शशी कुमार केसवानी
नमस्कार दोस्तों, आइए आज हम बात करते हैं एक ऐसे निर्माता-निर्देशक की जिन्होंने बॉम्बे (मुंबई) आकर वह मुकाम हासिल किया, जहां पर कपूर परिवार का दबदबा पहले ही कायम था। उस स्थिति में खुद स्थापित होना और बाद में पूरे कुनबे को स्थापित करना अपने आप में बहुत बड़ी बात है। जी हां दोस्तों आज मैं बात कर रहा हूं शशाधर मुखर्जी की। जिन्होंने झांसी से आकर मुंबई में अपने अनेकों रिश्तेदारों को स्थापित करना बड़ी बात थी। चाहे वह अशोक कुमार हो या फिर किशोर कुमार। अनेकोनेक ऐसे अनेक बंगाली फिल्मकारों को मुंबई में स्थापित किया। जहां तक उनके काम की बात करें तो काम तो उनका बहुत ही शानदार रहा। पर उन्हें तो अपने बेटे जॉय मुखर्जी और सोमू मुखर्जी को भी स्थापित करना था। उन्होंने यह कर भी दिखाया। यही नहीं उन्होंने अपने बाकी बेटों को भी फिल्मी दुनिया में ऊंचे मुकाम तक पहुंचाया। यहां तक की साधना को भी साधना बनाने में इनका बड़ा योगदान रहा। पर अपने अड़ियल स्वभाव के वजह से बड़े-बड़े कलाकारों को खारिज भी किया। जिसमें स्वर कोकिला स्व. लतामंगेशकर, ओपी नैय्यर जैसे अनको सख्शियतें शामिल हैं। पर उन्हें बाद में गलती सुधारने का मौका भी मिला। उन्होंने उनके साथ काम भी किया और उन्हें सराहा भी। अपने स्टूडियो को बड़े दिल से बनाया। काम भी किया। पर वक्त धीरे-धीरे बदलता गया, नए-नए स्टूडियो आते गए। युग बदलने लगा पर ऐसे लोगों को जमाने के साथ बहुत दिक्कत होती है। वे हमेशा अपनी चाल और जूते को बेहतर समझते हैं। बहरहाल उनकी बेहतरीन फिल्में आज भी लोगों के दिलों में घर बनाए हुए हैं। बेहतरीन संगीत बेहतरीन गीत आज भी लोगों की जुबान पर रहते हैं। साथ ही साथ आपको यह भी बताता चलू की काजोल और रानी मुखर्जी उनके परिवार का ही हिस्सा है। हो सकता है आप शशाधर के बारे में बहुत ज्यादा न जानते हो, पर कोशिश कर रहे हैं कि भूले-बिसरे लोग जिनका फिल्मों में अहम योगदान रहा है, उन पर ही बात की जाए। तो आईए आज एक ऐसी सख्शियत की बात करते हैं, जिनका फिल्मों में बड़ा योगदान रहा।
जनाब, गलतियां इंसानों से ही हुआ करती हैं। लेकिन कभी-कभी किसी-किसी के साथ ऐसा भी होता है कि उनकी एक गलती पूरे किए-कराए पर पानी फेर देती है। उनके दूसरे तमाम कामों पर भारी पड़ जाती है। उनका नाम लेते ही लोगों को उनकी वही गलती पहले नजर आती है, याद आती है, उनसे जुड़ी बाकी सब चीजें बाद में। या कभी तो दूसरी चीजें नजर आती ही नहीं हैं। इसकी सबसे बड़ी मिसाल हैं हिन्दी सिनेमा के बड़े फिल्मकार शशधर मुखर्जी। साल 1948 की बात है यह। उस वक्त मुखर्जी साहब फिल्मिस्तान स्टूडियो शुरू कर चुके थे। उनके सगे साले साहब अशोक कुमार गांगुली (दादा मुनि, जिनकी बहन से शशधर जी की शादी हुई) और राय बहादुर चुन्नीलाल (संगीतकार मदनमोहन के वालिद) उनके साझीदार थे। ये लोग तब शहीद पिक्चर बना रहे थे। उस पिक्चर में पतली आवाज वाली अदाकारा कामिनी कौशल थीं। उनके सामने अदाकार थे यूसुफ भाई यानी दिलीप कुमार। इस फिल्म का संगीत देने का जिम्मा मास्टर गुलाम हैदर के पास था। सबसे पहले उन्हीं की उस साल लता जी से मुलाकात हुई थी। लता जी ने खुद खुलासा किया। मास्टर गुलाम हैदर को उन्होंने अपना अस्ल गॉड फादर तक कहा है। तो जनाब, गुलाम हैदर साहब ने लता जी की आवाज का इम्तिहान लिया। स्टूडियो में बुलाकर कुछ गाने गवाए उनसे और उन्हें वह आवाज पसंद आई। लिहाजा, शहीद फिल्म में ही उन्होंने लता जी से गवाने का मन बना लिया। मगर वे थे तो म्यूजिक डायरेक्टर ही। फिल्म से जुड़ा ऐसा फैसला खुद नहीं ले सकते थे। सो, उन्होंने शहीद फिल्म के लिए तैयार किया जा रहा गाना (बदनाम न हो जाएं) लता जी की आवाज में रिकॉर्ड किया और पहुंच गए मुखर्जी साहब के पास। फिल्म के प्रोडूयसर, डिस्ट्रीब्यूटर होने के नाते वही इस तरह की चीजों के बारे में फैसले कर सकते थे। इसी वजह से लता जी और उनकी आवाज की रिकॉर्डिंग का टेप लेकर गुलाम हैदर साहब उनके पास पहुंचे थे। उन्हें लता जी की आवाज सुनवाई लेकिन उसे सुनने के बाद उन्होंने उसे खारिज कर दिया। ये कहकर, बहुत पतली आवाज है। हमारी हीरोइनों को मैच नहीं करेगी। जबकि फिर गौर कीजिए कि शहीद फिल्म की अदाकारा कामिनी कौशल पतली आवाज की मालकिन हैं। कोई चाहे तो आज भी उन्हें सुन सकता है।
तो, मुखर्जी साहब की बात सुनकर तमतमा गए मास्टर गुलाम हैदर। वहीं चुनौती दे आए, अच्छा तो ऐसी बात है। कोई बात नहीं है। पर आप देखिएगा, एक रोज इसी फिल्मी दुनिया के तमाम फिल्मकार, संगीतकार इस लड़की (लता) के पैरों पर गिरकर इससे अपनी फिल्मों में गाने की गुजारिश करेंगे। ऐसा कहकर वे लता जी को लेकर फिल्मिस्तान से निकल गए। जैसा लता जी ने खुद बताया, हम लोग पैदल स्टेशन पे गए। स्टेशन बहुत नजदीक था, फिल्मिस्तान के। मैं, वो (गुलाम हैदर) और मेरी बहन। खड़े थे हम लोग। उनके हाथ में 555 (सिगरेट) का डिब्बा था। उस पे ताल दे के उन्होंने कहा- जरा गाओ तो बेटा। मुझे उन्होंने गाना गाकर बताया- दिल मेरा तोड़ा, हो मुझे कहीं का न छोड़ा। तो वो गाया, मैंने साथ में गाया। सुनकर वे कहने लगे- बहुत अच्छे, यही मैं चाहता हूं, चलो। ले गए मुझे। और वहां जा के रिहर्सल शुरू किए। दो दिन बाद गाने की रिकॉर्डिंग हो गई।
यह गाना गुलाम हैदर साहब ने अपनी दूसरी फिल्म मजबूर के लिए लता जी से गवाया था। उस दौर के मशहूर मूसीकार थे वे। मजबूर में भी संगीत देने का जिम्मा उन्हीं के पास था। नजीर अजमेरी इस फिल्म के डायरेक्टर होते थे। और मुनव्वर सुल्ताना इसकी अदाकारा थीं। भारी आवाज थी, उनकी। सच में, लता जी की आवाज उन पर बिल्कुल भी फबती नहीं। बावजूद इसके, गुलाम हैदर साहब ने लता जी पर जोखिम लिया। क्योंकि भरोसा था उन्हें अपनी समझ और लता जी के हुनर पर। उन्होंने मजबूर पिक्चर के सभी गाने (जो अदाकारा पर फिल्माए गए) लता जी से ही गवाए और वे चले भी। सिर्फ़ यही नहीं, यहां से लता जी भी फिल्मी दुनिया में चल निकलीं। क्योंकि जिस वक़्त मजबूर के लिए गानों की रिकॉर्डिंग हो रही थी, तभी फिल्मों के दो दूसरे बड़े मूसीकारों ने भी उन्हें सुना। वह थे- अनिल बिस्वास और खेमचंद खेमचंद प्रकाश। उन्हें भी लता जी की आवाज अच्छी लगी थी। सो, उन दोनों ने भी अपनी फिल्मों में लता जी से गवाने का फैसला कर लिया, वहीं।
इस तरह, मास्टर गुलाम हैदर की भविष्यवाणी सोलह आने सच हुई। और मुखर्जी साहब को भी बाद में अपनी गलती माननी पड़ी कि उनसे लता जी के बारे में समझने में चूक हुई। यहां तक कि आगे अपनी फिल्मों में भी मुखर्जी साहब से लता जी से ही गाने गवाए क्योंकि हिन्दी फिल्मों की दुनिया ने एक लंबा दौर ऐसा देखा जब लता जी के गाने फिल्में हिट होने की गारंटी होते थे। और हिट फिल्में तो हर फिल्मकार चाहता ही है। अलबत्ता, लता जी के मामले में जो वाकिआ मुखर्जी साहब के साथ चस्पा हुआ, वैसा यकीनन कभी कोई नहीं चाहेगा। पर क्या करे कोई, गलती हो जाती है कभी-कभी। हालांकि लता जी इकलौती नहीं थीं, जिन्हें मुखर्जी साहब ने खारिज किया। मशहूर मुसीकार ओपी नैयर साहब को भी शुरूआती दौर में शशधर जी ने खारिज कर दिया था। ये बात भी उसी दौर के आस-पास की है, जब लता जी के साथ इस तरह का वाकिआ हुआ।
ओपी नैयर सुरों के जादूगर कहलाते हैं। लेकिन शुरूआती दिनों में, 1946-47 के आस-पास ही जब वे बंबई पहुंचे तो एक मर्तबा उस दौर के बड़े अदाकार श्याम ने उन्हें मुखर्जी के पास भेज दिया। श्याम दरअस्ल नैयर साहब के अच्छे दोस्त होते थे। उन्होंने ही उन्हें दिल्ली से बंबई बुलाया था। तो नैयर साहब जब शशधर जी के पास पहुंचे तो उन्होंने उन्हें एक गाना दिया। कहा, यह राजा मेहंदी अली का गाना है। इसे कंपोज करो। नैयर साहब ने दो घंटे में उस गाने का संगीत बना डाला। लेकिन मुखर्जी साहब पर उस संगीत ने कोई खास असर नहीं डाला। और श्याम साहब से कह दिया उन्होंने, इस लड़के (नैयर) में दम नहीं है कोई नई बात नहीं है। हालांकि, इससे आगे जानना यह भी दिलचस्प होगा कि यही लड़का यानी नैयर साहब मुखर्जी साहब की ही कई फिल्मों की कामयाबी की गारंटी बना एक वक़्त। यानी नैयर साहब के पास भी शशधर जी को लौटना ही पड़ा आखिर।
अलबत्ता, ऐसे कुछ वाकियाओं को छोड़ दें तो शशधर मुखर्जी साहब का दायरा और असर फिल्मों की दुनिया में काफी बड़ा ठहरता है। इनके वालिद सरकारी नौकरी किया करते थे। आज के उत्तर प्रदेश के झांसी शहर में जब उनकी पोस्टिंग थी, तभी शशधर जी की पैदाइश हुई थी। आज ही की तारीख यानी 29 सितंबर को, साल 1909 में। कुल चार भाई थे। दो छोटे और एक बड़े। परिवार का फिल्मों से कोई वास्ता नहीं था तब। लेकिन शशधर साहब को जवानी के दिनों में ही मायावी दुनिया की माया ने जकड़ लिया और वे बंबई आ गए। कम उम्र में इनकी शादी हो गई थी, सती देवी से। ये सती देवी मशहूर अदाकार, गायक भाइयों- अशोक कुमार, अनूप कुमार, किशोर कुमार की बहन थीं। उधर, बंबई में उस वक़्त मशहूर अदाकारा देविका रानी और उनके फिल्मकार पति हिमांशु राय ने बॉम्बे टॉकीज के नाम से फिल्म स्टूडियो बनाया था। जून, 22 और साल 1934 की बात है ये।
तो जब मुखर्जी साहब बंबई आए तो उन्हें इसी बॉम्बे टॉकीज में ठिकाना मिला। उसमें जब इनके पैर जम गए तो इन्होंने अशोक कुमार को भी बंबई बुला लिया। देविका रानी के बारे में तो कहते हैं कि वे मुखर्जी साहब को अपना भाई मानने लगीं थीं। लेकिन तभी साल 1940 में हिमांशु राय का इंतिकाल हो गया और रिश्ता ही नहीं, बॉम्बे टॉकीज की पूरी टीम ही बिखर गई। देविका रानी के साथ मुखर्जी साहब की कुछ अन-बन हो गई और उन्होंने उनसे अलग होकर फिल्मिस्तान स्टूडियो बना लिया, जिसका पहले ही जिक्र किया गया। फिल्मिस्तान के बैनर तले फिल्में बनाते हुए और उसके बाद भी मुखर्जी साहब ने ऐसे-ऐसे कारनामे किए कि उन्हें एक वक्त स्टार मेकर का तमगा मिल गया। यानी सितारे गढ़ने वाला। कुछ मिसालें- फिल्मिस्तान स्टूडियो की पहली फिल्म थी चल चल रे नौजवान। इस फिल्म ने अशोक कुमार को फिल्मी दुनिया में बतौर अदाकार स्थापित किया।
इसी तरह तुम सा नहीं देखा (1957) जैसी फिल्मों से शम्मी कपूर साहब और मुनीम जी (1955) जैसी फिल्मों से देव-आनंद साहब का करियर परवान चढ़ाया। मशहूर अदाकाराओं- आशा पारेख और साधना को फिल्मों की दुनिया में लेकर आने वाले मुखर्जी साहब ही थे। यहां तक कि साधना की खास हेयर स्टाइल, जिसे साधना-कट कहा जाता था, वह भी मुखर्जी साहब की वजह से ही सामने आई, ऐसा कहा जाता है। मशहूर फिल्म डायरेक्टर नासिर हुसैन को इस हैसियत में लाने, तैयार करने का श्रेय मुखर्जी साहब को जाता है। उन्होंने 1958 में अपना अलग फिल्मालय स्टूडियो बनाया। उसके साथ अदाकारी सिखाने वाला एक स्कूल भी खोला। इस स्कूल से संजीव कुमार जैसे अदाकार अदाकारी सीखकर निकले। तो, ऐसा अहम किरदार जिस शख़्स ने दूसरों की जिंदगी में अदा किया, वह भला अपने परिवार को कैसे, क्यूं नजरंदाज करता। मुखर्जी साहब ने भी नहीं किया।
मुखर्जी साहब के दो छोटे भाई प्रबोध और सुबोध मुखर्जी फिल्मों के प्रोड्यूसर, डायरेक्टर बने। उनके सबसे बड़े भाई रबींद्रमोहन का फिल्मों से ताल्लुक नहीं रहा लेकिन उनकी पौत्री रानी मुखर्जी फिल्मों की मशहूर अदाकारा हैं। शशधर के साहबजादे जॉय मुखर्जी फिल्मी दुनिया के मशहूर अदाकार हुए। उनके दो अन्य बेटे- देब और शोमू मुखर्जी फिल्मों के प्रोड्यूसर, डायरेक्टर हुए। इनमें देब मुखर्जी के बेटे अयान मुखर्जी मौजूदा दौर के जाने-माने डायरेक्टर, प्रोड्यूसर हैं। जबकि शोमू मुखर्जी की बेटियां काजोल (देवगन) और तनीषा अदाकाराएं हैं। इसीलिए कहने वाले तो यहां तक कहते हैं कि फिल्मी दुनिया में जो असर (पृथ्वीराज) कपूर खानदान का होता है, करीब वैसा ही शशधर मुखर्जी साहब के खानदान का भी है। बावजूद ये कि आज शशधर मुखर्जी जब भी याद किए जाते हैं, तो इसलिए कि उन्होंने लता जी को खारिज किया। अचरज है न? पर ऐसा होता है कभी-कभी।