राकेश अचल
मध्यप्रदेश में पंचायत और स्थानीय निकाय चुनावों में पिछड़ा वर्ग के आरक्षण की राजनीति शर्मिंदगी की हद तक जा पहुंची है. चुनाव जीतने के लिए सरकार ने कुछ वर्षों पहले प्रदेश में हुई हिंसा को लेकर पिछड़ा वर्ग के लोगों के खिलाफ दर्ज मामलों को वापस लेने का ऐलान किया है सरकार तो सरकार है ,अपने राजनीतिक लाभ के लिए कुछ भी कर सकती है .फिर प्रदेश में कानों और अदालतों की क्या जरूरत है .
जुगाड़ से सरकार चला रहे मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान खुद पिछड़ा वर्ग से एते हैं लेकिन फिर भी 2018 के विधानसभा चुनाव में पटकनी खाने के बाद मुख्यमंत्री जी को अपने ही समाज से भय लगता है .इसलिए पहले सरकार ने स्थानीय चुनाव में पिछड़ा वर्ग आरक्षण का कार्ड खेलने की कोशिश की तो कांग्रेस ने सीराजा फैला दिया और अब जब सबसे बड़ी अदालत के निर्णय के बाद प्रदेश में स्थानीय निकायों के चुनाव हो रहे हैं तो पिछड़ा वर्ग को लुभाने के लिए तरह-तरह के लालच परोसे जा रहे हैं .सबसे बड़ी घोषणा पिछड़ा वर्ग के लोगों के खिलाफ दर्ज आपराधिक मुकदद्मे वापस लेने की है .
दरअसल प्रदेश में सरकार भारतीय दंड संहिता से चल ही नहीं रही. प्रदेश में एक और तो बुलडोजर संहिता है और दूसरी और शिवराज संहिता .सरकार को अधिकार है की वो कोई भी मामला वापस ले सकती है ,लेकिन अमूमन सरकारें किसी के खिलाफ दर्ज फौजदारी मामले वापस नहीं लेती लेकिन चुनाव जीतने की मजबूरी ने मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान से ये भी करा लिया .फौजदारी के मामले अदालतों में ही निर्णीत होते हैं क्योंकि वे आपरधिक मुकदमे हैं. उनके आरोपियों पर गंभीर वारदातों के आरोप हैं .लेकिन जब सरकार उदारता बरतने पर आये तो कोई कुछ नहीं कर सकता .
मध्यप्रदेश में स्थानीय चुनावों की घोषणा के ठीक पहले सरकार से जितनी घोषणाएं की जा सकतीं थीं आनन-फानन में कर भी दी गयीं .पिछड़ा वर्ग का समर्थन हासिल करने के लिए सरकार कुछ भी करने को तैयार बैठती है. उसे हर हाल में स्थानीय चुनाव जीतना है ,यानि साम,दाम ,दंड और भेद सभी तरीके अपनाये जायेंगे .अपनाये जाते रहे हैं लेकिन आपराधिक मामलों की वापसी हास्यास्पद लगती है .बहुत मुमकिन है कि सरकार की इस घोषणा का चुनावों पर थोड़ा-बहुत असर पड़े लेकिन प्रदेश का चुनाव आयोग भी एक छोटा केंचुआ है .सरकार को घोषणाएं करने से नहीं रोक सकता .
बहुत कम लोग जानते होंगे की प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान घोषणाएं करने में दुसरे मुख्यमंत्रियों से सबसे आगे हैं ,क्योंकि घोषणाएं करने में जाता ही क्या है ? घोषणाओं की पूर्ती करने के लये कोई आजतक अदालत का दरवाजा खटखटाने नहीं गया है .मुख्यमंत्री शिवराज सिंह ने विगत वर्षों में 5115 घोषणाएं की थीं जिनमें से केवल 1838 घोषणाएं ही पूरी हो पायीं ,यहां तक की पत्रकारों के लिए ग्वालियर में पत्रकार कालोनी की बकाया लीज रेंट वापस लेने की मांग भी शामिल हैं आजतक पूरी नहीं हुई.
सवाल ये है कि पिछड़ा वर्ग के लोगों के खिलाफ दर्ज आपराधिक मामले क्यों वापस किये जा रहे हैं ? क्या ये अदालतों के साथ ही हिंसा के पीड़ितों के प्रति अन्याय नहीं है ? क्या ये अदालतों की अवमानना नहीं है ? ऐसी क्या जरूरत पड़ रही है कि शासन अचानक पिछड़ा वर्ग के खिलाफ सुरक्षात्मक तरीके से खेलने लगा है .क्या ये प्रदेश के उन 48 फीसदी मतदाओं को लुभाने की कोशिश तो नहीं है .प्रदेश में वोट की राजनीति ने नैतिकता की सभी सीमाओं को ताक पर रख दिया है .कांग्रेस और भाजपा के बिच पिछड़ा वर्ग के लोगों को रिझाने की होड़ मची है और अब तो कांग्रेस से सवाल किया जाने लगा है कि उसने अब तक प्रदेश को एक भी ओबीसी मुख्यमंत्री नहीं दिया .
हकीकत यह है कि 15 वर्ष के लगातार शासन के बाद भी प्रदेश में कोई भी वर्ग भाजपा कि मौजूदा जुगाड़ सरकार के कार्यों से खुश नही है. इसीलिए एक ओर जहाँ जाति/वर्गवार सम्मेलन आयोजित किये जा रहे हैं, वहीं दूसरी ओर भारी-भरकम सरकारी खर्च एवं शासकीय अमले के दुरुपयोग से जनआशीर्वाद यात्रा निकाली जा रही है.इन सबका भाजपा कितना लाभ ले पाएगी ये आने वाला समय समय ही बताएगा .इस मामले में भाजपा और कांग्रेस के चरित्र में कोई ज्यादा बुनियादी फर्क नहीं है. प्रदेश में स्थानीय निकायों के चुनाव भाजपा के लिए लिटमस टेस्ट जैसे ही हैं क्यंकि यदि भाजपा इन चुनावों में ढंग का प्रदर्शन न किया तो अगले साल होने वाले विधानसभा चुनावों में उसे परेशानी का सामना करना पड़ सकता है .
पिछड़ा वर्ग के लोगों के खिलाफ दर्ज आपराधिक मामलों की वापसी से समाज के दूस्सरे वर्ग के लोग स्वभाविक रूप से खिन्न होंगे .लेकिन सरकार को सिर्फ अपना लाभ नजर आता है. इस समय पिछड़ा वर्ग ही सरकार को अपना तारणहार दिखाई दे रहा .