जयराम शुक्ल

सभी स्वतंत्रताएं तर्कसंगत सीमा का विषय होती हैं, और इसमें जिम्मेदारी भी निहित होती है। एक लोकतंत्र मे हर कोई जनता के प्रति उत्तरदाई है, हमारा मीडिया भी।” चोरी कर के भागने वाला चोर जिस तरह भीड़ में शामिल होकर चोर-चोर चिल्लाने लगता है, इतिहास में संविधान से खिलवाड़ करने वाले, उसकी धज्जियां उड़ानें वाले, संविधान की सुरक्षा की अज़ान दे रहे हैं। सबकुछ इतना गड्ड-मड्ड है कि कोई सिरा सूझ नहीं पड़ता।

वास्तव में देश में कुछ समूह खुद को संविधान से ऊपर या संविधान को ही नहीं मानते। इन्हें संसद, कार्यपालिका समेत अन्य लोकतांत्रिक संस्थाओं पर विश्वास नहीं। इन्हें न्यायपालिका पर भी अँगुली उठाने से परहेज़ नहीं। यह लोकतंत्र की महत्ता कि हम ऐसे समूहों को भी बर्दाश्त करते रहते हैं, लेकिन ये स्थितियाँ हमारे गणतंत्र को संक्रमित करने वाली हैं। आखिर यह क्यों? जवाब हर विवेकवान नागरिक के पास है। सरकारें राजनीतिक दलों की बनती हैं। उस तख्त-ए-ताऊस पर कब्जा करने के लिए वोट की जरूरत पड़ती है और ऐसे अराजक समूहों को साधना अब वोटबैंक सुनिश्चित करना होता है।

निर्वाचित सरकारों को इसके लिए कास्ट-क्रीड-रेस के भेदभाव से ऊपर उठकर लोकमंगल के लिए ली गई शपथ को भूलना पड़े तो वह भी चलेगा। गणतंत्र इन सब भेदभावों से ऊपर ऐसी समदर्शी व्यवस्था है जिस पर चलने में दुनिया के अधिसंख्य राष्ट्र खुद को गौरवान्वित महसूस करते हैं। क्या अपना गणतंत्र आज ऐसी स्थिति में है? ध्यान रखियेगा पैदा किए गए प्रेतों को जब शिकार नहीं मिलता तो वे पैदाकरने वाले का ही शिकार करने लगते हैं।

मनुस्मृति (इन दिनों सबसे ज्यादा गाली खाने वाला पवित्र ग्रंथ) के सातवें अध्याय में राज्य की व्यवस्था और राजा के कर्तव्यों का वृतांत है। इसमें एक श्लोक है जिसका भावार्थ है- ‘यदि राजा दंडित करने योग्य व्यक्तियों के ऊपर दंड का प्रयोग नहीं करता है, तो बलशाली व्यक्ति दुर्बल लोगों को वैसे ही पकाएंगे जैसे शूल अथवा सींक की मदद से मछली पकाई जाती है’।

बढ़ते हुए हुड़दंग और अराजकता की घटनाओं का सिलसिला यह बताता है कि दंड का भय समाप्त होता जा रहा है इसलिए अब कोई कानून की परवाह नहीं करता। लेकिन यह अर्धसत्य है। सत्य यह है कि दंड समदर्शी नहीं है। उसमें आँखें उग आई हैं तथा वह भी अब चीन्ह-चीन्ह कर व्यवहार करना शुरू कर दिया है। कानून की व्याख्या वोटीय सुविधा के हिसाब से होने लगी है।

समारोहों में कास्ट-क्रीड और रेस से ऊपर उठकर लोकमंगल के लिए काम करने की जो संवैधानिक शपथें ली जाती हैं वे दिखावटी हैं। इसीलिये हमारे गणतंत्र की पीठपर बैठकर अराजक हुड़दंगतंत्र अट्टहास कर रहा है और हमारा लोकतंत्र प्रौढ़ होने के पहले ही क्षयरोग का शिकार होकर हाँफने सा लगा है। यदि हम गणतंत्र की गरिमा, उसके आदर्श और उसकी अभिलाषा के सम्मान की रक्षा में असमर्थ हैं तो फिर राजपथ में और तमाम जगह-जगह छब्बीस जनवरी का कर्मकाण्ड किसको दिखाने के लिए हर साल रचाते हैं? सोचना होगा।

पुनश्च:
बाबा साहेब डा.भीमराव अंबेडकर ने भारत का संविधान रचा। निर्वाचित जनप्रतिनिधियों से अपेक्षा की कि- जाति-धर्म-नस्ल-रंग और लिंग भेद से ऊपर उठकर समदर्शी भाव से राजधर्म का पालन करेंगे। संसद व विधानसभाओं में ऐसी शपथें भी ली जाती हैं। लेकिन वही लोग डा.अंबेडकर को जातीय राजनीति का प्रादर्श बनाकर प्रभात फेरियां निकालने लगे।
जिस आरक्षण को लेकर अंबेडकर ने संविधान सभा में कैफियत दी कि प्रत्येक दस वर्ष में इसके फलितार्थ की समीक्षा की जाए फिर तय किया जाए कि इसे जारी रखना है कि नहीं। आज धोखे से भी कोई उनकी ही बात दोहरा दे तो अंबेडकर के नाम की शपथ खाने वाले यही लोग उसकी जीभ काटने के लिए हर चौराहे पर उस्तरा लिए खड़े मिलेंगे!

# ऊधौ कहि न जाय का कहिए
देखत अति रचना विचित्र
बस समुझि मनय मन रहिए..!

Shashi Kumar Keswani

Editor in Chief, THE INFORMATIVE OBSERVER