तारीफ़ लिखना मेरा मक़सद नही है और न ही मुझे कोई भ्रम है कि मेरी प्रशंसा से कोई पाठक प्रभावित हो सकता है ।इसके बावजूद मैं कहना चाहूंगा कि अपनी पत्रकारिता के पैंतालीस बरस में से चौंतीस साल टीवी माध्यम के साथ बिताने के बाद मैं भी उन घटनाओं की ऐसी बयानी नहीं कर सकता ,जो ब्रजेश शायद चुटकी बजाते कर देते हैं ।मेरे मातहत इकतीस साल पहले एक नए नवेले पत्रकार ने काम सीखना शुरू किया था।आज वह हिंदी पत्रकारिता का भरोसेमंद नाम बन चुका है।अपनी अगली पीढ़ी को इस तरह आगे बढ़ते देखकर वाकई दिल की गहराइयों से खुशी होती है।

लौटता हूँ ब्रजेश के इस नए शाहकार पर। एक शब्द में कहूँ तो अदभुत।अनेक विश्वविद्यालयों में टीवी पत्रकारिता पढ़ाने जाता हूँ तो छात्रों को एक ही मंत्र देता हूँ – अगर तुम्हारी कॉपी पढ़ते समय आँखों के परदे पर चित्र उपस्थित हो जाए तो समझ लो कि लिखना आ गया। इस नज़रिए से प्रेमचंद से बड़ा कोई लेखक नहीं। आज़ादी से ग्यारह साल पहले वे इस लोक से चले गए ,लेकिन उनकी एक एक रचना पढ़िए।चित्र उपस्थित हो जाता है। कई बार आँसू भर आते हैं। डॉक्टर धर्मवीर भारती ,फणीश्वर नाथ रेणु और शरद जोशी इसी श्रेणी के रचनाकार हैं। ब्रजेश की यह किताब उन्हें इस कतार में खड़ा होने के लिए प्रतीक्षा सूची में आने की अनुमति देती है। लेकिन पूरे सम्मान के साथ उनसे कहना चाहूँगा कि यह मंज़िल नहीं है।मैं तुम्हारे लेखन में और निखार देखना चाहता हूँ।उसके लिए और अध्ययन ,चिंतन, और तनिक गहराई की ज़रुरत है।चूँकि आज के पाठक भी उतने गंभीर और जानकार नहीं रहे हैं इसलिए वे उन टूटे तारों को नहीं पकड़ सकेंगे ,जो मैं पकड़ सकता हूँ। उस नज़रिए से अपने शिल्प को और माँजना पड़ेगा।

वैसे तो पुस्तक का हर अध्याय मेरे लिए महत्वपूर्ण है। पर वर्षों तक साथी और मित्र रहे राजकुमार केसवानी पर लिखा शब्द चित्र श्रेष्ठतम है।बहुत से सवालों के जवाब राम के ही पास हैं का तो कहना ही क्या।राम पूजन जब कहता है कि लॉकडाउन में ज़िंदगी ही लॉक हो गई है,तो दिल काँप उठता है।मौत का कुँआ,कुंजीलाल चले गए,रोमीजी का जाना,टाइगर कथा,धुएँ में जाती माँ और जब्बार ने नहीं मानी हार संवेदनशील लेखन का उत्कृष्ट नमूना है।अलबत्ता ब्रजेश भाई को एक सलाह अवश्य देना चाहूँगा। सियासी लेखन थोड़ा कम कर दें। ज़िंदगी के विविध रंगों पर ही कलम आजमाएं। सियासी विषयों पर लेखन कभी कभी क्रूर और बज्र जैसे कठोर शब्दों की माँग करता है ,जो तुम्हारे जैसा नरम मिजाज़ का मालिक नहीं कर पाएगा। इसलिए यह मेरी हार्दिक इच्छा है कि तुम राजनीतिक विषयों को पुस्तकों का विषय नहीं बनाओ ।पर चूँकि पत्रकारिता बिना सियासी लेखन के नहीं चलती तो उन विषयों पर अलग से किताब लिखो । वह ज़्यादा पसंद की जाएगी। आज के नेता हमारी ज़िंदगी के खलनायक हैं। अब वे लेखन के सुपात्र नहीं , कुपात्र हैं। जब आप उनकी तारीफ़ में कुछ लिखते हैं तो वह अतिरिक्त प्रशंसा दिखती है। भले ही वह सौ फ़ीसदी निरपेक्ष हो।अनाथ बालक इसी श्रेणी का लेखन है। उन बच्चों की बात आज कौन सुन रहा है ,लेकिन ऐसे कवरेज को हम दस्तावेज़ बना देते हैं। मैं उम्मीद करूँगा कि इस सलाह को अन्यथा नहीं लोगे।

अंत में मंजुल पब्लिशिंग हाउस की मुद्रण प्रवीणता को धन्यवाद दिए बिना इस टिप्पणी का समापन नहीं हो सकता। भले ही वे भोपाल के हों ,लेकिन उनकी क़ाबिलियत अंतरराष्ट्रीय स्तर की है। पढ़ते समय पुस्तक का आकार ,फ़ॉन्ट , पृष्ठों की संख्या ,काग़ज़ का चुनाव और कवर पर रंग संयोजन बेजोड़ है। यह किताब को देखकर ही ख़रीदने और पढ़ने की ललक जगाता है। एक लेखक को और क्या चाहिए ?

Shashi Kumar Keswani

Editor in Chief, THE INFORMATIVE OBSERVER