शशीकुमार केसवानी
भोपाल गैस कांड के 40 साल बीत गए हैं। इन 40 सालों में मैंने बहुत बड़ी अनहोनी घटनाएं देखी हैं। पर भोपाल गैस त्रासदी जैसी घटना की कल्पना करना भी बहुत मुश्किल हैं। 3 दिसंबर 1984 की काली रात दूरदर्शन पर बढ़िया दामाद पिक्चर देखकर सोए थे। तभी देर रात मैंने अपने कमरे से बड़े भाई को फोन करा कि भाई मेरे को लग रहा है कि गैस लीक हो गई है। वे गुस्से में बोले किचन में जाकर देखो, मैंने कहा नहीं भाई यूनियन कार्बाइड में कुछ हुआ है। तब तक उनके कमरे में गैस का कोई असर नहीं हुआ था। मेरे इतना कहते ही उन्होंने कहा कि तौबा-तौबा अब इस कहर से बचना बहुत ही मुश्किल है। हमने बिना देर किए मफलर गीले किए मुंह और नाक पर बांध दिए, सबने चश्में पहन लिए और पानी की बाल्टियां भरकर कमरों में रख दी। इसी दौरान जल्दी से इतवारे वाले घर से निकलने की तैयारी की। मैं और मेरे माता-पिता को एक ही स्कूटर पर लेकर अरेरा कॉलोनी स्थित सरदार गुरुवचन सिंह के घर पहुंचा। भाई गलती से अपने मित्र राजेन्द्र बब्बर के घर भाभी और छोटी बहन को लेकर पहुंचे। मैं माता-पिता को छोड़कर अपना मफलर गीला करके वापस शहर की तरफ आया तब तक बड़े भाई भी वापस लौटकर आ गए थे, लेकिन लोगों को कुछ पल्ले नहीं पड़ रहा था। उनका मानना था कि गैस की टंकी फटी है। फिर हम दोनों प्लांट की तरफ जब जा रहे थे, तब रास्ते में इतनी लाशे देखी की होश ही उड़ गए। इतने मवेशी मरे पड़े थे कि गिनना नामुमकिन था। उसके बाद स्टेशन पहुंचे तो लोगों की जगह लाशों का ढेर लगा था। ट्रेनें निकालते -निकालते हरीश धुर्वे ने भी अपनी जान गंवा दी। कहीं कोई सरकारी अधिकारी नहीं था। ले-देकर पुलिस कंट्रोल रूम में एएसआई चौहान और चाहत राम मौजूद थे, जो फोन पर केवल जानकारी दे पा रहा था। प्रशासन-शासन, मंत्री यहां तक की तत्कालीन मुख्यमंत्री, उपमुख्यमंत्री शहर छोड़कर भाग चुके थे। ऐसे मंजर मैंने अपनी आंखों से देखें हैं। अगले दिन तो हमीदिया अस्पताल में फिर अफवाह फैली की गैस फिर से ली हो गई है, तो लोग अपने ही सगे-संबंधियों के छाती पर पैर रख-रखकर अपनी जान बचाने के लिए दौड़ लगा दी। इस हादसे में भी बहुत मौतें हो गई। क्योंकि पीड़ित हमीदिया के बाहर वाले ग्राउंड में पड़े हुए थे।
राष्ट्रीय प्रदूषण नियंत्रण दिवस उन लोगों की याद में मनाया जाता है जिन्होने भोपाल गैस त्रासदी में अपनी जान गवा दी थी। उन मृतकों को सम्मान देने और याद करने के लिये भारत में हर वर्ष 2 दिसंबर को राष्ट्रीय प्रदूषण नियंत्रण दिवस मनाया जाता है। भोपाल गैस त्रासदी वर्ष 1984 में 2 और 3 दिसंबर की रात में शहर में स्थित यूनियन कार्याइड के रासायनिक संयंत्र से जहरीला रसायन जिसे मिथाइल आइसोसाइनेट (एमआईसी) के रूप में जाना जाता है के साथ-साथ अन्य रसायनों के रिसाव के कारण हुई थी। राजकुमार केसवानी देश के पहले पत्रकार थे जिन्होंने भोपाल गैस कांड से तीन साल साल पहले ही युनियन कार्बाइड के संयंत्र में सुरक्षा चूक को लेकर आगाह कर दिया था। उस समय मैं उनका असिस्टेंट के रूप में कार्य करता था। भूमिका प्रिंटर्स पर पेपर की छपाई से लेकर छोटी-छोटी जानकारियां एकत्रित करने का काम किया करता था। हालांकि उस समय भोपाल के कई नामी-गिरामी पत्रकार , लेखक हमारी प्रेस पर बैठे नजर आते थे। इनमें जगत पाठक, राजेश जोशी, शशांक, विजयदत्त श्रीधर जैसे कई बड़े पत्रकार और साहित्यकार शामिल थे।
आखिरकार 3 दिसंबर 1984 को भोपाल में हुई इसर दुनिया की भीषण गैस त्रासदी में 15 हजार से अधिक लोगों की जान चली गई थी। केसवानी ने एक आलेख में लिखा था, 1981 के क्रिसमस के समय की बात है। मेरा और मेरे बड़े भाई के दोस्त मौहम्मद अशरफ यूनियन कार्बाइड कारखाने में प्लांट आॅपरेटर था और रात की पाली में काम कर रहा था। फास्जीन गैस बनाने वाली मशीन से संबंधित दो पाइपों को जोड़ने वाले खराब पाइप को बदलना था। जैसे ही उसने पाइप को हटाया, यह जानलेवा गैस की चपेट में आ गया। उसे अस्पताल ले जाया गया। अगली सुबह अशरफ ने दम तोड़ दिया। तब मेरे बड़े भाई राजकुमार केसवानी ने मेरे से कहा इस मौत का जिम्मेदार मैं ही हूं। मेरे को महसूश हो रहा था कि यह अपने अपराध बोध से से दबे जा रहे थे। तब मैंने कहा कि भाई अपन तो फिर भी कोशिश कर रहे हैं लोग तो कंपनी से पैसा कमाने लगे हैं। लेकिन अपन यह लड़ाई और लड़ेंगे और नए जोश के साथ अब आर-पार ही करके रहेंगे जो हो। इसके बाद हमने तैयारी करके सुप्रीम कोर्ट में कोर्ट पिटीशन भी दायर की। अंधी और बहरी कोर्ट ने भी उस पर कोई सुनवाई नहीं की। पर हम लोग हिम्मत हारे नहीं थे। लड़ाई को जारी रखा। उस समय मैं और मेरे बड़े भाई पत्रकारिता में कुछ छोटी मोटी नौकरियां की थी। बाद में बड़े भाई ने 1977 से अपना एक सप्ताहिक हिंदी अखबार रपट निकाला यह आठ पन्नों का एक टैब्लॉयड था। सकुलेशन महज 2000 था। पर इस बड़ी खबर से धमाका बड़ा हुआ था। बाद में हमने जनसत्ता में भी छपने पर कुछ उथल पुथल हुई थी पर कोई कार्रवाई न हो सकी। तब तक मैं 1960 से प्रकाशित हो रहे चैलेंज का विशेष संवाददाता बन गया था और कार्बाइड के अंदर की कुछ खबरें छापना शुरू की तो प्लांट के वर्कस मैनेजर ने मुकुल जो पूर्व प्रधानमंत्री स्व. नरसिम्हा राव के दामाद थे।
उन्होंने हमें फोन करके पूछा आपकी तकलीफ क्या है। तब मैंने उनसे कहा था कि तकलीफ हमें नहीं, हमारे भोपाल को है। उन्होंने कहा कि नहीं, कोई तकलीफ नहीं है। मैं जल्द ही आपसे मिलकर बात करूंगा। तब तक आप खबरें छापना बंद कर दें। मैंने कहा आप मिले या न मिले कोई फर्क नहीं पड़ता, पर खबरें होंगी तो छपती रहेंगी। शंकर मालवीय, मोहम्मद बसीरुल्लाह को मेरे पास भेजा और कहा कि इसको समझाने की कोशिश करो। जबकि यह दोनों एमआईसी के विरोध में थे। पर उन्हें डरा धमकाकर हमें समझाने के लिए भेजा था। जब बात न बन सकी तो उन्होंने मोहन सिंह जो उनके सारे कामों को अंजाम देता था उसे हमारे पास भेजा। धमकी भरे अंदाज में हमें समझाने की कोशिश की। तब मेरे साथ मित्र मोहम्मद शाहिद बैठे थे। बाल बिहार प्रेस पर। यह देखते ही शाहिद ने मोहन को कुर्सी से उठाया और प्रेस से बाहर धक्का देकर कहा कि अगर अब आए तो अंजाम बहुत बुरा होगा। जिसकी रिपोर्ट मैंने थाना हनुमानगंज में की थी। जिस पर कोई खास कार्रवाई नहीं हुई। क्योंकि उस जमाने में यूनियन कार्बाइड के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की जाती थी। किस्से तो भरे पड़े हैं, जिनको जल्द ही शक्ल भी देने की कोशिश करूंगा।
गैस त्रासदी ने सिखाया कैसे होती है इंटरनेशल रिपोर्टिंग
आखिरकार हमारी सारी कोशिशों के बाद भी गैस त्रासदी की घटना घट ही गई। हमने इसे रोकने की हर संभव कोशिश की पर रोक न सके। हादसे के अगले दिन से ही बोनेस्लेंडर के साथ काम करने लगा जो स्वीडन टाइम्स के साउथ एशिया के विशेष संवाददाता थे। हमें भी पहली बार अंतरराष्ट्रीय मीडिया के साथ काम करने का अवसर मिला था। तब हमें समझ में आया कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर किस तरह से रिपोर्टिंग की जाती है और खबरों पर किस तरह से फोकस किया जाता है। हमे बहुत कुछ नई चीजें सीखने को मिली। साथ ही साथ भोपाल की मीडिया को भी नई चीजें सीखने को मिली। बोनेस्लेंडर ने हमसे कहा कि एक ऐसा व्यक्ति चाहिए जिसका पूरा परिवार इस घटना का शिकार हुआ हो। तब मैंने बताया कि एक व्यक्ति को जानता हूं जिसका पूरा परिवार इस हादसे में खत्म हो गया है। यूनियन कार्बाइड के सामने ही रहने वाला 82 वर्षीय फजलुद्दीन के परिवार के 11 लोग मौत की भेंट चढ़ चुके थे। जब हम उनसे मिलने गए तो बहुत देर तक उनकी दर्द भरी दास्तां सुनने के बाद बो ने मेरे से कहा कि अब अपनी कुछ बातें पूछ लें। तब मैंने उनसे पूछा कि आप तो हम्माली करते हैं, अब आपको इतने पैसे मिलेंगे, आप इसे किस तरह से संभालेंगे और पैसे का क्या करेंगे। तब फजलुद्दीन ने बताया कि जब मेरा परिवार था तब हम सोचते थे कि कभी पैसा आएगा तो हम यह खरीदेंगे, यह खाएंगे और ऐसे ही ख्वाबों की दुनिया में जीते थे। मियां एक बात का ध्यान रखना अल्ला मियां जब पैसा देता है तो अक्ल खुद ब खुद आ जाती है। जब पैसा आएगा तब अक्ल भी आ ही जाएगी। यह सुनते ही बो की आंखों में एक अलग चमक आ गई और उसने हमें चार सवाल और लिखकर दे दिए। यह दौर तो बहुत देर तक चलता रहा। पर आपको यहां पर यह बताता चलूं कि फजलुद्दीन को अनुमानित सरकारी और गैर सरकारी मिलाकर 25 से 30 लाख रुपए के बीच आर्थिक सहयोग मिला था। उन्होंने बहुत ही समझदारी के साथ उस पैसे का उपयोग किया। उन्होंने उसी बस्ती में रहने वाले बच्चों को जरूरत की चीजें मुहैया कराई। सबस अहम काम खुदी हुई नालियों को ढंकवाने की कोशिश की। जो काम सरकार का था वह फजलुद्दीन ने किया। उनके ऐसे ही कई कार्य हैं जिन्हें मैं आज भी याद करके सैल्यूट करता हूं।