रंजन श्रीवास्तव
23 वर्षीया डॉक्टर आयशा खान ने एक गंभीर गलती की। लोगों की जान बचाने का पेशा चुनने वाली डॉक्टर आयशा खान राजधानी के बाणगंगा चौराहे पर ट्रैफिक लाइट पर लाल सिग्नल देखकर वहां रूक गई। उनको विश्वास रहा होगा कि ट्रैफिक लाइट की तरह सरकारी सिस्टम भी अपना काम अच्छी तरह से कर रहा होगा और उन्हें कम से कम किसी चौराहे पर ट्रैफिक लाइट के कारण रुकने के दौरान किसी हादसे का सामना नहीं करना पड़ेगा।
देश में लाखों लोग रोजाना विभिन्न शहरों में चौराहों पर रुकते हैं, हरा सिग्नल की प्रतीक्षा करते हैं और हरा सिग्नल होते ही अपने अपने गंतव्यों की तरफ आगे बढ़ जाते हैं। कौन सोचता है कि इन चौराहों पर रुकने के दौरान महीनों से बिना फिटनेस सर्टिफिकेट के चल रही कोई सिटी बस या कोई स्कूल बस उन्हें मौत के आगोश में सुला देगी? आयशा सिर्फ एक महीने बाद ही होने वाली अपनी शादी की तैयारियों में व्यस्त थी। उनके सामने नए जीवन की उमंगें थीं। परिवार में हर्ष और उल्लास का वातावरण था। बीएएमएस डिग्री होल्डर डॉक्टर आयशा खान जिला अस्पताल में अपना इंटर्नशिप भी पूरा कर रही थी। परिवार निमंत्रण पत्र बांट रहा था।
इंटर्नशिप के व्यस्त कार्यक्रम के बावजूद आयशा को अपने परिवार के साथ शादी की तैयारियों के लिए खरीदारी भी करनी थी। शादी में सिर्फ एक महीने का समय और अति व्यस्तता के बावजूद डॉक्टर आयशा ने ट्रैफिक लाइट का उल्लंघन नहीं किया। बहुतों की तरह दाएं बाएं इधर उधर से अपनी स्कूटी को आगे ले जाने की कोशिश नहीं की क्योंकि उन्हें राजधानी में सरकारी सिस्टम पर विश्वास रहा होगा यह मानते हुए कि परिवहन विभाग और ट्रैफिक पुलिस “वसूली” अभियान के बजाय अपना काम ईमानदारी से कर रही होगी। अगर डॉक्टर आयशा ने सिस्टम पर विश्वास रखते हुए ट्रैफिक लाइट का उल्लंघन नहीं किया तो वह गलत साबित हुईं और उनको इसकी कीमत अपनी जान देकर चुकानी पड़ी।
इस बात के बावजूद कि मुख्यमंत्री मोहन यादव के निर्देश पर सभी बसों के फिटनेस सर्टिफिकेट की जांच का काम पिछले वर्ष शुरू हुआ था और राजधानी में भी इसको लेकर एक मुहिम चलाई गई थी, बाणगंगा चौराहे पर दुर्घटना के बाद हुए जांच में यह बात सामने आई कि दुर्घटना कारित करने वाली बस का फिटनेस सर्टिफिकेट ही नहीं था और ना बीमा ही। बस के पंजीकरण कि वैधता अवधि भी समाप्त हो चुकी थी यानी कि सम्बंधित स्कूल द्वारा यह किलर बस पिछले पांच महीने से बिना किसी फिटनेस सर्टिफिकेट, पंजीकरण और बीमा के किसी दूरदराज क़स्बा या शहर में नहीं बल्कि राजधानी में सरकार और प्रशासन के नाक के नीचे चलाई जा रही थी पर परिवहन विभाग और ट्रैफिक पुलिस आँख बंद किये हुए अपने अपने टारगेट को पूरा करने में व्यस्त रही जब तक कि डॉक्टर आयशा की मौत नहीं हो गयी और अन्य लगभग आधा दर्जन लोग घायल नहीं हो गए।
वर्ष 2016 में भोपाल में ही दो दुर्घटनाओं जिसमें एक में एक स्कूल बस शामिल थी और दूसरे में एक स्कूल वैन लगभग 20 छात्र और छात्राएं घायल हुए थे। इसके बाद भोपाल में एक मुहिम चलाई गई जिसके दौरान बहुत से बसों में फिटनेस सर्टिफिकेट नहीं पाए गए थे। ड्राइवर्स के लाइसेंस भी चेक किये गए थे। पर जैसा कि हमेशा होता है किसी भी बड़ी दुर्घटना के बाद सरकार और प्रशासन जग जाता है और कुछ समय के बाद फिर से सुप्तावस्था में चला जाता है अगली बड़ी दुर्घटना होने तक। ऐसा नहीं कि बसों के फिटनेस, ड्राइवर्स के लाइसेंस और अन्य वैध डाक्यूमेंट्स की जांच का निर्देश सम्बंधित विभागों को समय समय पर सिर्फ तत्कालीन मुख्यमंत्री या वर्तमान मुख्यमंत्री से ही मिला हो। बच्चों की सुरक्षा को सबसे महत्वपूर्ण मानते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कुछ वर्ष पूर्व एक विस्तृत गाइडलाइन्स के बारे में दिशा निर्देश दिए थे।
इंदौर में एक दुर्घटना में छह वर्ष पूर्व 5 स्कूल छात्रों के मृत्यु के पश्चात् तत्कालीन शिक्षा मंत्री दीपक जोशी ने कहा था कि सरकार ने भोपाल में एक दुर्घटना के बाद स्कूल बसों के बारे में एक विस्तृत गाइडलाइन तैयार की थी और सरकार यह सुनिश्चित करेगी कि दुर्घटना के बारे में लोगों की जिम्मेदारी तय की जाए। हाई कोर्ट ने भी स्कूल बसों के बारे में सरकार को कुछ वर्षों पूर्व निर्देश दिया था। पर जो सिस्टम अपने मुख्यमंत्री की नहीं सुन रहा वह सुप्रीम कोर्ट या हाई कोर्ट की बात को क्यों सुनेगा?भोपाल में बाणगंगा चौराहे पर हुई दुर्घटना इस बात का ज्वलंत उदाहरण है इस बात का।
सरकार के निर्देश पर क्षेत्रीय परिवहन अधिकारी को निलंबित कर दिया गया है। पुलिस ने प्रथम सूचना रिपोर्ट भी दर्ज कर ली है। दो गिरफ्तार भी हो चुके हैं जिन्होंने दुर्घटना के बाद स्कूल बस को पिछली तारीख में बिका हुआ दिखाने की कोशिश की। पर इस कवायद से क्या आयशा खान को अपना जीवन वापस मिल जायेगा और क्या उस क्षति की भरपाई हो पायेगी जो एक परिवार को हुआ है और हेल्थ सिस्टम को हुआ है जिसमें आयशा खान अपना कार्य कर रही थी?