राजेश बादल
वैश्विक समीकरण बदल रहे हैं । वैसे तो चीन ने कोरोना काल से पहले ही अमेरिकी विरोध की कमान सँभाल ली थी ,लेकिन रूस और यूक्रेन के बीच जारी जंग के बाद यह ध्रुवीकरण नया आकार लेने लगा है।ताज़ा घटनाक्रम के चलते पश्चिम और यूरोपीय देशों के माथे चिंता की लक़ीरें गहरा गई हैं। इसका बड़ा कारण यह भी है कि आर्थिक उदारीकरण ने समूचे संसार को कारोबारी आधार पर आपस में जोड़ने का काम किया था।अब यह वित्तीय हित इतने गुथ गए हैं कि उन्हें अलग करके संबंधों की नई परिभाषा लिखना आसान नहीं दिखाई देता।पर अपने परंपरागत श्रेष्ठता बोध के चलते अंतर्राष्ट्रीय समूह और उप समूह भी इन दिनों मोर्चेबंदी के लिए आतुर नज़र आ रहे हैं। ऐसे में भारत के सामने चुनौतियाँ विकराल हो गई हैं। ब्रिक्स का ताज़ा सालाना सम्मेलन और इसके बाद ग्रुप सेवन का अधिवेशन इन चुनौतियों को समझने का अवसर देते हैं।
पहले ब्रिक्स की बात।इसके मंच पर इस बार ईरान की मौजूदगी तनिक चौंकाने वाली है। ब्राज़ील ,रूस,भारत, चीन और दक्षिण अफ़्रीक़ा वाले इस मज़बूत फोरम पर अन्य राष्ट्रों की तुलना में भारत ही अकेला देश है ,जिसके ईरान के साथ सदियों से गहरे आध्यात्मिक और आर्थिक रिश्ते रहे हैं। लेकिन चीन के राष्ट्रपति और इस ब्रिक्स के इस वार्षिक आयोजन की अध्यक्षता कर रहे शी ज़िंग पिंग ने ईरान के राष्ट्रपति इब्राहिम रईसी को आमंत्रित किया और समूह में सदस्यता के लिए उसका आवेदन भी स्वीकार किया।चीन ने सम्मेलन की अध्यक्षता की थी।ईरानी राष्ट्रपति ने इशारों में अपनी बात रखी और कहा कि क्षेत्रीय और अंतर्राष्ट्रीय टकरावों से विश्व शान्ति के लिए कई समस्याएँ खड़ी हो रही हैं। ईरान के साथ लैटिन अमेरिकी मुल्क अर्जेंटीना ने भी ब्रिक्स में शामिल होने के लिए अपना अनुरोध पत्र दाख़िल किया है। वर्तमान में दक्षिण अफ़्रीक़ा और ब्राज़ील के साथ भारत के संबंध मधुर रहे हैं। रूस के साथ हिन्दुस्तान का अतीत ठोस बुनियाद पर खड़ा है ,मगर उसके चीन के साथ भी उतने ही बेहतर रिश्ते हैं।
ऐसे में ब्रिक्स की आंतरिक राजनीति में अभी तक भारत का पलड़ा अन्य सभी सदस्यों से भारी था।लेकिन चीन का ईरान के मामले में सक्रिय भूमिका निभाना इस बात का संकेत है कि ब्रिक्स में ही नहीं ,अरब देशों में भी अपना प्रभाव बढ़ाने का प्रयास कर रहा है। इनमें सऊदी अरब ही खुलकर अमेरिका के पक्ष में है। इसलिए भी उसके पड़ोसी ईरान पर डोरे डालना चीन के अपने हित में है।तुर्की और मलेशिया से उसने पहले ही पींगें बढ़ा रखी हैं। सिर्फ़ भारत ही ऐसा देश है ,जिसके साथ चीन असहज पाता है।भारत एक तरफ ब्रिक्स में प्रभावी भूमिका में है तो दूसरी ओर क्वाड में वह अमेरिका ,ऑस्ट्रेलिया और जापान के साथ है। चीन की उलझन का यह एक बड़ा कारण है। ब्रिक्स के सालाना जैसे से पहले ग्रुप -7 के शिखर सम्मेलन में भी चीन ने भारत पर सांकेतिक हमला बोला था। लेकिन उसकी बात पर ध्यान नहीं दिया गया।चीन पाकिस्तान को वह छोड़ नहीं सकता और पाकिस्तान ने भारत से दोस्ती नहीं रखने की स्थायी क़सम खा रखी है। ईरान ने वैसे कुछ बरस पहले कश्मीर के मसले पर भारत और पाकिस्तान के बीच मध्यस्थता का प्रस्ताव रखा था। लेकिन इस प्रस्ताव को अमली जामा नहीं पहनाया जा सका।
बीते दिनों परमाणु अप्रसार के मसले पर अमेरिका ने ईरान से कुट्टी कर ली थी और अनेक बंदिशें लगा दी थीं। तत्कालीन ट्रंप हुक़ूमत के दबाव में भारत ने ईरान से कच्चे तेल का आयात क़रीब क़रीब रोक दिया था और अपने संबंध ख़राब कर लिए थे। यही नहीं ,ईरान में दशकों तक संबंधों को पालने -पोसने के बाद चाबहार बंदरगाह परियोजना को अंजाम तक पहुँचाया था। यह बंदरगाह पाकिस्तान में चीन की ओर से बनाए गए ग्वादर बंदरगाह का जवाब था और रणनीतिक रूप से भारत को बेहतर बनाता था। ईरान की अर्थव्यवस्था को स्थिर रखने में भारत का भी योगदान रहा है।अमेरिकी दबाव में भारत – ईरान के संबंध बिगड़ने के कारण ही चीन ने इसका फ़ायदा उठाया और उसे ब्रिक्स में लिए जाने की वक़ालत की। अमेरिका और उसके मित्र राष्ट्र तो यह भी चाहते थे कि भारत रूस और यूक्रेन की जंग में उनका साथ दे और रूस से रिश्ते बिगाड़ ले। ज़ाहिर है इसका बड़ा नुक़सान भारत को ही होता। इसलिए वक़्त रहते भारत ने अपनी मूल विदेश नीति की राह पर लौटना उचित समझा।
ईरान जानता है कि भारत ब्रिक्स में उसके प्रवेश का विरोध नहीं करेगा ।फिर भी हाल ही में उसके विदेश मंत्री हुसैन आमिर अब्दुल्लाहियान ने ब्रिक्स सम्मेलन से पहले भारत यात्रा की। इस यात्रा में उन्होंने भारत से भी ब्रिक्स की सदस्यता में समर्थन देने का अनुरोध किया। हालाँकि ईरान भी उन देशों में शामिल था ,जिन्होंने नुपूर शर्मा के बयान की निंदा की थी।चूँकि ईरान शिया मुसलमानों के बाहुल्य वाला देश है और उसकी आसपास के सुन्नी बाहुल्य देशों से कम ही बनती है ।पाकिस्तान और सऊदी अरब भी सुन्नी मुसलमानों को ही सच्चा मानते हैं। पाकिस्तान में तो शियाओं को अपना अस्तित्व बचाना कठिन हो रहा है। ईरान के बाद भारत में दूसरे नंबर पर शिया मुस्लिम रहते हैं।इस कारण भी ईरान की हिन्दुस्तान के साथ स्वाभाविक मधुरता है। ईरानी विदेश मंत्री ने भारतीय विदेश मंत्री के साथ बातचीत में भी इस मामले में अपना पक्ष रखा था।
अब स्थिति यह है कि भारत को एक साथ अनेक मोर्चों पर ध्यान देना पड़ेगा। विदेश नीति की आंशिक समीक्षा करने की ज़रुरत है। इसमें कहीं पर संबंधों की ऐतिहासिकता देखनी होगी तो कहीं कारोबारी हितों का ख़्याल रखना होगा। चीन के साथ सीमा विवाद पर जल्द से जल्द समाधान खोजने की ज़रूरत है। यह भारत के विकास पर काफी हद तक उल्टा असर डाल रहा है।पर इसमें चीन को भी संवेदनशील होना होगा। क्या वाकई वह हिन्दुस्तान से संबंध सुधारना चाहता है ?