रंजन श्रीवास्तव
गांव के अन्य बहुत से लोगों की तरह मैं महाकुम्भ तो वैसे भी जाता। मुझे किसी के आमंत्रण की जरूरत नहीं थी। जो परम्परा सदियों से चली आ रही है वह मैं छोड़ नहीं सकता था। पर रास्ते में सवारी गाड़ी में भीड़ और महाकुम्भ में देश भर से आयी भीड़ की सोचकर पत्नी और बच्चों को साथ में ले जाने का इरादा छोड़ दिया था। माँ और पिताजी को लेकर जाना था। पर तभी मुझे टीवी और अखबार में सरकार का बार बार प्रचार दिखने लगा कि प्रयागराज में इस महाकुम्भ का संयोग 144 साल बाद बना है और यह कि सरकार आने वाले श्रद्धालुओं के आने जाने तथा महाकुंभ में स्नान के लिए सारी व्यवस्था कर रही है। यह सोचकर कि अगला पूर्ण महाकुम्भ तो अब 144 साल बाद आएगा मैंने बच्चों और पत्नी को भी साथ में ले लिया। बस और ट्रेन में भीड़ नहीं बल्कि महाभीड़ थी। हिम्मत बार बार जवाब दे रही थी पर गांव के अन्य साथियों के साथ की वजह से मेरा हौसला टूटा नहीं और हम लोग यात्रा में अत्यंत परेशानी तथा खाने पीने की दिक्कतों के बावजूद मौनी अमावस्या के दो दिन पहले प्रयागराज पहुँच ही गए। पर अगली परीक्षा बाकी थी।
मेला में जाने के लिए मीलों पैदल चलना पड़ा। बच्चे और बूढ़े माता पिता थक रहे थे पर किसी तरह सामान लादे लादे तथा परिवार को सम्हालते हुए कई घंटों के तपस्या के बाद मेला स्थल पहुँच ही गए। पर वहां संगम जाना मतलब हिमालय चढ़ने जैसा साबित हुआ। लकड़ी के लट्ठों के किलेबंदी के बीच हम कहाँ जा रहे हैं पता ही नहीं चलता था। उस महाभीड़ में आश्चर्य ये हुआ कि कई नेता, उनके साथ कई लोग तथा सुरक्षाकर्मी गाड़ियों में दूर से जाते दिखे। उनके लिए कोई बंदिश नहीं थी। बड़े बड़े अखाड़े भी मुंह चिढ़ा रहे थे। लग रहा था कि महाकुम्भ सिर्फ इन बड़े लोगों के लिए है और आम जनता की भागीदारी सिर्फ एक रस्म अदायगी। सुना था की सरकार ने पूरे मेले के आयोजन पर 7000 करोड़ रूपये खर्च किये हैं। तो क्या इतने रूपये इसीलिए खर्च किये गए कि हम जैसे लोग बूढ़े माता पिता और छोटे बच्चों के साथ सामान की गठरी सर पर लादे मीलों मील पैदल चलें और वीआईपी लोग गाड़ियों में दनदनाते हुए हम लोगों को एक तरह से चिढ़ाते हुए मेले में यहाँ से वहां जाते रहें?
हम लोग इधर उधर धक्के खाते रहे। कभी एक पूल की तरफ जाते तो पता चलता कि वह बंद किया गया है। फिर दूसरे पूल की तरफ। ऐसे कई पूल बंद मिले। पुलिस वाले लोगों से पूछने पर यही जवाब मिलता कि “चलते रहो चलते रहो”। किसी तरह इधर उधर भटकते भटकते 28 जनवरी की रात हम लोग संगम से कुछ दूर थे। हम लोगों ने सोचा कि रात के 12 बजते ही 29 तारीख हो जायेगा और हम लोग संगम पर स्नान करके वापस घर की तरफ प्रस्थान कर देंगे। पर 12 बजे के बाद संगम जाना संभव नहीं था क्योंकि पुलिस के लोग आगे नहीं जाने दे रहे थे। शायद वो लोग अखाड़ों के शाही स्नान के बाद ही भीड़ को आगे जाने देना चाहते थे। पिछले कुम्भ में ऐसा नहीं था। 12 बजे के बाद नहाने की अनुमति थी। जैसे जैसे समय बढ़ता गया भीड़ पीछे से बढ़ती गयी। भीड़ में दम घुट रहा था। वहां से वापस जाने की सोचा पर भीड़ के दवाब की वजह से वह भी संभव नहीं था। तभी भगदड़ मची। लोग एक दूसरे के ऊपर गिरे। सभी अपनी जान बचाते हुए इधर उधर भाग रहे थे। लगता था कि भूचाल आ गया हो।
कई महिला पुरुष नीचे गिरे और भीड़ उनके ऊपर से गुजर रही थी। हम लोग अपने आपको बचाते हुए जल्दी से जल्दी वहां जाना चाहते थे जहाँ भीड़ ना हो। चोटें लगीं, सामान को फेंकना पड़ा पर जान बचाने में सफल हुए। सबसे अधिक इस बात की ख़ुशी थी कि परिवार सलामत था पर शाम तक पता चला कि 30 लोगों ने अपनी जान गवां दी। हम लोग अपने गाँव में हैं पर उस दृश्य को भूलना जीवन भर मुश्किल है। बार बार यह सवाल मन में आता है कि सरकार अगर लोगों की जान की सुरक्षा नहीं कर सकती और सिर्फ बड़े लोगों के लिए ही महाकुम्भ है तो हम लोगों से बार बार महाकुम्भ आने की अपील की क्या जरूरत थी और क्या जरूरत थी इतने प्रचार की? मेरे मन में बहुत से सवाल हैं पर पता है कि उसका ईमानदारी भरा जवाब सरकार और प्रशासन के पास नहीं है। पर मेरे पास उन सवालों के जवाब हैं वह यह कि आम जनता की नियति ही यही है। हमारे हिस्से में भगदड़ और मौते हैं और बड़े लोगों के हिस्से में सरकारी तंत्र की असीम सुख सुविधा और राजाओं जैसा ऐश्वर्य।