सुधीर निगम, वरिष्ट पत्रकार
विधानसभा चुनाव अब बस छह-सात महीने दूर हैं और भाजपा-कांग्रेस अपनी गोटियां बैठाने में व्यस्त हैं। पिछले चुनाव में कांग्रेस ने 15 साल बाद अपना परचम लहराया, लेकिन 15 महीने में ही उसका झंडा, डंडे सहित धड़ाम हो गया। खासतौर पर ग्वालियर-चंबल क्षेत्र में कांग्रेस ने एकतरफा जीत दर्ज की थी, लेकिन उसे झटका भी वहीं से लगा। झटका भी इतना तगड़ा की उसके ऐवज में उसे सरकार गंवानी पड़ी। इस बार भी लड़ाई का असली मजा यहीं आएगा।
ग्वालियर-चंबल अंचल ने मप्र की राजनीति में हलचल जरूर मचाई, लेकिन सूबे में सत्ता की चाबी मालवा-निमाड़ क्षेत्र के पास है। यहाँ की 66 सीटें किसी की भी सरकार बनवा सकती हैं। पिछले चुनाव में भी कांग्रेस ने इनमें से 36 सीट जीतकर भाजपा को पीछे धकेल दिया था, जबकि यह अंचल भाजपा का गढ़ माना जाता है। हालांकि बाद में हालात बदले और अब तक कुल सात विधायक कांग्रेस छोड़कर भाजपा में जा चुके हैं। यही हाल ग्वालियर-चंबल क्षेत्र का था। वहां की 34 सीटों में से 26 जीतकर कांग्रेस ने भाजपा का सूपड़ा साफ कर दिया था। सिंधिया की अनदेखी की सजा कांग्रेस को यहीं से भुगतनी पड़ी। यहां के 26 में से कांग्रेस के 15 विधायक सिंधिया के साथ बगावत कर गए और कांग्रेस सरकार की बलि ले ली। इन्हीं दोनों अंचलों ने कांग्रेस को सत्ता में बैठाया था और सबसे ज्यादा बगावत भी यहीं हुई। इसके अलावा कांग्रेस का वनवास खत्म करने में महाकौशल की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण थी। पहले भी कांग्रेस यहां अच्छा प्रदर्शन करती रही है, लेकिन सन 2018 के चुनाव में यहां की 38 में से 24 सीटों पर उसने भाजपा को पछाड़ा था। इस अंचल की खास बात यह रही कि सिंधिया की बगावत को यहां से कोई समर्थन नहीं मिला। यहां का एक भी कांग्रेस विधायक उनके साथ नहीं गया। इसी तरह विंध्य से भी एकमात्र बिसाहूलाल सिंह ने ही कांग्रेस को दगा दिया। हालांकि विंध्य क्षेत्र की 30 सीटों में कांग्रेस को मात्र 6 ही मिली थीं। उसकी इतनी बुरी गत इससे पहले कभी नहीं हुई थी। मध्य भारत और बुंदेलखंड के दो-दो विधायकों ने कांग्रेस को टाटा किया था। मध्य भारत में 36 सीटें हैं, इनमें से भाजपा ने 23 जीती थी। ये क्षेत्र शुरू से भाजपा के लिए मुफीद रहा है। बुंदेलखंड की 26 में से 14 में भाजपा विजयी रही थी। यहां पर सपा-बसपा ने भी खाता खोला था।
इस बार के चुनाव में भाजपा सबसे ज्यादा उम्मीदें मालवा-निमाड़ से ही लगा कर बैठी है। मध्य भारत तो खैर उसका गढ़ रहा है। विंध्य, महाकौशल में कांग्रेस का पलड़ा भारी दिख रहा है। बुंदेलखंड में भी कांग्रेस कुछ पा सकती है। लड़ाई का मुख्य मंच तो ग्वालियर-चंबल में सजेगा। यहां सिंधिया की प्रतिष्ठा दांव पर होगी। कांग्रेस भी अपनी सरकार जाने का दर्द नहीं भूली है। सत्ता गंवाने की टीस रह-रह कर उठती ही होगी। यहां जीतने के लिए कांग्रेस सब कुछ दांव पर लगाने को तैयार है। कुल मिलाकर अगले संग्राम का मजा तो ग्वालियर-चंबल में ही आने वाला है।