RAJESH BADAL
राज्य सभा की सत्तावन सीटों के लिए निर्वाचन का शोर इन दिनों सुनाई दे रहा है। संभवतया यह पहली बार है ,जब उम्मीदवारों को चुनने की प्रक्रिया में जाति – उप जाति तथा आने वाले विधानसभाओं के चुनाव में उपयोगिता का आकलन किया जा रहा है।यही नहीं ,संबंधित प्रदेश से बाहर का प्रत्याशी तय करने पर आक्रोश भी प्रकट किया जा रहा है।अफ़सोस यह है कि इस सदन के लिए सदस्यों के नामों पर विचार करते समय योग्यता ,अनुभव और वैचारिक आधार – सरोकार ताक में रख दिए गए हैं। लंबे समय तक राज्यसभा सदस्य होने के लिए यह पहली शर्त हुआ करती थी।लेकिन इस बार कमोबेश सभी राजनीतिक दलों ने इस सदन की गंभीरता और गरिमा को ध्यान में रखते हुए भावी सांसदों को नहीं चुना।यह खेदजनक है।
वास्तव में दलबदल की महामारी के चलते सियासी पार्टियाँ राजनेताओं के पलायन और प्रवेश के बीच उलझ कर रह गई हैं।हर पार्टी की अपनी अलग प्राथमिकताएँ हैं।एक पार्टी यह देख रही है कि उसके नेता कहीं छिटक कर दूसरे दल में न चले जाएँ तो दूसरा दल अपने संगठन में जातियों के समीकरण को सामने रख रहा है।तीसरा दल व्यक्तिगत निष्ठाओं पर ध्यान दे रहा है।लोकतंत्र,देश और सदन के लिए आवश्यक तत्वों को भुला दिया गया है। इन पार्टियों के भीतर टिकट वितरण को लेकर व्यापक असंतोष इसी का परिणाम है।यह स्थिति तभी बनती है ,जब ज़मीन और जड़ों से जुड़े राजनेताओं की उपेक्षा होती है।
वैसे तो भारत का कोई मतदाता किसी भी राज्य से राज्य सभा या लोकसभा के चुनाव मैदान में उतर सकता है। लेकिन बेहतर स्थिति होती है ,जब वह जन प्रतिनिधि अपने प्रदेश का प्रतिनिधित्व करे। राज्यों का संघ तो तभी सार्थक होगा ,जब सभी प्रदेशों की समुचित भागीदारी हो।एक प्रदेश के जनाधार वाले क़ाबिल लीडर की उपेक्षा करके दूसरे प्रदेश से प्रत्याशी आयात करना घातक होता है।संबंधित प्रदेश के नेता या कार्यकर्ता यह सोचते हैं कि आला कमान को उन पर भरोसा नहीं है अथवा उन्हें इस योग्य नहीं समझा जा रहा है। दूसरा यह कि संबंधित दल के बारे में अवाम धारणा बना लेती है कि अमुक पार्टी के पास राज्य सभा के लिए योग्य उम्मीदवारों का अकाल है तो उसके अपने प्रदेश का संसद के इस सदन में सही प्रतिनिधित्व कैसे होगा ? आप कह सकते हैं कि संसद में प्रवेश कराने के लिए यह बैक डोर एंट्री प्रथा है।अपवाद की स्थिति में कभी कभार अन्य प्रदेश के प्रत्याशी को स्वीकार किया जा सकता है। मसलन संसदीय प्रक्रिया के जानकार राजनेता अथवा राष्ट्रीय नीतियों के असाधारण विशेषज्ञ भी देश हित में सदन की आवश्यकता बन जाते हैं। उन्हें लाना ज़रूरी है। ऐसे में स्थानीय या बाहरी वाला मुद्दा छोड़ना ही पड़ता है। अनुभव यह भी बताता है कि अन्य प्रदेश से आकर चुने गए सांसद अपने गृह राज्य की ही चिंता करते हैं।जिस प्रदेश से वे चुने जाते हैं ,उसके हितों का ख़्याल नहीं रख पाते। उनके अंदर यह गर्व बोध भी रहता है कि वे तो आलाकमान की ओर से चुने गए हैं। उनका पहला काम शीर्ष नेतृत्व का ख़्याल रखना है। निर्वाचन प्रदेश के हितों का ध्यान रखना ज़रूरी नहीं है ।
राज्य सभा लगभग सत्तर बरस पहले संसद के दूसरे सदन के रूप में अस्तित्व में आई थी। उसके बाद इस सदन ने बड़े शानदार दिन देखे ।यह सिलसिला क़रीब चार दशक जारी रहा। राज्य सभा की अवधारणा और चरित्र के अनुसार सदस्य भी चुने जाते रहे। सभी राजनीतिक दलों के लिए इस सदन के लिए उम्मीदवारों का चुनाव आसान नहीं होता था। कभी कभी तो यह लोकसभा के लिए प्रत्याशियों के चयन से भी अधिक चुनौतीपूर्ण होता था।राज्य सभा में होने वाली चर्चाएँ अक्सर ही इतनी गुणवत्तापूर्ण होती थीं कि देश के तमाम वर्गों के लोग उन्हें सुनने के लिए दर्शक दीर्घाओं में उमड़ पड़ते थे। इन चर्चाओं और बहसों के निष्कर्ष कई बार राष्ट्रीय नीतियों में संशोधन के लिए सरकार को बाध्य कर देते थे। इस सदन की चर्चाएँ गाहे बगाहे मुल्क़ के बौद्धिक हलकों में भी बहसों का केंद्र बिंदु बन जाती थीं। अखबारों के पन्नों में संपादक के नाम पत्र से लेकर संपादकीय टिप्पणियों में उन्हें ख़ास तौर पर स्थान मिलता था और तब यह राष्ट्र अपनी गोद में लोकतंत्र को विकसित होते देखकर मुस्कुराता था।अंतर राष्ट्रीय मंचों पर भी यदा कदा भारत के इस उच्च सदन की भूमिका सराही गई और तुलना में इसे ब्रिटेन के हाउस ऑफ़ लॉर्ड्स से कहीं अधिक सक्षम और ताक़तवर माना गया। अलबत्ता अमेरिका के सीनेट जैसा स्थान लेने में अभी काफी वक़्त लगेगा।
जिस तरह से हालिया वर्षों में इस सदन के कामकाज की गुणवत्ता में गिरावट आई है ,उसे देखते हुए तरह तरह के सवाल उठने लगे हैं।
एक समस्या मनोनीत सदस्यों की भी है । राष्ट्रपति विभिन्न क्षेत्रों के नामचीन लोगों को सदन का सदस्य मनोनीत करते हैं । विडंबना है कि इन विभूतियों का सदन में कोई योगदान ही नहीं होता । उनके मनोनयन के पीछे मंशा यह होती है कि वे अपने क्षेत्र से संबंधित अछूते विषयों अथवा मुद्दों को सदन में उठाएंगे । लेकिन, ऐसा नहीं होता । वे पूरे कार्यकाल में बमुश्किल ही मुंह खोलते हैं । उनका चुनाव सदन का अपमान बन कर रह जाता । सचिन तेंदुलकर और रेखा जैसे सितारे इसका प्रमाण हैं । इसके उलट एक दौर ऐसा भी था ,जब नर्गिस , सुनीलदत्त और पृथ्वीराज कपूर जैसे व्यक्तित्व अपने चयन को सार्थक सिद्ध करते थे ।
राज्यसभा के कामकाज का मूल्यांकन करें तो बेशक चमत्कारिक निष्कर्ष सामने आते हैं।स्थायी समितियों ने राष्ट्रीय ही नहीं , अंतर राष्ट्रीय विषयों पर इतना गंभीर शोध किया है ,जिसकी मिसाल नहीं मिलती। उदाहरण के तौर पर ग्लोबल वार्मिंग के बारे में क़रीब दो दशक पहले इतनी तथ्यात्मक और वैज्ञानिक रिपोर्ट सदन में एक समिति ने प्रस्तुत की थी।यह रपट अपने आप में अनमोल दस्तावेज़ है।इसी तरह कृषि, विदेश, रक्षा,निर्यात,शिक्षा,स्वास्थ्य और पर्यावरण जैसे विषयों पर सदन के सदस्यों ने दलगत राजनीति से ऊपर उठकर काम किया है। खेदजनक तो यह है कि मौजूदा दौर में सांसदों ने अपना पढ़ना – लिखना छोड़ दिया है और वे जटिल विषयों पर रिपोर्ट बनाने का काम अधिकारियों पर छोड़ देते हैं।ऐसी स्थिति तब बनती है ,जब सांसदों के सामने देश के नहीं ,अपने या पार्टी के हित आ जाते हैं। दो – तीन सत्र पहले इस तरह के कई उदाहरण सामने आए हैं,जब सदस्यों ने समितियों की बैठकों और रिपोर्ट तैयार करने की प्रक्रिया में पार्टी के हित देखे ,देश के नहीं। यह लोकतान्त्रिक मूल्यों में गिरावट का शर्मनाक उदाहरण है।