फिल्मी इतिहास, शशी कुमार केसवानी

नमस्कार दोस्तों, आइए आज हम बात करते हैं एक ऐसी महिला की जिसका जीवन संघर्ष भरा रहा। पर जिस मुकाम पर पहुंची, वहां अच्चे खासे तुर्रम खां का पहुंचना भी असंभव था। बता दें कि आज से 100 साल पहले के भारत में मनोरंजन के साधन दूसरे थे। अमीर लोगों के लिए नाच और गाना देखने का कोठा एकमात्र साधन हुआ करता था। लेकिन धीरे-धीरे कोठों की प्रसिद्धि घटने लगी और फिल्मों ने मनोरंजन की जिम्मेदारी उठा ली। समय बीता और साधन बदले फिल्मों का माध्यम सशक्त होने लगा। फिर फिल्मों में कहानी के साथ गाना और नाच की भी अहम भूमिका होने लगी। 1930 के दशक में भारत में क्रांति की आग जल रही थी, ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ जंग छिड़ी थी। इसी दौर में फिल्मों का व्यापार भी अपने शवाब पर आने लगा। एक महिला संगीतकार ने भी फिल्मी दुनिया में अपनी एंट्री ली। ये संगीतकार बला की खूबसूरत थी और बचपन से ही कोठे में संगीत की तालीम ले चुकी थीं। कोठे में ही इनका जन्म हुआ था। इस महिला संगीतकार ने अपनी कला का ऐसा बीज बोया जो आज 100 साल भी हरभरा पेड़ बनकर लहरा रहा है। जी हां दोस्तों मैं बात कर रहा हूं भारत की उस महिला की, जिसने कोठे से निकलकर फिल्मों में खुद तो स्थान बनाया ही बनाया। साथ ही साथ पूरे परिवार को फिल्मों का वो हिस्सा बनाया, जहां देखने के लिए गर्दन में बल पड़ जाए। भयानक आग में तपकर निकली जद्दनबाई तवायफ होने के बावजूद फिल्म इंडस्ट्री में बड़े सम्मान के साथ लिया जाता है। आज आपको बताएंगे उनके कौन-कौन से रिश्तेदार फिल्मों से जुड़े हैं और उनके जीवन के कुछ अनछुए पहलू।

जद्दनबाई हुसैन ने अपनी जिंदगी में बहुत दुख-दर्द झेला, लेकिन उन्होंने पुरुषों के दबदबे वाली दुनिया में न सिर्फ एंट्री की, बल्कि ऐसा कारनामा किया कि इतिहास के पन्नों में दर्ज हो गया। सिनेमा की दुनिया में डायरेक्शन से लेकर कैमरा और म्यूजिक के क्षेत्र में हमेशा से ही मर्दों का दबदबा रहा। 100 साल पहले जब सिनेमा की शुरूआत हुई तो उस समय तो महिलाओं को हीरोइन तक के रूप में स्वीकार नहीं किया जाता था। लेकिन जिस तरह दुगार्बाई कामत ने भारतीय सिनेमा की पहली महिला हीरोइन बनकर उस बंदिश को तोड़ा, उसी तरह जद्दनबाई हुसैन ने भी हिंदी सिनेमा की पहली महिला म्यूजिक कंपोजर बनकर इतिहास रचा। वह और सरस्वती देवी म्यूजिक की दुनिया में साथ-साथ ही आईं।

कोठे पर ही जद्दनबाई की चर्चे दूर-दूर तक होने लगे थे। भले ही जद्दनबाई की परवरिश कोठे पर हुई, पर तब वहां सिर्फ ठुमरी और नाच-गाना होता था। जद्दनबाई भी उसमें लीन हो गई थीं। उन्हें गाना और नाचना मां दिलीपा बाई से विरासत में मिला था। मां की इसी विरासत को जद्दनबाई आगे बढ़ाने लगीं। बाद में जद्दनबाई ने सिंगर बनने का फैसला किया और वह कोठे की दुनिया से निकलकर पहले कोलकाता और फिर मुंबई आ गईं। यहां उन्होंने गाने के अलावा फिल्मों में एक्टिंग भी की और डायरेक्शन भी किया। जद्दनबाई ने मुंबई आने के बाद पहले श्रीमंत गणपत राव और फिर उस्ताद मोइनुद्दीन खान, उस्तार छद्दू खान साहेब और उस्ताद लाब खान साहेब से ट्रेनिंग ली। धीरे-धीरे जद्दनबाई अपनी मां से भी ज्यादा मशहूर हो गईं। अब तो उन्हें बीकानेर से लेकर कश्मीर, इंदौर, रामपुर और जोधपुर जैसे शहरों के शासक भी अपने राज्यों में गाने के लिए बुलाने लगे। उन्होंने कई रेडियो स्टेशनों में गजलें गाईं, जिनका जादू लोगों के सिर चढ़कर बोलता था। वो जद्दनबाई की आवाज के दीवाने हो जाते। जद्दनबाई ने कोलंबिया ग्रामोफोन कंपनी के साथ भी गजलें रिकॉर्ड कीं।

जद्दनबाई सुरों की मल्लिका थीं। जब कोठे पर उनकी महफिल लगती तो बड़े-बड़े लोग अपनी सुध भूल जाते थे। सुरों की इस मल्लिका की दीवानगी में जमींदार अपनी जायदाद लुटाने को भी तैयार रहते थे। साल 1892 को बनारस की दलीपबाई तबायफ के कोठे में जन्मी जद्दनबाई का बचपन संगीत की महफिलों में बीतने लगा यहीं से संगीत की शिक्षा और सुरों की साधना शुरू हुई। बचपन से ही संगीत की तालीम और तहजीब के बीच बड़ी हुईं जद्दनबाई ने भी सुरों की मल्लिका बनने का फैसला लिया। इसके बाद खुद भी गाने लगीं। चंद सालों में जद्दनबाई मशहूर सिंगर बन गईं। जद्दनबाई की गायकी के हजारों लोग दीवाने हो गए। अमीर लोग अपनी-अपनी जागीरों से मन बहलाने जद्दनबाई के यहां आया करते थे। जद्दनबाई जब जवानी में प्रवेश करने लगीं तो उनकी महफिलें हिट होती रहीं। इसके बाद लगातार प्रसिद्धि बढ़ गई। फिल्मों की दुनिया भी लगातार पैर पसार रही थी। जद्दनबाई ने भी फिल्मों का रास्ता तय करने का फैसला लिया।

साल 1935 में रिलीज हुई फिल्म ‘तलाश-ऐ-हक’ में गानों को कंपोज किया और खुद ही आवाज दी। यही वो साल था जब बॉलीवुड को पहली महिला संगीत कंपोजर बन गईं। जद्दनबाई ने खुद की म्यूजिक कंपनी खोल ली। साल 1936 में फिल्म ‘हृदय मंथन’, 1937 ‘मोती का हार’ और 1949 में ‘दरोगाजी’ जैसी फिल्मों में संगीत दिया। जद्दनबाई का जलवा फिल्मी दुनिया में भी चलने लगा। जद्दनबाई की दीवानगी लोगों के सिर चढ़कर बोलती थी। दूर-दराज से अमीर लोग जद्दनबाई से शादी का सपना लिए आते और सुरों का पान कर निराश लौट जाते। जद्दनबाई की पहली शादी नरोत्तम से हुई। पहली शादी से जद्दनबाई को बेटा अख्तर हुसैन हुआ। लेकिन कुछ दिनों बाद ही नरोत्तम भाग गए और फिर कभी नहीं लौटे। इसके बाद जद्दनबाई ने दूसरी शादी कोठे पर सारंगी बजाने वाले मियां खान से की। इस शादी से जद्दनबाई को दूसरा बेटा अनवर खान पैदा हुआ। लेकिन जद्दनबाई की दूसरी शादी भी टूट गई और रईस मोहनबाबू से तीसरी शादी रचाई। इस शादी से बेटी नरगिस का जन्म हुआ। नरगिस जो आगे चलकर बॉलीवुड की सुपरस्टार बनीं और उनकी दीवानगी हर हीरो के लिए मशहूर रही। नरगिस ने अभिनेता सुनील दत्त से शादी की और संजय दत्त हुए। जद्दनबाई का नाती संजय दत्त आज बॉलीवुड के सुपरस्टार हैं। जद्दनबाई का निधन 8 अप्रैल 1949 को हो गया। आज भी जद्दनबाई के नाम की महफिलों के किस्से याद करते हैं।

जद्दनबाई के जीवन से जुड़े इन रहस्यों के बारे में नहीं जानता होगा कोई
जद्दनबाई के जीवन में बहुत से रहस्य हैं। जो शायद कोई नहीं जनता है। पर हमने बहुत खोजबीन कर कोशिश की है कि उनके जीवन की असल कहानी आपके सामने रखूं। जिसके लिए मैंने मुंबई में कई बार दत्त परिवार के अलग अलग लोगों से बातें कर रहस्य जानने की कोशिश की। हमें यह समझने में जरा देर लगी कि यह सारे के सारे साइलेंट सुपर स्टार हैं जो बोलना है वहीं बोलते हैं, जो नहीं बोलना वह बिलकुल नहीं बोलते। असल कहानी यूं है कि जद्दन बाई का नाम बचपन का धनिया था और उनकी कम उम्र में शादी हो गई थी। गांव में कुछ डकैत आए थे उन्होंने उनके पति की गोली मारकर हत्या कर दी थी। जिसके बाद उनका परिवार परेशानी में रहा। फिर एक दिन उनके माता-पिता ने उन्हें मेले में छोड़ दिया। जहां उन पर नजर दलीपाबाई की पड़ी। वे अपने साथ कोठे पर ले गर्इं और उन्हें संगीत सिखाया। पर उनकी लय उस तरह की नहीं आ रही थी, जिसके बाद उनके लिए तीन अलग अलग उस्ताद बुलवाए गए। जिनसे उन्हें संगीत की पूरी तालीम दिलवाई गई। कच्चा पत्थर अब हीरा बन चुका था। इसके पीछे अब्दुल रशीद, श्रीमानराव सिंधिया, मोइनउद्दीन खान जैसे संगीतकारों से मिली तालीम का ही कमाल था जो उनकी गायकी में रस भर गया था। हांलाकि एक विवाद यह भी है कि वह पहली संगीतकार नहीं थी,इससे पहले 1934 में ईशा सुल्तान ईसी बुब्बो ने अमले जांगीर में संगीत दिया था। जबकि जद्दनबाई ने तलाशे हक में 1935 में संगीत म्यूजिक डायरेक्टर बनी थी। कोलकाता की कोलंबिया रिकॉर्ड कंपनी के लिए भी कई ठुमरी, नज्म, गजल भी रिकॉर्ड की थीं। जिसके रिकॉर्ड आज भी मौजूद हैं। ऐसे ही कई अन्य बाते भी हैं, जिसका जिक्र करना एक बार की कहानी में संभव नहीं है। इस पर हम कभी आगे चर्चा करेंगे।

जद्दनबाई का गाना सुनना मुगलों की हुआ करता था शान
बॉलीवुड के दमदार एक्टर संजय दत्त और उनके परिवार के बारे मे कौन नहीं जानता? उनके पिता सुनील दत्त और मां नरगिस दत्त अपने जमाने के टॉप के स्टार रह चुके हैं। दोनों ही अपने दमदार एक्टिंग के लिए फेमस थे। नरगिस सिर्फ एक्टिंग ही नहीं बल्कि अपनी खूबसूरती के लिए भी बॉलीवुड पर राज करती थी। लेकिन खूबसूरती के मामले में नरगिस की मां भी कुछ कम नहीं थीं लेकिन नरगिस की मां जद्दनबाई एक तवायफ थी। यही नहीं उनकी मां दलीपाबाई भी एक तवायफ थी। उनकी मां एक ऐसी तवायफ थी जिनके गाने सुनने का शौक, मुगलों की शान हुआ करता था और एक कोठे से ही भारत को पहली महिला संगीतकार भी मिलीं थीं। उस समय तवायफ के पेशे से भी ज्यादा बुरा लड़कियों का फिल्मों में काम करना माना जाता था।

तब एक कोठे पर गाने वाली ही भारत की पहली फीमेल म्यूजिक डायरेक्टर बनी और वो कोई और नहीं बल्कि नरगिस की मां जद्दनबाई थी। उसी जद्दन बाई के नाती है संजय दत्त। बात है 1892 के गुलाम भारत की, जब इलाहाबाद के कोठे की मशहूर तवायफ दलीपाबाई के घर जद्दनबाई का जन्म हुआ। मां के नक्शेकदम पर जद्दनबाई भी ठुमरी और गजलें सुनाने लगीं। इनकी आवाज की दीवानगी ऐसी थी कि इन्हें सुनने आए दो ब्राह्मण परिवार के नौजवानों ने इनसे शादी करने के लिए परिवार छोड़कर इस्लाम कबूल कर लिया।

दलीपाबाई गांव पहुंचे लोगों के बहकावे में आकर इलाहाबाद भाग आईं, लेकिन उन लोगों ने दलीपाबाई को कोठे में बेच दिया। यहां उनकी शादी सारंगी वादक मियां जान से हुई जिनसे उन्हें एक बेटी जद्दनबाई हुई। जब गायकी में उतरीं तो जद्दनबाई को मां से भी बेहतरीन तवायफ का दर्जा मिल गया। ये कहना गलत नहीं होगा कि लोग एक नजर में इनके दीवाने हो जाया करते थे। यही हाल हुआ लखनऊ के रईस मोहनबाबू का जो निकले तो लंदन के लिए थे लेकिन जद्दनबाई से मिलकर वो सबकुछ छोड़ बेठे। मोहनबाबू ने अब्दुल रशीद बनकर जद्दनबाई से शादी की जिससे इन्हें एक बेटी नरगिस हुई। जद्दनबाई भी कोठे से निकलकर संगीत के उस्तादों से संगीत सीखने पहुंच गई। इनकी गाई गजलों को यूके की म्यूजिक कंपनी रिकॉर्ड करके ले जाया करती थी। ब्रिटिश शासक इन्हें महफिलों में बुलाया करते थे। रेडियो स्टेशन में जद्दनबाई की आवाज देशभर के लोगों को दीवाना कर रही थी। पॉपुलैरिटी बढ़ी तो इन्हें लाहौर की फोटोटोन कंपनी की फिल्म राजा गोपीचंद में काम मिला।

चंद फिल्मों में इन्होंने अभिनय भी किया और बाद में ये परिवार के साथ सपनों के शहर मुंबई पहुंच गईं, जहां बड़े स्तर पर फिल्में बन रही थीं। यहां उन्होंने खुद की प्रोडक्शन कंपनी संगीत फिल्म शुरू की और तलाश-ए-हक फिल्म बनाई। इसी फिल्म में जद्दनबाई ने अभिनय करने के साथ म्यूजिक कंपोज भी किया। इतिहास में ये पहली बार था जब कोई महिला म्यूजिक कंपोज कर रही थी। 1935 की इस फिल्म में उन्होंने 6 साल की बेटी नरगिस को कास्ट किया। प्रोडक्शन कंपनी से कर्ज उतारने के लिए ये लगातार नरगिस को फिल्मों में लेने लगीं। 1940 तक जद्दनबाई की प्रोडक्शन कंपनी भारी नुकसान में जाने से बंद हो गई। जद्दनबाई ने फिल्मों में काम करना बंद कर दिया।

नरगिस को 14 साल में मिली फिल्मों में पहचान- नरगिस को 14 साल की उम्र में तकदीर फिल्म से पहचान मिली। वह अपनी बेटी नरगिस को सुपरस्टार बनते देखे लेकिन अफसोस ये सपना उनका पूरा नहीं हो पाया। नरगिस सुपरस्टार हीरोइन बनी और उन्होंने सुनील दत्त से शादी की। साल 1981 में नरगिस की मौत भी कैंसर से हुई।
…जय हो

Shashi Kumar Keswani

Editor in Chief, THE INFORMATIVE OBSERVER